अच्छे दिन यानी रामराज में सीता निर्वासित, आधी आबादी की अनिवार्य आवश्यकता महंगी

वामा            Jul 05, 2017


मेरठ से ममता सिंह।
आईफोन सस्ते बाइक सस्ते हो गए अब क्या? बल्ले -बल्ले! अजी रुकिये,जरा सुनिये सैनिटरी नैपकिन महंगे। यानी आधीआबादी की अनिवार्य आवश्यकता महंगी !! मगर आधी आबादी की सच्चाई भी आधी। क्यों ? क्योंकि: आधी आबादी की "तीन चौथाई" तो इसे जानती ही नहीं !

उच्चवर्ग,शहरी मध्यवर्ग के अलावा ग्रामीण मध्यवर्ग और निम्नवर्ग की औरतें या तो इसके बारे में जानती नहीं...और जो जानती हैं वो इस्तेमाल नहीं करतीं। क्यों नहीं करतीं इस्तेमाल? क्योंकि... ये पहले ही उनके लिए लक्जरी चीज थी जो अब "और लक्जरी" हो गई। यकीन नहीं होता न ?

मंगलयान बनाने वाला देश,अरबपतियों -खरबपतियों का देश,क्रिकेट में बेशुमार रुपया सट्टेमें लगाने वाला देश,एक दिन में करोड़ रूपये से अधिक की कमाईवाली फिल्मों के देश में ऐसी ओछी बात सोची भी नहीं जा सकती न !

तो बंधु/बान्धवियों !...इस देश का एक शर्मनाक सच ये भी है अभी भी ग्रामीण इलाकों में..सामान्यतयः लड़कियां विवाह के बाद ही पहली बार सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल करती हैं..वो भी हाइजीन या शौक के लिए नहीं ,वरन नई जगह पर पीरियड्स में इस्तेमाल किये जाने वाले कपडे को धोने-सुखाने की झंझट और शर्म से बचने के लिए.

टीवी पर साबुन से हाथ धुलने पर भी संक्रमण से बचाने के लिए, हाइजीन के नाम पर हैंडवाश के विज्ञापनों की भरमार देखते हुए..देश के रहनुमाओं,स्त्री विमर्श के पैरोकारों,लोक और जन के नाम का ढोल बजाने वालों ने कभी स्त्री के इस कुदरती कारक की ओर ध्यान दिया.. कि आखिर ये गरीब,अनपढ़,ग्रामीण औरतें पीरियड्स में क्या इस्तेमाल करती हैं ?संक्रमण से बचाव के क्या उपाय अपनाती हैं??????

न-न...ये वो औरतें नहीं जो पीरियड्स में कमर,पेड़ू में दर्द,मूड स्विंग आदि की शिकायत करें..इन्हें तो फुरसत ही नहीं ये सब सोचने की...इन्हें तो कुछ फटे-पुराने चीथड़े...कागज...रेत/मिट्टी भरकर बनाई पोटलियाँ या बारबार धुल कर इस्तेमाल किये जाने वाले कपड़े(जिन्हें धोकर घर के सबसे अँधेरे,सीलन वाले कोने में सुखाया जाता है) मिल जाएं... बस।

वैसे आजकल पीरियड्स में होने वाली दुश्वारियों ,दर्द आदि के पक्ष-विपक्ष में खूब साहित्य रचा जा रहा, पर काश किसी ने उन औरतों के बारे में भी सोचा,लिखा होता जो पढ़ी-लिखी,सजी-संवरी,शहरी औरतें नहीं....,सिर पर तपता सूरज...नीचे टखने भर पानी में धान रोपती किशोरियां/औरतें,.....पीठ पर बंधा बच्चा और सिर पर ईंट लादे भट्ठे की मजदूर औरतें,.....सड़कों-इमारतों के निर्माण में मजदूरी करती औरतें,.....घरों में चौका-बर्तन,झाड़ू-पोछा करने वाली औरतें..क्या इन्हें पीरियड्स नहीं होते...इन्हें दर्द नहीं होता...मूड स्विंग नहीं होता ?क्या हमने कभी सोचा इनके बारे में.....???

पुरुष ! जो स्त्री अंगों को लेकर वीभत्स गालियां गढ़ लेंगे। पीरियड्स पर कुत्सित चुटकुले बना लेंगे,पर क्या मज़ाल कि हाशिये पर पड़ी इन औरतों के कल्याण के लिए कोई योजना बनाकर क्रियान्वित करें..! स्त्रियां वो भी पढ़ी-लिखी,जो शर्म,संकोच,शुचिता,पवित्रता का टोकरा सिर पर धरे घूमती हैं ...उनके लिए पीरियड्स और सैनिटरी नैपकिन पर बात करना सभ्यता-संस्कृति के खिलाफ है!विवाह के पूर्व इनकी माँ/भाभी और विवाह के पश्चात् पति ही इनके लिए सैनिटरी नैपकिन लाते हैं..सो बेचारियों को खुद ही इनके दाम पता नहीं होते तो अन्य औरतों के लिए ये क्या सोचेंगी !

अस्वास्थ्यकर सामग्रियों के उपयोग,जानकारी का अभाव,स्वच्छता के नियमों को न जानने और संक्रमण से बचने के कोई उपाय उपलब्ध न होने के कारण सौ में अस्सी ग्रामीण औरतें...खुजली,जलन,अधिक रक्तस्राव, श्वेतप्रदर,एनीमिया सहित बच्चेदानी में संक्रमण आदि रोगों से ग्रस्त होती हैं...और हैरानी की बात ये कि वो इसे रोग नहीं समझतीं,इन्हें सामान्य परेशानी समझ वो तबतक काम करती रहती हैं जबतक रोग अधिक गंभीर होकर उन्हें शिथिल और लाचार न कर दे।

पूर्ववर्ती या वर्तमान सरकारों में किसी ने औरतों की इस अपरिहार्य जरुरत और अनवरत अनदेखी से महामारी बन गये रोग की ओर ध्यान नहीं दिया.उत्तरप्रदेश की पिछली सरकार ने जूनियर स्कूलों में किशोरी- बालिकाओं को सैनिटरी नैपकिन बाँटने की सराहनीय योजना शुरू तो की थी,पर इस योजना का एक अनोखा पहलू ये रहा कि वर्ष में एक बार एक पैकेट नैपकिन वितरित कर मासिक समस्या के निदान की हास्यास्पद कोशिश हुई।

अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने योगदिवस के नाम पर तैयारियों-विज्ञापनों में अरबों रूपये और कार्य के सैकड़ों घंटे खर्च किये.यह योग खाये पिये-अघाये शहरी नौकरी पेशा और व्यापारी वर्ग के लिए तो मुफ़ीद है..पर मजदूर,किसान,आदिवासी और सबसे बढ़कर ग्रामीण औरतों के किस काम का है,मेरी समझ में नहीं आया|

यदि यही रूपये स्त्रियों के स्वच्छता और संक्रमण से बचाव के लिए सस्ते और सुलभ सैनिटरी नैपकिन बनाने,वितरित करने और सरोकारी मदो पर खर्च होते तो शायद ज्यादा बेहतर और सार्थक होता! ऐसा कुछ करने के बजाय सरकार ने टैक्स बढ़ाकर इसे सामान्य औरतों की पहुँच से भी दूर कर दिया!
काश! टैक्स बढाने वालों ने अपने घरों की महिलाओं और अपने घरों में काम करनेवाली बाइयों से भी कोई राय ली होती????
काश!!!!!

 



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