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अब देश का कंधा नहीं सत्ता का धंधा देखें

खरी-खरी            Feb 06, 2016


punya-prasoon-vajpai पुण्य प्रसून बाजपेयी दलित, किसान और अल्पसंख्यक। तीनों वोट बैंक की ताकत भी और तीनों हाशिये पर पड़ा तबका भी। आजादी के बाद से ऐसा कोई बजट नहीं, ऐसी कोई पंचवर्षीय योजना नहीं, जिसमें इन तीनों तबकों को आर्थिक मदद ना दी गई हो और सरकारी पैकेज देते वक्त इन्हें मुख्यधारा में शामिल करने का जिक्र ना हुआ हो। नेहरु को भी आखिरी दिनों [ 1963-64 ] में किसानों के बीच राजनीतिक रैली के लिये जाना पड़ा और लालबहादुर शास्त्री ने तो जय जवान के साथ जय किसान का नारा लगाया। पटेल से लेकर मौलाना कलाम तक मुस्लिमों को हिन्दुस्तान से जोड़ते हुये उन्हें उनके हक को पूरा करने का वादा करते रहे। आंबेडकर से लेकर वीपी सिंह तक दलितों के हक के सवालों को उठाते रहे, साधते रहे। तो मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी अगर किसान रैली की तैयारी कर रहे हैं और राहुल गांधी दलित अधिवेशन करना चाह रहे हैं तो कई सवाल एक साथ निकल सकते हैं। पहला, क्या देश को देखने का नजरिया अभी भी जाति, धर्म या किसान-मजदूर में बंटा हुआ है। दूसरा, राजनीतिक मलहम में ऐसी कौन सी खासियत है जो सियासत को राहत देती है लेकिन समाज को घायल करती है। तीसरा, अगर हिन्दू राष्ट्र की सोच तले मुसलमान खुद को असुरक्षित मानता है तो फिर बढ़ती विकास दर के बीच भी किसानों की खुदकुशी अगर बढ़ती है, गरीबों के हालात और बदतर होते जाते हैं, तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठ पाता कि सांप्रदायिकता हो या अर्थ नीति दोनों में ही अगर नागरिकों की ही जान जा रही है तो फिर सवाल हिन्दू-मुस्लिम या गरीब-बीपीएल में क्यों उलझा दिया जाता है? यानी अपराध है क्या और देश के विकास के लिये कौन सा मंत्र अपनाने की जरुरत है, इस पर संविधान कुछ नहीं कहता या फिर राजनीतिक सत्ता पाने के तौर तरीकों ने संविधान को भी हड़प लिया है। क्योंकि जिस रास्ते पर मौजूदा राजनीति चल रही है अगर इसके असर को ही देख लें तो दलित उत्पीड़न के मामले बीते तीन बरस में ही पचास फीसदी बढ़ गये। 2012 में 33,655 मामले दलित उत्पीडन के थे। तो 2015 में यह आंकड़ा 50 हजार पार कर गया। किसानों की खुदकुशी में भी तेजी आ गई। सिर्फ 2015 में ही हर दो घंटे एक किसान देश में खुदकुशी करने लगा। करीब साढ़े चार हजार किसानों ने खुद को इसलिये मार लिया क्योंकि जिन माध्यमों से उन्होंने पैसा लेकर खेती की। वह पैसा लौटाने की स्थिति में वह नहीं थे और कर्ज बढ़ता जाता। कर्ज लौटाने की धमकी को सहने की ताकत उनमें थी नहीं तो खुदकुशी कर ली। खुदकुशी करने वाले बारह सौ किसानों ने ग्रामीण बैंक से कर्ज लिया था। former-suciede यानी साहूकार या दूसरे निजी माध्यम उनके बीच नहीं थे, बल्कि खुद सरकार ही थी। उसी का तंत्र था। वही तंत्र जो बैंकों के जरीये कारपोरेट और बड़ी कंपनियों को करीब 13 लाख करोड़ दे चुका है और वह आज तक लौटाया नहीं गया और एनपीए की यह रकम लगातार बढ़ ही रही है। इससे हटकर सरकार