कालाधन पर विजय हासिल करने के लिए देश में पहली बार जिस तरीके से आम आदमी को अपमानित होना पड़ा है उसे भुला पाना आसान काम नहीं है। देश में पहली बार ये हो रहा है कि “कोरी की मार,कड़ेरे पर”पड़ रही है। सरकार ने कालाधन बाहर निकालने के लिए असली आरोपियों की गर्दन नापने के बजाय आम आदमी की गर्दन नाप डाली और अब जोर देकर कहा जा रहा है कि सड़कों पर धक्के खाने वाली भारत की जनता का धैर्य स्तुत्य है। भारत की जनता के लिए ये दुर्गम अवसर पहली बार आया है।
भारत में आजादी से पहले 1946 में और आजादी के बाद 1954 तथा 1978 में बड़े नोटों को बाजार से हटाया गया था। आजादी के पहले और पहले दशक में बड़े नोटों को हटाने का आम जनता के कामकाज पर ज्यादा असर नहीं हुआ ,क्योंकि तब औसत आमदनी कम थी और बड़े नॉट चुनिंदा लोगों के पास थे। 2016 में पहला मौक़ा है जब बन्द किये गए बड़े नॉट आम जनता की गुल्लक से निकाले गए हैं। काला धन बाहर निकालने के नाम पर ये एक अविवेकपूर्ण फैसला था और इसकी आधारशिला उसी समय रख दी गयी थी जब देश में केंद्र सरकार ने बहुत कम दर पर बीमा और पांच हजार रूपये तक का कर्ज देने का प्रलोभन देकर बड़े पैमाने पर जन-धन खाते खुलवाए थे।
देश में मौजूदा बैंकिंग प्रणाली ही देश में कालेधन के प्रसार का एक बड़ा स्रोत रही है। इन्हीं बैंकों के जरिये जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा बड़ी मात्रा में इन्हीं मुठ्ठी भर लोगों को कर्ज के रूप में दे दिया गया जो कभी लौट कर वापस आया ही नहीं। बेनामी खाते भी कालाधन जमा करने वालों ने खुलवाए। गरीब आदमी के खाते में तो लाख,दस लाख की रकम भी कठिनाई से जमा हुई ,इंदिरा गांधी के शासनकाल में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक कुछ जनोन्मुखी हुईं लेकिन आज भी उनकी कार्यप्रणाली इतनी जटिल है कि आम आदमी के लिए अपना पैसा जमा कराना और निकालना आसान नहीं है।
दुनिया में देश का डंका बजाने वाले प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कालाधन वापसी के आश्वासन को बलाए टाक रखते हुए अचानक पांच सौ और एक हजार के नोटों को प्रचलन से बाहर करने की घोषणा कर दी। पूरे देश ने मोदी के इस कदम की सराहना की लेकिन जैसे ही इस योजना का सच जनता के सामने आया तो जनता के हाथों से तोते उड़ गए। देश में पहली बार आम जनता को अपना ही पैसा लेने और जमा करने के लिए बैंकों के बाहर दयनीय और अपमानजनक स्थितियों में घंटों कतारों में खड़ा होना पड़ा। आम आदमी की हालत भिक्षुक जैसी कर दी गयी। बैंकों में खाता रखने वाले हर नागरिक को संदेह की दृष्टि से देखा गया ,उससे पहचान पात्र मांगे गए,ढाई लाख रूपये से अधिक की राशि जमा करने पर दो सौ फीसदी जुर्माने का भय दिखाया गया।
बिना तैयारी के गोपनीयता के नाम पर लागू की गयी इस योजना का खामियाजा गरीब मजदूर,किसान,बीमार आदमी और शादियों की तैयारियों में लगे असंख्य परिवारों को भुगतना पड़ा । प्रधानमंत्री ने पहले बंद की गयी मुद्रा को 72 घंटे तक अस्पतालों,पेट्रोल पम्पों और अस्पतालों तथा रेलवे बुकिंग में इस्तेमाल की घोषणा की और बाद में इसे फिर 72 घंटे के लिए बढा दिया। सरकार की हड़बड़ी में की गयी इस कार्रावाई से देश में बड़े नोटों के प्रति जनता का विश्वास डोला,बैंकों की साख डगमगाई और नोटों पर छपने वाला आश्वासन भी झूठा सा लगने लगा। बड़े नोटों के बंद किये जाने के पीछे अनेक निराधार तर्क दिए गए और बदले में फिर से बड़े नोट छापने का ऐलान भी कर दिया गया।
सवाल ये है कि क्या नए नोटों के आने भर से कालाधन बनना बंद हो जाएगा? हवाला रुक जाएगा? या फिर आतंकियों द्वारा छापी जाने वाली नकली मुद्रा की आवक रुक जाएगी ? सरकार ये भी बताने की स्थिति में नहीं है कि देश के कितने बड़े लोगों ने कालाधन बैंकों में जमा कराया । बैंकों में जमा कराया गया धन तो आम आदमी का है,उसे काला कैसे कहा जा सकता है ?
