ममता यादव
यहां आतंकी दरअसल पकडे ही इसलिये जाते हैं कि सालों जेलों में उनकी खतिरदारी की जाये। जब सुप्रीम कोर्ट सजा सुनाये तो एक वैचारिक युद्ध शुरू किया जाये सही—गलत का,गुनाहगार बेगुनाह का। इस दौरान या तो कंधार होता है या कारगिल या गुरदासपुर। छोटी—मोटी हरकतें पाकिस्तान की तरफ से होती रहती हैं। लेकिन ब्रिक्स में भारत—पाक के बीच के समझौते होते हैं। मीडिया 24 घंटे की ड्यूटी बजाता है इस दौरान। क्या खाया? क्या पहना? कहां उठे? कहां बैठे? कितनी सार्थक वैचारिक जुगाली हुई? और कितनी पान की पीक के साथ थूक दी गई? इस दौरान भी कश्मीर और अन्य सरहदों पर इक्का—दुक्का जवान मारे जाते रहते हैं। जीत के एवज में आतंकी रिहा किये जाते हैं और वे दहाडकर कहते हैं हिंदुस्तान हमारा है। आप मिठाई भेजते हैं वे वापस करते हैं। वे आम भेजते हैं आप स्वीकारते हैं। सीमाओं पर कुछ नहीं बदलता।

एक दिन नहीं बीता जब कारगिल विजय दिवस पर जनरल दलबीर सुहाग ने कहा था हम दूसरे कारगिल की इजाजत नहीं दे सकते। क्यों कहा था? इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है। सीमा पर खून—खराबा होते और एक—एक भारतीय जवान को मौत के मुंह में जाते उन्होंने देखा है, इसलिय ऐसा कहते हैं। लेकिन उन सैनिकों के साथ सरकारें क्या करती हैं एक पेंशन का मसला तक सरकार सुलझा नहीं पा रही। दे देंगे जरूर कर देंगे जैसी जुमलेबाजी के अलावा कुछ नहीं।

कोई पूछे उन परिवारों से जिन्होंने इन सीमाओं पर छोटी—बडी मुठभेडों में अपने सदस्यों को खोया है। किस हाल में हैं और क्या वे भूल गये हैं अपने बेटे,भाई,पिता,पति को। माफ करें सारे राजनीतिक दल और सोशल मीडिया विचारों का क्रंदन रसास्वादन करने वाले। याकूब से अहम भी कुछ है। वो ब्लास्ट में किसी न किसी रूप में शामिल था और उसके परिवार को टीवी पर रोता—बिलखता दिखाने के बजाय उन परिवारों को भी दिखायें जो उस ब्लास्ट में मारे गये अपने परिजनों को आज तक रो रहे हैं। क्या हिसाब है उनके आंसूओं का? दे सकते हैं तो दे दें और सिर्फ याकूब ही नहीं हर उस आतंकी के बारे में फैसला करिये जिसे सालों से भारतीय जेलों में रखकर पाला जा रहा है खतिरदारी की जा रही है। सबक लीजिये अमेरिका से,जिसने 9—11 के बाद जो मुस्तैदी दिखाई तो ओसामा को मारकर ही दम लिया। पीएम साहब सुन रहे हैं अगले बार पडोसी शरीफों से हाथ मिलायें तो जरा जोर देकर...जय हिंद!
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