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एक किस्म की कट्टरता का जवाब दूसरे किस्म की कट्टरता से

खरी-खरी            Jun 16, 2016


ravish-kumar-ndtvरवीश कुमार। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमरीका से लौटने के पहले सोशल मीडिया पर अमरीकी कांग्रेस के बहाने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लौट आए। सोशल मीडिया पर अपनी वापसी की मनमोहन सिंह ने भी कल्पना न की होगी। अमरीकी कांग्रेस में प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान बजी तालियों की गिनती क्या हुई उनके आलोचक पुराना रिकार्ड देखने लगे कि सही में किसी के लिए पहली बार ताली बजी है क्या। यू ट्यूब में मनमोहन सिंह को ढूँढने लगे। सोशल मीडिया में प्रधानमंत्री मोदी का भाषण खतम होते ही भाषण से ज़्यादा ये बातें चलने लगी कि आठ या नौ बार अमरीकी सांसदों ने खड़े होकर सम्मान जताया तो तीस या तैंतीस बार सामूहिक तालियाँ बजीं। भक्तों के द्वारा हर बार ऐसी हरकत हो जाती है जिससे प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा की सारी चर्चा या तो ताली की गिनती में खो जाती है या स्टेडियम में सुनने आए लोगों की संख्या में । भाषण में विदेश नीति के तत्व पीछे रह जाते हैं। तालियों और खड़े होने पर ज़ोर पड़ते ही भक्त विरोधी यू ट्यूब से मनमोहन सिंह का जुलाई 2005 का वीडियो खोज लाए। जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमरीकी कांग्रेस को संबोधित किया था। एक किस्म का मुक़ाबला चल पड़ा। फ्रेम दर फ्रेम दर दावा किया गया कि देखिये मनमोहन सिंह के स्वागत में कैसे सब खड़े हैं। पहली बार मोदी के मुक़ाबले मनमोहन सिंह को लाया गया। लोग सोशल मीडिया पर उनके भाषणों को भी साझा करने लगे हैं। कई फीड में प्रधानमंत्री के भाषण के साथ साथ मनमोहन सिंह के भाषण का भी लिंक आ जाता है। कई लोग उनकी तमाम ख़ूबियाँ बखान करने लगे हैं। मैंने भी इस वीडियो को देखा। सही में उनके सम्मान में भी अमरीकी कांग्रेस के सांसद देर तक ताली बजाते रहे। इस वीडियो को देखते वक्त मैं ऊब गया और लगा कि लोग इतनी देर तक ताली क्यों बजा रहे हैं। मेहमान के प्रवेश करते ही सम्मान में थोड़ी देर की ताली तो समझ आती है लेकिन ऐसा लगा कि बकायदा सांसदों से कहा गया हो कि कुछ भी हो जाए लंबे समय तक ताली बजानी है। सदन में मनमोहन सिंह आ गए हैं, बोलने के लिए मंच पर पहुँच गए हैं, खड़े हो गए हैं और अब बोलना चाहते हैं मगर ताली है कि बजी जा रही है। कोई तुक नहीं है। बस बजाए जा रहे हैं। शायद वहाँ की परंपरा होगी। करतल ध्वनि का भी क़दमताल की तरह अभ्यास कराया जाता होगा। बहरहाल मनमोहन सिंह के वीडियो से प्रधानमंत्री मोदी को मिली तालियों का जवाब दिया जाने लगा। यह मत समझिये कि मोदी ने तीर मार लिये, सरदार जी ने भी तीर मारा था। भक्त और भक्त विरोधियों का आचरण एक समान होता जा रहा है। हालत ये हो गई कि प्रधानमंत्री मोदी की अंग्रेजी के उच्चारण पर बेतुकी टिप्पणियाँ होने लगीं। मज़ाक़ उड़ाया जाने लगा कि देखो प्रधानमंत्री टेलिप्राम्पटर पर लिखी अंग्रेजी पढ़ते हैं। इस लिहाज़ से तो अंग्रेज़ी के तमाम विद्वान एंकर