श्रीप्रकाश दीक्षित।
कुर्सी याने सत्ता लीडरों और पार्टियों को सातवें आसमान पर चढ़ा कर कितना मगरूर और घमंडी बना देती है इसकी खतरनाक मिसाल है अरूण जेटली का बुधवार को राज्यसभा में दिया गया बयान। चुनाव में पराजित होने के बाद पिछले दरवाजे से संसद में घुस कर मंत्री बने प्रधानमंत्री के खास सिपहसलार अरूण जेटली ने अदालतों को जी भर कर कोसा। उन्होंने सुप्रीमकोर्ट का नाम नहीं लिया पर निशाना देश की यह सबसे बड़ी अदालत ही है।
सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट मे जजों की नियुक्ति के अधिकार अपने हाथ में लेने के मंसूबे में नाकामयाबी से खिसयाई मोदी सरकार ख़ासी कुपित है । इधर हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद उत्तराखंड मे मुंह की खाने के बाद हो रही फजीहत से भी वह बिलबिलाई हुई है।
मोदी सरकार हर वह काम कर रही है जिसका विरोध कर वह सत्ता में आई है। काँग्रेस के दौर में राजभवन जिस प्रकार बूढ़े और दरबारी नेताओं के अड्डे हुआ करते थे अब वहाँ भाजपा के ही इस श्रेणी के नेता बिराजे हैं। उत्तराखंड मे दलबदल के हथकंडे के जरिए सरकार गिराने का ठीक वैसा ही खेल खेला गया जैसा काँग्रेस के दौर में खेला जाता था।
जेटली ने न्यायपालिका पर लगाया आरोप सरकार के कामकाज में दखलंदाजी बढ़ रही है
जिस सीबीआई के दुरुपयोग पर वह धरना-प्रदर्शन और घड़ियाली आँसू बहाया करती थी उसकी पिंजरे में बंद तोते जैसी हैसियत मे कोई फर्क नहीं आया है। अब काँग्रेस इस संस्था को लेकर वैसे ही आरोप मढ़ने लगी है। मनमोहनसिंह भी सुप्रीमकोर्ट को कोसते थे और अब मोदी भी वही कर रहे हैं।
लब्बो-लुआब यह कि सिर्फ सत्ताधारी पार्टी बदली है सत्ता की संस्कृति नहीं। दोनों पार्टियां एक जैसी हैं- एक नागनाथ तो एक सांपनाथ..! इसलिए जेटली के बयान का सिर्फ कागजी विरोध नहीं होना चाहिए बल्कि सड़कों पर उतर कर सरकार की खबर ली जानी चाहिए क्योंकि अब बड़ी अदालतें ही उम्मीद की आखिरी किरण हैं।
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