मजे की बात ये है कि भाजपा ने 2014 में वर्ष 2005 से पहले के सभी नोटों के विमुद्रीकरण के तत्कालीन कांग्रेस सरकार के फैसले को गरीब विरोधी कहा था। तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने जनवरी 2014 में काले धन पर रोक लगाने के क्रम में विमुद्रीकरण की घोषणा की थी। भाजपा प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी ने उस निर्णय को एक गिमिक करार दिया था और कहा था कि यह विदेशी खातों में जमा काले धन के मुद्दे की तरफ से ध्यान हटाने की एक कोशिश है। यह बात उस समय के एक वीडियो रिकॉर्डिग से पता चली है।लेखी ने उस निर्णय को गरीब विरोधी करार देते हुए कहा था कि इससे उन लोगों पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जिनके खाते स्विस बैंकों में हैं, बल्कि असर उनपर पड़ेगा जिनके पास भारत में भी कोई बैंक खाता नहीं है। बड़े नोटों कि शक्ल में अपनी जमा पूँजी संचित करने वाली बहुसंख्यक जनता सरकार द्वारा किये गए अपमान को शायद ही कभी भूल पाए।
अगर जनता ऐसा करती है तो सरकार कि नजर में ये राष्ट्रप्रेम है और अगर नहीं भूलती तो राष्ट्रद्रोह..बड़े नोटों के बंद किये जाने से किसी को आपत्ति नहीं हो सकती किन्तु बड़े नोटों को बाजार से हटाने के पहले जिस तरीके से जनता के सामने असमंजस पैदा किया उसे कोई भी सम्मानजनक नहीं कह सकता। कालाधन रखने वालों के खिलाफ सरकार को भविष्य में और कठोर कदम उठाना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था की मांग भी ये ही है किन्तु सरकार को जनता के सम्मान की रक्षा करना पड़ेगी। सरकार को समझना होगा कि अपमानित जनता ऐसे किस भी फैसले पर गर्व नहीं कर सकती जो उसके अहम को चोट पहुंचाता हो। आम जनता कालाधन बढ़ने और उसके बाहर न आने पाने के लिए दोषी नहीं है,फिर उसे सजा क्यों दी जा रही है?1978 में भी यही सब योजना लागू की गयी लेकिन उस समय जनता को वो सब नहीं भुगतना पड़ा जो आज भुगतना पड़ रहा है।
सरकार और उसके समर्थक जनता को होने वाली तकलीफ पर पर्दा डालने के लिए कहते फिर रहे हैं कि जिओ की सिम और क्रिकेट का टिकिट लेने के लिए जब कतार में खड़ा होना बुरा नहीं लगता तब बड़े नॉट जमा करने या निकालने के लिए कतार में खड़े होने से कौन सी आफत आ गयी है? ये कुतर्क करने वाले भूल जाते हैं कि जो नोट जनता के हाथ में या खाते में है उस पर सरकार का आश्वासन चस्पा है ,उसको झुठलाना सबसे बड़ा अपमान है,कोई अपनी ही कमाई हासिल करने के लिए क्यों अपमानित हो ?
नोटबंदी के इस फैसले के बाद नकदी की किल्लत होने की वजह से लोगों में बढ़ते गुस्से की अनदेखी कर कहा जा रहा है कि सरकार ने यह फैसला काले धन की सफाई के लिए लिया गया, किसी को तकलीफ देने के लिए नहीं। लोकतंत्र में ये सब उलटबांसी इसलिए चल जाती है क्योंकि वोट देने के बाद जनता के हाथ में बचाव के लिए कुछ रह नहीं जाता। जनता आज भी अच्छे दिनों और विदेशों से कालाधन आने पर अपने खतों में पंद्रह-पंद्रह लाख रूपये आने की प्रतीक्षा कर रही है। बेचारी जनता नहीं जानती कि चुनावी मौसम कि मृग-मरीचिकाओं में कोई सच्चाई नहीं होती
दुर्भाग्य की बात ये है कि संकट की इस घड़ी में जनता का साथ विपक्ष ने भी नहीं दिया ,सड़कों पर घंटों मकतारों में खड़ी जनता की तकलीफ सुनने कोई नहीं आया ,क्योंकि कालाधन तो हर राजनितिक दल की नीव में भर पड़ा है। प्रधानमंत्री जी कालाधन की जड़ों पर हमला करें तो सचमुच माना जाये कि वे देश के जिम्मेदार चौकीदार हैं। मुझे लगता है कि छोटे-छोटे सूबे जितने के लिए सरकार ने एक कठोर कदम उठा तो लिया है लेकिन इसके नतीजे जैसे सरकार चाहती है वैसे निकलेंगे इसमें संदेह है। जबकि सब मानते हैं कि 500 और 1000 रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण का अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ेगा। इससे कई दशकों से जड़ जमाए भ्रष्टाचार से निपटने में मदद मिलेगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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