ही औद्योगिक संस्थानों या कारपोरेट सेक्टर को हर बरस अलग—अलग टैक्स में ही तीन लाख करोड़ माफ कर देती है। लेकिन खेती और उससे जुडे संस्थानों पर दो लाख करोड़ की सब्सिडी सरकार को भारी लगती है। इसी तर्ज पर अलग दलित और मुस्लिमों के आर्थिक-सामाजिक हालात को परख लें तो हैरत होगी कि सांप्रदायिक हिंसा में 70 फीसदी मौत अगर इस तबके की हुई तो देश में दरिद्रता की वजह से होती मौतों में दलित आदिवासी और मुस्लिमों की तादाद 90 फीसदी के पार है । तो अगला सवाल कोई भी कर सकता है कि क्या हिन्दुस्तान का मतलब सिर्फ वही 12 से 20 फीसदी है जिसकी जेब में जीने के सामान खरीदने की ताकत है, जिसके पास पढ़ने के लिये पूंजी है? जिसके पास इलाज के लिये हेल्थ कार्ड है? कह सकते हैं हालात तो यही है। क्योंकि मौजूदा वक्त में किसी राज्य के पास किसानों के लिये कोई नीति नहीं है। दलित उत्पीड़न रोकने की कोई सोच नहीं। हिन्दू-मुस्लिमों के सवाल को साप्रदायिक हिंसा के दायरे से बाहर देखने का नजरिया नहीं है। क्योंकि सत्ता पाना और सत्ता में टिके रहने का हुनर ही अगर गवर्नेंस है तो हर एक की हालत एक सरीखी है। चाहे वह सरकार कर्नाटक में कांग्रेस की हो या फिर गुजरात झारखंड, महाराष्ट्र,हरियाणा , छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में बीजेपी की हो या फिर आंधप्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू की या तेलगांना में केसीआर की। या फिर उडीसा में नवीन पटनायक की या यूपी में अखिलेश यादव की। cartoon-on-corruption हर राज्य में सूखा है। आलम यह है कि देश के 676 जिले में से 302 जिले सूखाग्रस्त हैं। और इनकी पहचान उस शाईनिग इंडिया की सोच से बिलकुल अलग है जो हर राज्य का सीएम राजधानी में बेठकर देखना चाहता है। बारिकी को समझें तो हर सीएम चकाचौंध खोजने के चक्कर में गांव और किसान को अंधेरे में ढकेल रहा है। यही वजह है कि न्यूनतम जरुरत पूरी करने के लिये बनाये गये कार्यक्रम मनरेगा और खाद्य सुरक्षा मौजूदा वक्त में इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ रहा है कि इसे लागू क्यों नहीं किया गया? मुश्किल इतनी भर नहीं है कि 2013-14 में जो कृर्षि विकास दर 3.7 फीसदी थी, वह 2014-15 में घटकर 1.1 फीसदी हो गई। मुश्किल यह है कि एक तरफ वित्त मंत्री देश की विकास दर 8 से 9 फीसदी तक पहुंचाने को बेहद आसान मान रहे हैं। तो दूसरी तरफ भारत सूखे की वजह से जमीन के नीचे पानी इतना कम हो गया है कि हैडपंप की बिक्री में 30 फीसदी की कमी आ गई है। टैक्टर की बिक्री में 20 फीसदी की कमी आ गई है 20 फीसदी किसान मजदूर का पलायन बढ गया है। जो किसान गांव में है वह हार्ट्रीकल्चर और पेड लगाने के काम से जा जुड़े हैं। यानी काम वहां भी कम हो रहा है। दूसरी तरफ शहरों में मजदूरों के बढ़ते बोझ ने उनकी मजदूरी को स्थिर कर दिया है।