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केवल किसानों की जमीन ही क्यों?

खरी-खरी            Feb 27, 2015


prakash-1 प्रकाश हिन्दुस्तानी सरकार को अधिग्रहण के लिए केवल गरीब किसानों की ही जमीन नजर आती है। बड़े-बड़े उद्योग घरानों और उनके द्वारा हथियाई गई जमीन पर सरकार की निगाह नहीं जाती। पर्ल ग्रुप के पास करीब एक लाख एकड़ जमीन है। मुकेश अंबानी की कम्पनियों के पास करीब 70 हजार एकड़ जमीन है। गौतम अडानी 20 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर कब्जा रखते है और दस हजार 600 एकड़ का इजाफा होने वाला है। सहारा समूह की एम्बी वैली करीब 25 हजार एकड़ की है। इसके अलावा 217 शहरों में सहारा समूह के पास औसतन 100 एकड़ जमीन हर शहर में है। टाटा समूह के पास देशभर में कितनी जमीने है, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। बिड़ला समूह, अडानी ग्रुप, अनिल अग्रवाल ग्रुप, एस्सार, नुस्ली वाडिया, गोदरेज, वाडिया ग्रुप, दिनशा ग्रुप, बिलिमोरिया परिवार, ठाकुर परिवार, हिरजी भाई दिनशा परिवार, बैरामजी जीजी भाई परिवार, वीके लाल परिवार, मोहम्मद युसूफ खोट ट्रस्ट, अंसल परिवार, कृष्णपाल सिंह परिवार, नंदा परिवार जैसों के पास कुल कितनी जमीन है, यह हिसाब लगाना मुश्किल है। [caption id="attachment_2005" align="alignnone" width="300"]बड़े-बड़े उद्योग घरानों और उनके द्वारा हथियाई गई जमीन पर सरकार की निगाह नहीं जाती। बड़े-बड़े उद्योग घरानों और उनके द्वारा हथियाई गई जमीन पर सरकार की निगाह नहीं जाती।[/caption] धीरूभाई अंबानी को लेकर एक किस्सा याद आता है, जो उन्होंने अपने सहयोगी से कहा था- हम कहां उद्योग धंधा लगाएं, यह बात पहले तय करते है और फिर उसके बाद जमीन कबाड़ते है। जमीन भी हमारे लिए एक तरह का रॉ-मटेरियल ही है। आज अधिकांश कार्पोरेट यही कर रहे है, जो यह नहीं कर पा रहे है वे ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे है। इसके अलावा एक बहुत बड़ा खेल कार्पोरेट जगत कर रहा है और वह है ‘लैंड बैंक’ बनाने का। लगभग सभी बड़े घरानों की अपनी लैंड बैंक है। वे उसका इस्तेमाल नहीं कर रहे है और इंतजार कर रहे है कि कब वह जमीन और महंगी हो और वे उसका उपयोग ज्यादा व्यावसायिक तरीके से करें। यह बात सही है कि विकसित होते हुए भारत के लिए नए एयरपोर्ट, बंदरगाह, रेल लाइनें, हाइवेज, उद्योग धंधे आदि के लिए जमीन की जरूरत हैे और यह सब जमीन पर ही बन सकते है हवा में नहीं। जमीन अधिग्रहण को लेकर सरकार का इरादा है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सेना के हथियारों के उद्योग बड़े विद्युतीकरण प्रोजेक्ट्स और गरीबों को घर देने की परियोजनाओं के लिए ही भूमि अधिग्रहण करेगी। सुनने में यह बात अच्छी लगती है, लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। सरकार को अधिग्रहण के लिए केवल गरीब किसानों की ही जमीन नजर आती है। बड़े-बड़े उद्योग घरानों और उनके द्वारा हथियाई गई जमीन पर सरकार की निगाह नहीं जाती। वास्तव में सरकार को पहले ऐसी जमीनें अपने नियंत्रण में लेनी चाहिए। जमीन अधिग्रहण कानून को लेकर पक्ष और विपक्ष में बहुत तर्वâ हो रहे है। मैं पिछले एक महिने से यह जानने की कोशिश में लगा हूं कि इस देश के सबसे बड़े भूमि स्वामी कौन है? मैं अभी तक यह जानकारी प्राप्त नहीं कर सका, क्योंकि यह जमीने अलग-अलग कार्पोरेट घरानों ने अलग-अलग नामों से हथिया रखी है। ये कार्पोरेट घराने संख्या में कम होते हुए भी ज्यादा पॉवरपुâल है क्योंकि इनके पास पैसे की ताकत के अलावा कानून को अपने हिसाब से मैनेज करने वाले लोग भी है। आंध्रप्रदेश को ही देखे, वहां विजयवाड़ा के पास २९ गांवों की एक लाख एकड़ जमीन अधिग्रहित करने की कोशिश की जा रही है, ताकि वहां नई राजधानी बनाई जा सवेंâ। यह सारी जमीन किसानों की है। किसी उद्योगपति के लैंड बैंक से एक एकड़ जमीन भी कम होने वाली नहीं है। मरेंगे केवल गरीब किसान। मध्यप्रदेश के महेश्वर के नर्मदा घाटी पर बनाए जाने वाले बांध को ही लें। 1962 में इस परियोजना का विचार हुआ। 1994 में इसे पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत मंजूरी दी गई। अभी तक इसका काम जारी है और एक यूनिट बिजली भी इसमें पैदा नहीं हुई। इसके लिए करीब 70 हजार किसानों की जमीन डूब में आई। 