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कई देशों में फेल साबित हुई है सम-विषम गाड़ियों की योजना

खरी-खरी            Dec 13, 2015


संजीव सान्याल दिल्ली सरकार ने शहर में एक दिन सम और दूसरे दिन विषम नंबर प्लेटों वाली गाड़ियां चलाने की योजना बनाई है, लेकिन समस्या ये है कि दुनिया के जिन देशों में ऐसी कोशिश की गई, वहां नतीजे बहुत उत्साहजनक नहीं रहे हैं। हालांकि दिल्ली की आबोहवा की गुणवत्ता के लिए कुछ कड़े कदम उठाने की जरूरत है लेकिन ख़तरा ये है कि इस योजना को लागू करने पर ज़ोर, ज़्यादा गंभीर उपायों से ध्यान भटका देगा। यातायात को नियंत्रण में रखने के लिए नंबर प्लेट योजना कोई नई नहीं है। बीजिंग ओलंपिक के दौरान प्रदूषण कम करने के लिए चीनी प्रशासन ने कुछ हफ्तों के लिए इसे अपनी राजधानी में लागू किया था। साल 1989 में मैक्सिको सिटी में हफ़्ते में एक दिन के लिए कार के इस्तेमाल पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई थी और इस दिन को नाम दिया गया था, ‘नो सर्कुलेटिंग डे। बोगोटा और साओ पाउलो जैसे अन्य लातिन अमरीकी शहरों में भी इसी से मिलते जुलते कई उपाय आज़माए जा चुके हैं। लेकिन इन उपायों से कुछ ही समय के लिए ही राहत मिली और इनका दीर्घकालीन असर उलटा होता है क्योंकि एक बार ये उपाय स्थायी बनते ही लोग उनकी कमियों का फायदा उठाने लगते हैं। जैसे मेक्सिको सिटी में लोग सुविधाजनक नंबर प्लेटों वाली और कारें ख़रीदने लगे। उन्होंने नई कारें ख़रीदना तो कम कर दिया, लेकिन अन्य देशों से पुरानी सस्ती कारों को ख़रीदना शुरू कर दिया। यही नहीं, लोगों का झुकाव कार छोड़ कर मेट्रो का विकल्प चुनने की बजाय टैक्सी की ओर हो गया। इस तरह टैक्सियों ने बहुत पैसा बनाया लेकिन हवा की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ। मैक्सिको सिटी में दो महीने तक लागू रही इस योजना के दौरान पेट्रोल की बिक्री बढ़ गई थी। यहां दिल्ली में सरकार ने कहा है कि सम-विषम योजना को वो एक जनवरी 2016 से ट्रायल के रूप में लागू करेगी। समस्या ये है कि थोड़े समय के लिए किया गया यह ट्रायल, दीर्घकालीन प्रभाव के बारे में हमें कुछ भी नतीजे नहीं देता। यह लगभग तय है कि इस प्रतिबंध को धता बताने के लिए अमीर लोग कई गाड़ियां ख़रीदेंगे और ये अतिरिक्त कारें पार्किंग की समस्या पैदा करेंगी। जल्द ही एक और समस्या पैदा हो जाएगी कि अन्य राज्यों से आने वाली कारों का क्या किया जाए? अगर यही नियम अन्य राज्यों में लागू नहीं किए गए तो, दिल्लीवासी अपनी कार गुड़गांव और नोएडा से रजिस्टर करवाएंगे। हालांकि, दिल्ली के बाहर की कारों पर प्रतिबंध लगाना, ज़रूरी काम से आने वाले लोगों के लिए एक बड़ी समस्या पैदा कर देगा। क्या होगा, अगर कोई हरियाणा से अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर आना चाहे। दिल्ली मेट्रो से निश्चित रूप से सार्वजनिक परिवहन बेहतर हुआ है और बसें भी पहले से बेहतर हो गई हैं। हालांकि ट्रेन और बसों के फेरे (राउंड) और नेटवर्क अब भी पर्याप्त नहीं हैं। इससे भी एक बड़ी समस्या है, जिस पर लगभग कभी बातचीत नहीं होती, वो है पैदल चलने वालों के लिए बुनियादी सुविधाओं की कमी। वैसे मामला केवल पैदल चलने का नहीं है, बल्कि क्रॉसिंग, स्ट्रीट लाइट, सफ़ाई, आवारा पशुओं को हटाने जैसे मुद्दों से भी जुड़ा है। महिलाओं की सुरक्षा एक प्रमुख मुद्दा है। पूरी दुनिया के सार्वजनिक परिवहन व्यवस्थाओं का अध्ययन करने के बाद मैं ये कह सकता हूँ कि अधिकांश भारतीय शहरों में सार्वजनिक यातायात के इस्तेमाल को लेकर यह बहुत ही गंभीर बुनियादी मसला है। इस बीच दिल्ली सरकार ने कहा है कि वो अन्य विकल्पों पर भी विचार कर सकती है। उदाहरण के लिए, सिंगापुर में नीलामी से लोगों को परमिट मिलता है और वहां इलेक्ट्रानिक रोड प्राइसिंग का नियम भी लागू है। इस तरह प्रतिबंध क़ीमतों पर आधारित होता है न कि सम विषम जैसी योजनाओं को लेकर। शहर में कारों पर इस आधार पर शुल्क लगाया जाता है कि वो शहर के किस हिस्से में हैं और यह शुल्क जगह और दिन के समय के हिसाब से अलग-अलग होता है। सेंट्रल लंदन में कंजेशन चार्ज लागू है। इन दोनों ही शहरों में बहुत बढ़िया सार्वजनिक परिवहन व्यवस्थाएं हैं। प्रदूषण को लेकर दिल्ली को कुछ उपाय करने ही होंगे, लेकिन जल्दबाज़ी में ऐसे समाधान को लपक लेने का कोई मतलब नहीं है, जिसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिकॉर्ड ठीक नहीं है। सबसे पहले सार्वजनिक परिवहन और चलने-फिरने के लिए बुनियादी सुविधाओं में निवेश करना होगा। (संजीव सान्याल एक अर्थशास्त्री और लेखक हैं।) साभार बीबीसी


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