ख़ारिज हो जाएँ जो कई साल से कैमरे के नीचे लगे टेलिप्राम्पटर पर देख कर अंग्रेज़ी पढ़ते हैं। हम हिन्दीवाले भी स्टुडियो में ऐसे ही पढ़ते हैं। ऐसा ही चलता रहा तो सोशल मीडिया का यह मैच भारत की सार्वजनिक राजनीतिक संस्कृति का सर्वनाश करके दम लेगा। बहरहाल मनमोहन सिंह के साथ जवाहर लाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के वीडियो बाहर आ गया है। इन तीनों में ज़्यादा जगह मिली मनमोहन सिंह के वीडियो को। कोई तकनीकि जानकार बता सकता है कि सोशल मीडिया पर पिछले अड़तालीस घंटे में मोदी की तुलना में मनमोहन सिंह की क्या उपस्थिति रही। उनका वीडियो प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के वीडियो को भले न पछाड़ पाया हो मगर जहाँ जहाँ उनका वीडियो है उसके आसपास मनमोहन सिंह का भी है। यहाँ तक अखबारों में भी अमरीकी कांग्रेस में हुए दोनों के भाषणों की खूब तुलना हुई है। इकोनोमिक टाइम्स ने बकायदा तौल कर बताया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने मनमोहन सिंह की तुलना में 15 प्रतिशत कम शब्दों का इस्तमाल किया। मनमोहन सिंह ने अपने तत्कालीन पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी का नाम न लेकर जवाहर लाल नेहरू का नाम लिया तो मोदी ने उनकी नाम न लेकर अटल बिहारी वाजपेयी का लिया। इस तरह पहली बार मोदी के मुक़ाबले मनमोहन सिंह जगह पाते नज़र आए। लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी की आँधी में मनमोहन सिंह खर-पतवार की तरह उड़ गए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी माँ बेटे की सरकार बोल कर ही ज़्यादा हमला किया। पूर्व प्रधानमंत्री पर बहुत कम हमला किया। उस साल जनवरी में मनमोहन सिंह ने एक प्रेस कांफ्रेंस किया था। दस साल के कार्यक्रम में उनकी वो तीसरी और आख़िरी प्रेस वार्ता थी। तब उन्होंने कहा था कि “समकालीन मीडिया की तुलना में मेरे प्रति इतिहास ज़्यादा उदार होगा”। अखबार भी लिख रहे हैं कि जिस काम को करने का श्रेय मोदी ले रहे हैं उसकी बुनियाद मनमोहन सिंह ने डाली थी।तब बीजेपी और लेफ़्ट उनका विरोध कर रहे थे। जिस एन एस जी को लेकर इतना गौरवगान हो रहा है उसके लिए मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार दाँव लगा दी थी। इसका मतलब यह नहीं कि प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं किया। वे अब उसी न्यूक्लिअर डील के ब्रांड अम्बेसडर हो गए हैं जिसकी शर्तों में लिखा है कि अमरीका एन एस जी में भारत को प्रवेश दिलाने में मदद करेगा।सदस्यता और उसकी शर्तों पर कोई बात नहीं हो रही।वे भी भूल गए जो न्यूक्लिअर डील की शर्तों का विरोध करने लगे। उन्हें भी मनमोहन को मिली तालियों पर गर्व होने लगा जैसे भक्तों को हो रहा है। मनमोहन सिंह जी अपनी इस वापसी पर मुस्कुरा सकते हैं कि दुनिया का एक हिस्सा अब उनकी तरफ देखने लगा है मगर शुक्रिया इतिहास का नहीं उन्हें सोशल मीडिया का कहना चाहिए! और हाँ ये उदारता के नतीजे में नहीं हुआ है बल्कि एक किस्म की कट्टरता के जवाब में दूसरे किस्म की कट्टरता से हुआ है। कस्बा से साभार।


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