यानी न्यूनतम मजदूरी में कोई वृद्दि नहीं है और हर राज्य सरकार का रुख भी उस इकानामी पर जा टिका है जो अपनी जमीन, अपने मानव संसाधन और अपने उत्पाद से दूर हो। यानी विदेशी निवेश के जरीये शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर की प्रथमिकता तले ही बेहाल भारत की यह तस्वीर उभर रही ,तो फिर गड़बड़ी महज सिस्टम की नहीं है बल्कि सिस्टम को किस तंत्र के तहत चलाना है गड़बडी वहीं है। best-rest-place-of-politician सिस्टम का मतलब ही राजनीतिक सत्ता पाना हो जाये तो उस नमूना पहले बिहार में नजर या अब असम में नजर रहा है। बिहार से पहले दिल्ली चुनाव में केन्द्र के 39 मंत्रियो ने चुनावी रैली कर वोटरों को सरकार के करीब लाने की कोशिश की। फिर बिहार में 27 मंत्रियों ने चुनावी रैली कर बिहार में चुनाव जीतने में मशक्कत की और अब असम चुनाव है तो प्रधानमंत्री मोदी 5 फरवरी की रैली के बाद सात कैबिनेट मंत्रियों की रैली की तैयारी में असम है। सुषमा स्वराज , नीतिन गडकरी, धर्मेन्द्र प्रधान, निर्मला सीतारमण, नजमा हेपतुल्ला के अलावे बंगाल और असम के जो भी मोदी सरकार में मंत्री हैं सभी को चुनाव एलान से पहले जाकर असम में रैली करनी है। वादे करने है। यानी चुनाव होंगे तो केन्द्रीय मंत्री भी पहुंचेंगे। लेकिन सरकारो के पास अगर कोई नीति ही नहीं है कि देश किस रास्ते जाना है तो एक दौर का असफल मनरेगा भी अन्हे सफल वगेगा और राजनीतिक जीत के लिये केन्र्य मंत्रियों का समूह ही उम्मीद जगायेगा। जाहिर है ऐसे में समाज के भीतर अंसतोष तो पनपेगा । वजह भी यही है कि न्यूनतम के लिये ही 2005 में नरेगा को समाज की भीतर शाकअब्जरवर माना गया। यानी किसान-मजदूर, दलित मजदूर, गरीबी में जिन्दगी गुजारने वाले अल्पसंख्यक तबके के भी राजनीतिक सत्ता को लेकर अंसतोष ना पनपे इसके लिये नरेगा लाया गया था। जिसके पांच बरस पूरे हुये तो याद कीजिए देश में राजनीतिक बहस क्या छिडी? बहस थी नरेगा से मनरेगा होने वाली स्कीम के फेल होने की। क्योंकि मजदूरी बढी नहीं, किसानी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई। मनरेगा रोजगार से किसी योजना को अमली जामा पहनाया नहीं गया । मनरेगा बजट की लूट हर स्तर पर हुई। फिर एक वक्त मनमोहन सिंह को भी समझ में नही आया था कि मनरेगा और फूड सिक्यूरिटी को लेकर वह बजट कहा से लायेगा। मनरेगा को लेकर यह सवाल प्रदानमंत्री मोदी का भी सत्ता संभालते वक्त रहा। लेकिन जिस इक्नामी को मोदी सरकार अपनाये हुये है उसमें गांवों में अंसतोष ना पनपे इसके लिये मनरेगा मोदी सरकार के लिये भी शाकअब्जर्वर का काम करने लगी। यानी असफल योजना के सामने खुद सफल ना हो तो इसके लिये योजनायें कैसे सफल हो जाती हैं, इसका हर चेहरा नेहरु के दौर से लेकर अभी तक की योजनाओं तले समझा जा सकता है। क्योंकि दलितों और आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर बीते 68 बरस में 2450 से ज्यादा योजनायें बनायी गई। दस हजार से ज्यादा कार्यक्रमो का एलान किया गया, लेकिन 52 के पहले चुनाव और 2014 के चुनाव के बीच अंतर यही आया कि धीरे धीरे हर संस्था चाहे वह संवैधानिक संस्था हो या दबाब समूह के तौर पर काम करने वाली सामाजिक संस्था। हर संस्था राजनीतिक सत्ता की जद में आ गई और राजनीति सत्ता के लिये ही दलित, आदिवासी, किसान , मुस्लिमों की पहचान बना दी गई।


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