डॉ.वेद प्रताप वैदिक।
उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार दुबारा बन जाने पर कांग्रेस का गदगद हो जाना स्वाभाविक है लेकिन भाजपा के लिए यह घटना गहरा सबक बन गई है। उत्तराखंड को अरुणाचल बनाने की कोशिश बिल्कुल विफल हो गई है। तो क्या यह मान लिया जाए कि किसी भी दल को अपने विरोधी दल की सरकार को गिराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? उसे बस तमाशा देखते रहना चाहिए? यदि राज्य या केंद्र में कोई सत्तारुढ़ दल अपने आप टूट रहा हो या उसकी सरकार गिर रही हो तो उसे अपने आप गिरने देना चाहिए?
क्या कोई भी पार्टी इस प्रश्न का जवाब यह देगी कि हां, उसे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहिए? नहीं, बिल्कुल नहीं। हर पार्टी की कोशिश यही होती है कि गिरती हुई सरकार को वह एक धक्का अपनी ओर से भी दे। यही उत्तराखंड में भी हुआ। इस दृष्टि से रावत की सरकार को गिराने के लिए उनके बागी विधायकों के साथ सांठ-गांठ करने में भाजपा ने काफी मुस्तैदी दिखाई लेकिन इस सारी राजनीति में केंद्र सरकार ने फिजूल खम ठोककर अपनी इज्जत पैंदे में बिठा ली।
यदि रावत को पहली बार ही सदन में शक्ति-परीक्षण करने दिया जाता तो सर्वश्रेष्ठ होता लेकिन उत्तराखंड में राष्ट्रपति-शासन थोप कर मोदी सरकार ने राष्ट्रपति-पद की गरिमा भी दांव पर लगा दी। उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति-शासन को उलटकर इतिहास कायम किया। न्यायपालिका ने कार्यपालिका को शीर्षासन करवा दिया। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने नई मिसाल कायम की। अपने उच्च न्यायालय को टाटपट्टी पर बिठाया ही, सदन में मतदान करवा दिया। इससे क्या सरकार या कार्यपालिका की इज्जत बढ़ी है?
कुल मिलाकर उत्तराखंड में चले नाटक से सरकार, न्यायपालिका और हमारे राजनीतिक दलों की इज्जत पर आंच ही आई है। मुख्यमंत्री रावत और भाजपा पर भी अनैतिक लेन-देन, हेराफेरी और तोड़-फोड़ के आरोप लगे हैं। कालिख सबके मुंह पर लगी है। कोई साबुत नहीं बचा। कुल मिलाकर भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य पर सवालिया निशान लगे हैं। इसमें शक नहीं है कि इस सारे घटना-क्रम का लाभ हरीश रावत को मिलेगा। रावत अब शीघ्र चुनाव भी करवाना चाहेंगे। उत्तराखंड के मतदाताओं की सहानुभूति रावत को दिलवाने में भाजपा, मोदी सरकार और न्यायपालिका के श्रेय से इंकार नहीं किया जा सकता।
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