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एक बानगी भारतीय मीडिया के चरित्र, सोच व दृष्टि की

खरी-खरी, मीडिया            Jun 11, 2016


sanjay-singhसंजय कुमार सिंह। भारत में मीडिया मालिक होना पैसे कमाने और राजनीतिक हैसियत हासिल करने का आसान और सस्ता तरीका है। मालिकान अब अपने मीडिया संस्थान का उपयोग इस खास उद्देश्य से करते हैं (पहले भी यह उद्देश्य पूरा होता था या ईनाम होता था - अब एकमात्र लक्ष्य है) और इसी उद्देश्य से मीडिया संस्थान शुरू किए जाते हैं। ऐसे में उन्हें योग्य और सक्षम लोगों की जरूरत ही नहीं है। जो कहा जाए दुम हिलाते हुए करने वाले चाहिए होते हैं। दुर्भाग्य से इसमें गुणवत्ता के लिए कोई जगह ही नहीं है और इसके बिना भी मीडिया संस्थान किंग मेकर की भूमिका में आ जाते हैं। ऐसे में वे जो कर रहे हैं उससे ना सिर्फ देश, समाज और दुनिया को गलत संदेश जा रहा है बल्कि वे खुद भी इसी दुनिया में जीते हैं। गलत ही जानते, समझते और करते भी हैं। ऐसे में मीडिया से कोई उम्मीद नहीं है। नए मीडिया संस्थान का उद्देश्य स्पष्ट है। दुख की बात है कि पुराने, जमे-जमाए मीडिया संस्थान भी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझते। ऐसे में यह नागरिकों का काम है कि मीडिया को उसकी भूमिका बताएं या उनका बायकाट करें पर राजनीतिक कारणों से वह भी नहीं हो रहा है। यह पोस्ट आम लोगों को मीडिया की भूमिका और उसका नुकसान बताने में कामयाब होगी। vivek-umrao Samajik Yayavar Vivek Umrao की पोस्ट पढ़ने-सोचने लायक है। सन् 2009 आस्ट्रेलिया का रेसिज्म बनाम भारतीय मीडिया : ******* सन् 2009 में मैं लगातार लगभग एक साल तक आस्ट्रेलिया में ही था। विभिन्न आस्ट्रेलियन मित्रों व रिश्तेदारों से मिलने छोटे से लेकर बड़े शहर तक की यात्रा करता था। जिन टाऊनों की यात्रा कर रहा था वहां मिलने वाले लोग लगभग सभी आस्ट्रेलियन थे। भारतीय तो दिखते तक नहीं थे। सिडनी के सबसे खूबसूरत इलाकों में से एक 'पैडिंगटन' में रहता था जहां आसपास में मुझे पूरे एक साल तक कोई भारतीय क्या एशियन रहता हुआ नहीं दिखा। मेरी सास ससुर का एक घर CBD (सेंट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्ट) क्षेत्र में था, उस समय वे लोग उसी घर में रहते थे। मैं लगभग रोज अपने घर से उनके घर पैदल 20 मिनट चल कर जाता था और फिर वहां से 20 मिनट पैदल चलकर अपने घर लौटता था। कभी कभी घर लौटने में रात में 10 या 11 बज जाते थे। सिडनी के सबसे महंगे इलाकों में जाकर काफी पीता था, नाश्ता करता था, चाकलेट खाता था। मैंने व मेरी पत्नी ने अपने पास कार नहीं रखी थी। कार रखना हमें झंझट लगता था, जीवन में फ्लेक्सिबिलिटी कम होती लगती थी। भारत में भी हमने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए कार नहीं रखी है। हमें कार रखना आज भी झंझट लगता है। इसलिए 2009 में आस्ट्रेलिया में मैं बस, ट्रेन, फेरी, ट्राम व साइकिल से यात्रा करता था। ------- मैं आस्ट्रेलिया में रह रहा था। मैं सिडनी में रहता था। मैं रोज लगभग एक घंटे यहां से वहां पैदल घूमता था। मैं बसों, ट्रेनों, मेट्रो व फेरी से यात्रा करता था। मुझे पता ही नहीं था कि आस्ट्रेलिया में, सिडनी में भारतीयों के खिलाफ रेसिज्म है, जबकि मैं 24 घंटे आस्ट्रेलियन्स के साथ ही रहता था। दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के