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ईरान से करार क्या पक्का इकरार ?

खरी-खरी            Jul 18, 2015


ऋतुपर्ण दवे सच है, यदि सकारात्मक तरीके से बातचीत हो तो कामयाब होगी ही। अमेरिका, रूस, चीन, फ्रान्स, ब्रिटेन और जर्मनी के साथ 18 दिनों तक लगातार हुई वार्ताओं के बाद ईरान का विएना में जो परमाणु करार हुआ, वो कुछ ऐसा ही है। उम्मीद है अब 13 वर्षों से चला आ रहा गतिरोध समाप्त होगा साथ ही साथ यूरोपीय देश और खाड़ी देशों के बीच तनाव भी घटेगा। जब तब मंडराती वैश्विक आर्थिक मंदी की आशंका के चलते यह करार बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। अमल के लिए चार महीने का वक्त है क्योंकि यह नवंबर से लागू होगा। अमेरिका एक ड्राफ्ट तैयार करेगा और ईरान पर लगे प्रतिबंध हटा दिए जाएंगे। यकीनन ईरान की विश्व समुदाय में कई तरह से हैसियत बढ़ने और बदलने लगेगी। हां, ईरान ने वादा खिलाफी की तो प्रतिबंध पूर्ववत लागू हो जाएंगे। जाहिर है इस करार से ईरान के परमाणु कार्यक्रम तो फिलाहाल बंद हो जाएंगे जो सबके लिए सूकून की बात है। करार के कई मायने निकाले जा सकते हैं। इससे ईरान की मौजूदा नीतियों में सकारात्मक बदलाव आ सकता है, वित्तीय और कारोबारी प्रतिबंध हटेंगे जिससे आर्थिक रूप से मजबूत तो होगा ही साथ ही राजनैतिक हैसियत भी विश्व समुदाय में बढ़ेगी और निश्चित रूप से ईरान को अंतर्राष्ट्रीय ताकत बनने से कोई रोक नहीं पाएगा। सबसे बड़ी बात यह कि इस परमाणु करार को अमेरिका अपने लिए भले ही आशा भरी निगाहों और सुरक्षा कवच मानकर चले लेकिन इजरायल और सऊदी अरब के लिए सबसे बड़ी चिन्ता का सबब है। इजरायल इस करार को ऐतिहासिक भूल मानता है। जगजाहिर है कि सऊदी अरब सुन्नी बहुल है और ईरान शिया बहुल। दोनों ही अपने आप में सुपरपॉवर हैं। ऐसे में इनमें आका बनने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा हमेशा थी, है और रहेगी भी। करार के बाद भी डर है कि समझौते में कहीं यही बड़े खलल की वजह न बन जाए ? इन मुल्कों के बीच अब तक इजरायल एक त्रिकोण रहा है। ईरान हमेशा से इजरायल को रौंदने को बेताब रहा है। उसे दुनिया के नक्शे से हटा देने की ख़्वाहिश रखता है और ईरान के परमाणु कार्यक्रम का बड़ा मकसद भी यही था। इस नए परमाणु करार के बाद ऐसा तो नहीं हो पाएगा लेकिन दूसरे हालात भी तेजी से बदलेंगे । बदले हालातों का नतीजा यह होगा कि इजरायल और सऊदी अरब को ईरान से और भी नई चुनौती मिलेंगी क्योंकि ईरान को अब आर्थिक रूप से ताकतवर बनने से रोक पाना दोनों के लिए टेढ़ी खीर जैसा होगा और हमेशा मंडराने वाला खतरा भी। परमाणु करार का अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भी डर देखा जा रहा है। ईरान आर्थिक रूप से और मजबूत होगा जो अच्छी बात तो है लेकिन क्या शर्तों के अनुसार पहले दशक में वाकई अपने भड़काऊ रवैये को काबू कर लेगा या केवल शान्त बने रहने का ढ़ोंग करेगा ? ऐसा कर भी सकता है क्योंकि करार से अगले दशक में ईरान को परमाणु शक्ति हासिल करने का वैध अधिकार मिल जाएगा और फिर परमाणु परीक्षण की अवधि के कोई मायने नहीं रह जाएंगे। इससे दूसरे देश भी खुद को परमाणु संपन्न होने के लिए ईरान सी हैसियत का मंसूबा पाल बैठेंगे फिर परमाणु अप्रसार के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग जाएंगे, सवाल यह भी है कि तब क्या होगा ? अभी तमाम प्रतिबंधों के बाद भी ईरान ने सीरिया में आतंकी संगठनों को धन, शस्त्र सहित अरबों डॉलर खर्च कर ईराक की सांप्रदायिक आग को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी तो क्या गारण्टी की आर्थिक प्रतिबंधों की उदारता के चलते और मजबूत हुआ ईरान दूसरे अरब मुल्कों की सुरक्षा के लिए खतरा न बने ? अकूत दौलत के बाद ईरान हथियारों का बड़ा सौदागर भी बन सकता है और उसके सप्लायर के रूप में रूस और दूसरे मुल्क भी आगे आएं । इस डर को दूर करना भी करार में शामिल छः बड़ी शक्तियों के लिए जरूरी होगा ताकि समझौते की शर्तों का किसी भी तरह से उलंघन न हो पाए और ईरान को यह संदेश जाए कि यदि उसने विएना समझौते में जरा भी टस से मस की और दुनिया को धोखा दिया तो भारी कीमत चुकानी होगी। भारत और ईरान के हमेशा दोस्ताना संबंध रहे हैं। भारत पर करार का विपरीत असर पड़ेगा। निर्यात कम होगा लेकिन कच्चे तेल का आयात बढ़ेगा। ईरान में अनुसंधान और निर्माण कार्यों में लगी भारतीय कंपनियों से प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। बड़ी मात्रा में कपड़े, खाने पीने, टेलीकॉम और ऑटोमोबाइल सेक्टर के सामान जो भारत से निर्यात होते हैं, दूसरे देशों खासकर चीन, जापान भी ईरान मुहैया कराएगा जिससे मुनाफा कम होने या निर्यात घट जाने की आशंका जरूर है।


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