61 गांव तबाह हो गए। 500 करोड़ की यह परियोजना साढ़े चार हजार करोड़ से भी ज्यादा हो गई। बांध बनाने वाले निजी वंâपनी ने कोई भी पुर्र्नवास का काम पूरा नहीं किया। इस वंâपनी ने सरकारी बैंकों और अन्य संस्थाओं से अरबों रुपए का कर्ज ले लिया और उस पैसे को दूसरे धंधों में लगा दिया। गरीब किसान दर-दर की ठोकरें खा रहे है। सरकारी बैंकों का अरबों रुपया डूब गया और नतीजा रहा सिफर। बड़े कार्पोरेट घराने देश की बेशकीमती जमीन पर अपने कब्जे की कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं करते। पर्ल ग्रुप के पास करीब एक लाख एकड़ जमीन है। मुकेश अंबानी की वंâपनियों के पास करीब 70 हजार एकड़ जमीन है। गौतम अडानी 20 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर कब्जा रखते है और दस हजार 600 एकड़ का इजाफा होने वाला है। अडानी की ज्यादातर जमीनें एसईझेड अथवा पीपीपी मॉडल के तहत हथियाई गई है। सहारा समूह की एम्बी वैली करीब 25 हजार एकड़ की है। इसके अलावा 217 शहरों में सहारा समूह के पास औसतन 100 एकड़ जमीन हर शहर में है। सहारा समूह ने ही लखनऊ में गरीब लोगों को मकान देने के नाम पर 600 एकड़ जमीन लीज पर ले रखी थी, जिस पर समूह के संचालकों के महलनुमा आवास बने है। टाटा समूह के पास देशभर में कितनी जमीने है, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। बिड़ला समूह, अडानी ग्रुप, अनिल अग्रवाल ग्रुप, एस्सार, नुस्ली वाडिया, गोदरेज, वाडिया ग्रुप, दिनशा ग्रुप, बिलिमोरिया परिवार, ठाकुर परिवार, हिरजी भाई दिनशा परिवार, बैरामजी जीजी भाई परिवार, वीके लाल परिवार, मोहम्मद युसूफ खोट ट्रस्ट, अंसल परिवार, कृष्णपाल सिंह परिवार, नंदा परिवार जैसों के पास कुल कितनी जमीन है, यह हिसाब लगाना मुश्किल है। बेशक सबसे ज्यादा जमीनों की मिल्कियत तो सरकार के पास ही है और आम तौर पर राजशाही वाहे देशों में यह जमीन सरकार की निजी मानी जाती है। ाqब्रटेन की महारानी इस हिसाब से दुनिया की सबसे बड़े जमीनदार है। मुंबई में ही कोलाबा से लेकर दहिसर तक की जमीनों में 6600 एकड़ जमीन पर केवल ९ परिवारों का कब्जा है। यह हाल मुंबई का है जहां लाखों लोग झोपड़ पट्टियों में रहते है और एक कमरे का मकान होना भी खुशनसीबी मानी जाती है। एसईझेड के नाम पर भी जमीनों के भारी घोटाले हुए है। अनेक राज्य सरकारों ने एसईझेड के लिए किसानों की जमीनें अधिग्रहीत की और वे जमीनें उद्योगों को दी गई। अधिकिांश उद्योगपतियों ने उस जमीन का आंशिक उपयोग भी किया और बाकी जमीन अपनी भावी परियोजनाओं के लिए आरक्षित कर ली। केन्द्र सरकार कहती है कि किसी भी परियोजना के लिए जमीन की अड़चन नहीं आने दी जाएगी। अच्छी बात है, लेकिन यह जमीन आएगी कहां से? किसकी होगी यह जमीन? क्या इन उद्योगपतियों और भूस्वामियों से सरकार जमीन ले सकती है? पीपीपी परियोजनाओं के नाम पर जमीनें किस तरह बंट रही है। यह भी किसी से छुपा नहीं है। किसानों की सहमति के बिना उनकी जमीन लेना कतई उचित नहीं कहा जा सकता। दूसरा किसी भूमिग्रहण का सामाजिक असर क्या होगा, इसे आप नर अंदाज नहीं कर सकते। खेती पर हमारे वे लोग निर्भर है जो बहुत पढ़े लिखे नहीं है। उनके पास संस्थानों की भी कमी है, लेकिन फिर भी वे जमीन के सहारे किसी तरह अपनी आजीविका चला लेते है। जमीन अधिग्रहण के वक्त उसका मूल्य तय करने का फार्मूला भी उचित नहीं कहा जा सकता। उद्योगपति किसी भी जमीन को कम दामों में ले सकते है, क्योंकि यहां आधार होगा उस जमीन की रजिस्ट्री की डीड निकालना। स्टाम्प ड्यूटी से बचने के लिए आमतौर पर किसान मूल कीमत से कम कीमत पर रजिस्ट्री करवाते है। गैर कृषि योग्य जमीन का अधिग्रहण एक सीमा तक उचित कहा जा सकता है, लेकिन खेती वाली जमीन, खासकर एक से अधिक फसलें देने वाली जमीनों का अधिग्रहण अगर होगा, तो 1965 के बाद वाले हालात फिर से आ सकते है, जब देश में खाद्यान्न की कमी जैसी स्थिति पैदा हो जाए। अधिग्रहण के खिलाफ जनआंदोलन चलाने वालेपी. वी. राजगोपाल का कहना है कि कोई भी सरकार गरीबों और किसानों से ही चलती है। पूंजीपतियों ने कभी कोई सरकार नहीं चलाई। सरकार को चाहिए कि वह अनुपयोगी भूमि अपने कब्जे में ले और बेघर किसानों को बांट दे। जंगल में रहने वाले आदिवासियों को उसी जंगल का हक मिले।


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