एक उप संपादक महोदय ने दिल्ली से मुझे फोन करके बताया कि आस्ट्रेलिया में भारतीयों के खिलाफ भयंकर रेसिज्म है। रोज भारतीय मारे जा रहे हैं। मेरी माता ने मुझे फोन करके कहा कि घर से न निकलना अखबारों में निकलता है कि आस्ट्रेलियन्स चाकू, छूरी, बल्लम लिए हुए भारतीयों के निकलने का इंतजार करते हैं। मेरी माता को लगता था कि जैसे भारत में नफरत के लिए दंगों में आदमी आदमी की हत्याएं करता है, उसी तरह आस्ट्रेलिया में होता होगा। जैसे भारत में जातिगत भेदभाव के कारण दलितों की महिलाओं व पुरुषों को चौराहों पर नंगा करके अपमानित किया जाता है, वैसे ही आस्ट्रेलिया में होता होगा। दरअसल आदमी दायरे तक ही सोच पाता है। indian-media-cartoon-image आस्ट्रेलिया में रहते हुए मैं रोज रेसिज्म खोजता, लेकिन जब मुझे रेसिज्म न मिल पाया तब मैंने एक लेख लिखा और आस्ट्रेलिया के सबसे प्रतिष्ठित अखबारों में से एक को भेजा। अखबार ने कहा कि आपका लेख काबिले तारीफ है। लेकिन इस समय आपके लेख को छापने का मतलब कि आपका लेख हमने प्रायोजित करवाया है। यह प्रतिक्रिया बढ़ाएगा घटाएगा नहीं। मैंने लेख वापस ले लिया। मैंने लेख का एक अंश अपने ब्लॉग में छापा। उस समय JNU से PhD कर रहे मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा कि मैं समझ नहीं रहा हूँ कि आस्ट्रेलियन कितने रेसिस्ट हैं। मेरे मित्र JNU दिल्ली से बैठकर आस्ट्रेलिया में रेसिज्म देख ले रहे थे, मैं रात दिन आस्ट्रेलियन्स के साथ रहते हुए खोजने पर भी रेसिज्म नहीं देख पा रहा था। Times of India हो या दैनिक जागरण लगभग सभी अखबार पूरी बेशर्मी व फूहड़ता से आस्ट्रेलिया में रेसिज्म छाप रहे थे। महीनों छापे। इतना छापा कि केंद्रीय मंत्री को आस्ट्रेलिया जाना पड़ा। लेकिन बिचारा मंत्री भी वहां क्या करता, जब कुछ होता तब तो कुछ कहता व करता। लेकिन भारत के अखबार छापते रहे कि भारतीय मंत्री हड़काने गए हैं। भारतीय मीडिया की बात माने तो कई सौ भारतीयों की हत्या हुई होगी, सच यह है कि एक भी भारतीय की हत्या रेसिज्म के कारण नहीं की गई। भारतीय मीडिया का फुलटू फर्जीवाड़ा, पूरी बेशर्मी के साथ । भारतीय मीडिया के फर्जीवाड़े के कारण बिना बात के ही भारतीयों व आस्ट्रेलियन्स के दिलों में दरारों की संभावना को भी खतम करने के लिए 'मेलबोर्न' के आस्ट्रेलयन्स ने पूरे एक महीने तक हजारों की तादात में केवल भारतीय रेस्टोरेंटों में खाना खाया। आम नागरिकों की यह पहल भारतीय मीडिया व JNU से PhD कर रहे मेरे मित्र को नहीं दिखी। दिखती भी कैसे, नफरत हिंसा का चटखारा लेने वालों को प्रेम व सौहार्द नहीं दिखता। आस्ट्रेलिया में भारत जैसे गली मोहल्ले में सरकारी या गैरसरकारी फंडेड NGO नहीं होते जो मेलबोर्न में हुए नागरिक पहल को प्रायोजित करते । मेलबोर्न में हुई नागरिक पहल पूरी तरह से नागरिक पहल थी। इस बहुत बड़ी पहल के बारे में खबर छापना शायद भारतीय मीडिया के चरित्र के विरुद्ध था। यह है एक बानगी भारतीय मीडिया के चरित्र, सोच व दृष्टि की। इसलिए भारत में मेरे घर में टीवी, रेडियो, अखबार, मैगजीन आदि नहीं रहते । मनगढ़ंत खबरों से चटखारे लेने का शौक मैं नहीं रखता। जर्नलिज्म मेरे लिए गंभीर मूल्य है। सामाजिक उत्तरदायित्व व दृष्टि से युक्त सामाजिक मूल्य है। फेसबुक वॉल से।


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