विनय ओसवाल।
अलग-अलग चाहर दिवारियों से समय-समय पर झर-झर के बाहर आये बयान जिन्हें पाठकों की सुविधा के लिए , सिलसिलेवार नीचे परोसा गया हैं , तो यही संकेत दे रहे हैं कि “ टीपू “ से “ टीपू सुलतान “ बनने के अखिलेश (घर परिवार में टीपू) के मंसूबों पर पूरी तरह पानी फिर गया है ।
“ सारा झगड़ा मुख्यमंत्री की उस कुर्सी का है , जिस पर मै बैठा हूँ “
अखिलेश
“ मुझे मुख्यमंत्री पद की कोई ख्वाहिश नहीं है --------- अखिलेश मेरे बेटे की तरह हैं । उन्हें अक्ल से काम लेना चाहिए । उन्हें अनुभव की जरूरत है ।
शिवपाल सिंह
“ अखिलेश अगर शिवपाल को राज्य में सपा का मुखिया बनाने से नाखुश हैं , तो उन्हें याद रखना चाहिए कि - - - - - - - - - राजनीति में उनका कभी कोई अपना कद नही था “ ।
मुलायम सिंह
अमर सिंह नेताजी की सरलता का लाभ उठा कर पार्टी को नुक्सान पहुँचाचा रहे हैं। उनका सपा से कुछ लेनादेना नही है ।
रामगोपाल यादव
अमर के बारे में क्या जानते हो ? वे उस वक्त साथ थे जब पार्टी के नेता साथ छोड़ रहे थे । कॉंग्रेस ने जब मेरे खिलाफ सीबीआई जांच कराई तब किसने मदद की बताओ ? केवल अमर सिंह ने ---
मुलायम सिंह
सूबे की सत्ता सम्भाले बैठी संयुक्तपरिवारवादी पार्टिं के घर के भीतर में सब कुछ ठीक ठाक नही है। मामला 2012 से ही भीतर ही भीतर खौल रहा है। पार्टी में नम्बर दो की हैँसियत और राजनीति के दांव-पेंच , उठापटक , पैंतरेबाजी में अपने बड़े भाई मुलायम सिंह (नेता जी) की तरह माहिर खिलाड़ी शिवपाल अच्छी तरह जानते हैं कि नेताजी अपनी बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ के कारण अब किस सीमा तक राजनैतिक चुनौती झेल पाएंगे। ये चुनौती शिवपाल सिंह ने पार्टी और सरकार के सभी पदों से इस्तीफे दे कर दे भी दी। इसके बाद लखनऊ में घटनाक्रम ने जिस तरह करवट बदली , उससे लोगो के बीच यही सन्देश गया कि - अखिलेश को कुर्सी पर मुख्यमंत्री का अभिनय करने के लिए ही बिठाया गया था और 2017 के चुनाव तक भी उनसे यही अपेक्षा रहेगी।
राजनीति का लिबास ओढ़े भृष्टाचारी, भू-माफियां, अराजक और गुंडा तत्वों के हौसले बुलंद हैं - ये किस्से अखबारों की सुर्खियां तो बनते ही रहे है साथ ही सड़कों , गली मोहल्लों में आम चर्चा का विषय भी बन चुके हैं। पार्टी में अंदरूनी उठा पटक की नब्ज पर पकड़ रखने वालों की माने तो प्रो0 यादव के सर भू-माफियाओं को संरक्षण देने का ठीकरा फोड़े जाने के प्रयास उच्च स्तर पर चल रहे हैं। मथुरा के जय गुरुदेव आश्रम ट्रस्ट पर उनके ड्राइवर पंकज यादव की ताजपोशी का मामला हो या मथुरा में ही जवाहर बाग़ पर रामबृक्ष यादव के कब्जे का मामला दोनों ही मामले पूरे प्रदेश में एक पखवाड़े से ज्यादा राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियों में रहे हैं। उस समय भी इन मामलों की आंच ने प्रदेश के प्रथम परिवार को लपेटे में लिया था।
