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किसान आत्महत्या के आंकडे कम दिखाने वजह बता दी बीमारी,महिला किसान गिनती में ही नहीं

खरी-खरी            Aug 09, 2015


मल्हार मीडिया ब्यूरो किसानों की आत्महत्या को कम करके दर्शाने के लिए सरकारें तरह—तरह के हथकंडे अपनाती रही हैं। इनमें शामिल 'अन्य' वर्ग तो कुख्यात रहा है। 2001 में ज़िला अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो ने अनंतपुर में 1997 से 2000 के बीच होने वाली 1,061 आत्महत्याओं की वजह बीमारी बताई थी। ज़्यादातर मामलों में बीमारी के बारे में पेट में असहनीयत दर्द का होना दर्ज किया गया था। जबकि ये वो किसान थे, जिन्होंने कीटनाशक खाकर ख़ुदकुशी कर ली थी। कीटनाशक को पीने पर मौत से पहले पेट में असहनीय दर्द भी होता है। लेकिन पुलिस ने किसानों की आत्महत्या के इन मामलों को ही बदल दिया। उनके दर्ज किए गए आंकड़ों के मुताबिक ये किसान पेट में असहनीय दर्द के होने की वजह से मरे। उस दौर में अनंतपुर में होने वाली आत्महत्याओं में 82 फ़ीसदी हिस्सेदारी 'अन्य' और 'बीमारी' की थी। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने जिस तरह किसानों की आत्महत्या के मामलों को नए फॉरमेट में पेश करना शुरू किया है, उससे अनंतपुर वाले मामले की वापसी की आशंका बढ़ गई है। महिला किसानों की आत्महत्या भी आंकड़ों में जगह नहीं बना पाती। परंपरागत समाज में महिलाओं को किसान नहीं माना जाता। कुछ ही महिलाओं के नाम पर ज़मीन होती है। ऐसे में गृहणी की श्रेणी में आत्महत्याओं के मामले लगातार बढ़े हैं जबकि कई राज्य अपने यहां महिला किसानों की आत्महत्या को शून्य ठहराते रहे। पिछले कुछ सालों में कुछ राज्यों में महिलाओं की आत्महत्या के मामले में गृहणियों (इनमें महिला किसान भी शामिल हैं) की संख्या 70 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है। जातिगत भेदभाव से भी यह तय होता है कि आत्महत्या करने वाला किसान है या नहीं. मसलन दलित और आदिवासियों के पास अपनी ज़मीन नहीं होती। उनकी आत्महत्याओं को भी किसानों की आत्महत्या में जगह नहीं मिलती। किसानों की आत्महत्या के मामले में ऐसी गड़बड़ियां पहले से ही मौजूद हैं, लेकिन अब नए तौर तरीक़े ने उसे वैधानिक और संस्थागत रूप दे दिया है। मनमाना रवैया ही अब सिद्धांत बन जाएगा। छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल ने 2011-12 में जिस धोखाधड़ी की शुरुआत की थी, उसे अब दूसरे राज्य कहीं बेहतर ढ़ंग से अपनाएंगे। राज्यों की राजधानियों में बैठे सरकारी अधिकारियों को मनमानी करने की आज़ादी है। वे राजनीतिक परिस्थितियों के मुताबिक़ आंकड़ों में फेरबदल कर सकते है। राज्य सरकारें जिस तरह के आंकड़े चाहेंगी उस तरह के आंकड़े पेश कर सकती है। एनसीआरबी के आंकडे अपनी तमाम ख़ामियों के बावजूद हमें राज्य की तस्वीर का अंदाज़ा हो जाता था। उदाहरण के लिए, महाराष्ट सरकार ने 2013 में 1,296 किसानों की आत्महत्या के आंकड़े पेश किए थे। जबकि एनसीआरबी का आंकड़ा उसी साल 3,146 किसानों की आत्महत्या को बता रहा था। यह अंतर 2011-12 के आंकड़ों में भी दिखा था। 2014 में एनसीआरबी के आंकड़े के मुताबिक राज्य में 2,658 किसानों ने आत्महत्या की, यह राज्य सरकार के 1,981 किसानों की आत्महत्या के दावे के करीब है। अगले साल से राज्य सरकारों के गड़बड़झाले वाले आंकड़े आएंगे, लेकिन उनपर एनसीआरबी की मुहर भी लगी होगी।


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