इन बातों से चौकन्ना होकर अखिलेश पिछले डेढ़ साल से पार्टी की छवि को मांजने ,धोने-पोंछने और चमकाने में लगे रहे। साथ ही वो इस बात का भी भरसक प्रयास करते रहे कि सूबे में विकास और सामाजिक सशक्तिकरण की जो योजनाएं उनकी सरकार ले के आई है , उनका लाभ और स्वाद आमजन को चुनाव से पहले मिल जाये । इसके लिए जरूरी था कि वो बतौर मुख्यमंत्री अपनी “ कठपुतली छवि “ को बदलें। निर्णय लेने में स्वतंत्र और उन्हें लागू कराने में मजबूत मुख्यमंत्री के रूप में अपने को स्थापित करें। पिछले डेढ़ वर्ष से वह यही तो कर रहे थ। अलबत्ता लोगों को इसका एहसास पिछले छः माह से होने लगा था ।
मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के सपा में विलय का मामला हो, मुख्य सचिव आलोक रंजन की सेवा निबृति के बाद इस कुर्सी पर अपने पसंदीदा प्रवीर कुमार को बिठाने का मामला हो, चार साल में तीन बार मंत्री पद की शपथ और हर बार एक सीढ़ी ऊपर उठाये जा रहे गायत्री प्रजापति को राज्य मंत्री फिर राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार और फिर केबिनेट मंत्री बनाये जाने का मामला हो, गायत्री प्रजापति व राजकिशोर की बर्खास्तगी का हो ,या शिवपाल सिंह के सभी विभागों की वापसी (पीडब्ल्यूडी छोड़ कर) का रहा हो या फिर “ बाहरी “ (अमर सिंह) का विरोध करने का, हर मामले में अखिलेश को “ थूके को चाटने “ जैसी स्थिति का ही सामना करना पड़ा है ।
इतिहास भी किस तरह अपने को दोहराता है इसका अंदाजा मुलायम सिंह को शायद उस समय न रहा होगा जब उन्होंने अपने बेटे को प्यार में टीपू कहना शुरू किया होगा । इतिहासिक टीपू सुल्तान की उम्र , जब पहली बार उन्होंने अंग्रेज फौजों से अपने राज्य को बचाने के लिए युद्ध लड़ा (सन 1792) और उन्हें शिकस्त दी , मात्र 42 वर्ष थी । आज जब उत्तरप्रदेश में “ टीपू “ - “ टीपू सुलतान “ बन कर उभरने के लिए राजनैतिक समर में संघर्ष कर रहा है , तब उसकी उम्र भी 42 वर्ष की ही है । ये बात दूसरी है कि इस टीपू का बाप जिन्दा है और उसने इस राजनैतिक समर में खुद उसे पीछे धकेल दिया है । इतिहासिक टीपू के पिता जब वे मात्र 32 वर्ष (सन 1782) के थे चल बसे थे ।
प्रदेश के वो लाखों युवा जिन्होंने 2012 में सपा को नही अखिलेश को वोट दिया था। उनके दिल-ओ-दिमाग पर अखिलेश छाये हुए हैं। ये वो युवा हैं , जिन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे युवा अखिलेश में अपना अक्स दीखता है। उन्हें अपनी राजनैतिक महत्वाकांछा के पूरा होने के सुख की अनुभूति होती है। आज सब घोर निराश हैं। इन युवकों में लाखों ऐसे युवा भी जुड़ गए हैं जो उ0प्र0 में 2017 के चुनाव में पहली बार अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे। सब को पार्टी के मंचों से नीचे उतार दिया गया है । इस स्थिति में ये सब , खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। ऐसे लाखों नौजवानों का मानना है कि अखिलेश अपने ही परिजनों की “ राजनैतिक गुंडई “ का शिकार बन गए हैं।
यह भी हकीकत है , कि पार्टी पर अखिलेश की सीधी पकड़ नहीं रही है। 2012 के चुनावों से पहले उनकी राजनैतिक पहचान मात्र इतनी ही थी कि , वह पार्टी के सर्वे सर्व मुलायम सिंह के बेटे हैं। पढ़े लिखे खुले दिमाग के हैं । लोगों को उम्मीद बधीं थी कि वह सपा के लठैती चरित्र को बदलेंगे। राजनैतिक दाँव-पेंच ,उठा-पटक और लठैती उखाड़-पछाड़ से दूर रहने वाले अखिलेश के पर कतरे जाने से छुब्ध उनके समर्थक लाखों युवा मुलायम सिंह से जानना चाहते हैं कि अगर उ0प्र0 के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मुलायम परिवार से बाहर का अन्य कोई युवा बैठा होता तो क्या वह --
1.सरकार का मुखिया होने के नाते जनता के प्रति जो उत्तरदायित्व हैं उनका निर्वहन वह किसी बाहरी या भीतरी दबाव से मुक्त रह कर नही करता ?
2.किसको मंत्रिमंडल या मंत्रीपरिषद में रखना किसको हटाना , मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है। इस विशेषाधिकार का उपयोग किसी बाहरी या भीतरी दबाव से मुक्त रह कर वह नही करता ?
3.शासन में किस नौकरशाह को किस कुर्सी पर बिठाना, किसको हटाना किसको किसकी जगह लाना ये मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है । इस अधिकार का उपयोग बिना किसी बाहरी या भीतरी दबाव के वह नही करता ?
मुलायम सिंह जी , बिना इस अपेक्षा के कि लाखों युवाओं को उनके उपरोक्तउपरोक्त सवालों का जबाब आपसे मिलेगा , वो पूछना चाहते हैं कि --
जब आप शुरू से जानते थे कि राजनीति में आपके भाई शिवपाल सिंह यादव के मुकाबले अखिलेश का कोई कद नही है, तो 2012 में आपने अखिलेश को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर, क्या सोंच के बिठाया था ? क्या यह सोंच के, कि वह पूरे कार्यकाल आपकी या आपके भाइयों की कठपुतली बनकर काम करेंगे ?
अगर आपकी मंशा यही थी तो, जब अखिलेश अपने कठपुतली होने के लबादे को फाड़ के फेंकने में लगे हुए थे, आप धृतराष्ट्र बन कर चुप क्यों बैठे रहे ? शायद इस लिए कि आपको अपने जीवन काल में अपने भाई शिवपाल सिंह से ये उम्मीद नही रही होगी कि वह पार्टी तोड़ आपके सामने प्रतिद्वंदी बन खड़े होने की हद तक चले जाएंगे।
जो भी हो, फिलहाल आपने कुनबे को बिखरने से तो बचा लिया है ,पर यह सब लाखों युवाओं और अपने चहेते अखिलेश (टीपू) को सार्वजनिक रूप से बौना साबित करके। इसकी भारी कीमत आपको 2017 के चुनावों में चुकानी ही होगी।
इन परिस्थितियों में फंसे अखिलेश अपना ध्यान पीडब्ल्यूडी विभाग पर केंद्रित कर रहे हैं। वो अच्छी तरह जानते हैं कि प्रदेश में सड़कों पर यदि वाहन फर्राटे से दौड़ेंगे तो उनके विजय रथ की राह कोई रोक नही पायेगा। हो सकता है यही सोंच के उन्होंने चाचा को सारे विभाग लौटा दिए पर पीडब्ल्यूडी अपने पास ही रख लिया। अभी हाल ही में मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव और विशेष सचिव स्तर के अपने विश्वस्त 14 आईएएस अधिकारियों को प्रमुख विभागों का मुखिया बना के बिठाया है।
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