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गरियाना जारी रखें,सम्मान हुआ तो अच्छा न हो तो और भी अच्छा

खरी-खरी, मीडिया            May 26, 2015


yashvant-singh पत्रकारिता में हर पत्रकार अपने शुरूआती दौर में बहुत सारे उसूलों, सिद्धांतों के साथ आता है लेकिन जैसे—जैसे वह इसमें घुसता है परतें उधडती जाती हैं सिस्टम की इस सिस्टम में बैठे नामचीन लोगों की.इस फील्ड की कुछ सच्चाईयां देखकर तो मन इतना कडवा हो जाता है कि सडांध आने लगती है. लेकिन इस सडांध को व्यक्त कितने लोग कर पाते हैं सही—सही शब्दों में! भडास4मीडिया के संपादक यशवंत सिंह यह काम बखूबी कर लेते हैं. उन्हीं के शब्दों में पत्रकारिय मन की भडास से आप भी रुबरु हों— भड़ास आत्महंता आस्था से शुरू किया था, सभी हरामियों को चिन्हित करके गरियाना है. हर दलाल को सरेआम दलाल संबोधित कर उसके बारे में सबको बताना है. एक-एक उत्पीड़कों, शोषकों, धंधेबाजों के खिलाफ आवाज उठाना है, ललकारना, चुनौती देना है. किसी को नहीं छोड़ना है. कुछ ऐसी ही मानसिकता में भड़ास की बीज नींव डाली थी चोट्टों दोगलों उचक्कों हरामियों चापलूसों चिरकुटों बेवकूफों अपढ़ों से भरी मीडिया के संपादकों व मालिकों की असलियत जानकर तो उबकाई आने लगी थी. भगत सिंह को आदर्श मानकर सोशल पोलिटिकल एक्टिविस्ट बना और उसी आदर्श को दिल में रख पत्रकारिता शुरू की. पर यहां तो दलालों दोगलों की भरपूर भरी-पूरी दुनिया फलते-फूलते देखने लगा. ये लोग कहते कुछ. करते कुछ. दिखते कुछ. रहते कुछ. एक दौर ऐसा आया जब इन अखबारी दलाल मालिकों संपादकों को अपने यहां मेरी जरूरत नहीं थी और मेरे दिल में इन अखबारी दलालों मालिकों संपादकों की असलियत जानने के बाद इनके प्रति कोई साफ्ट कार्नर शेष न था. खेती वेती कर जीवन गुजारने गांव जाने से पहले दिल्ली में ही कुछ दिन महीने रहकर भड़ास निकाल लेने की ठानी. वक्त काटने के लिए एक मोबाइल कंटेंट प्रोवाइडर कंपनी में वाइस प्रेसीडेंट कंटेंट एंड आपरेशंस के पद पर ज्वाइन किया. Bhadas4media के लांच होते ही और कुछ तेवरदार तीखी खरी खबरें छपते ही मीडिया घरानों में तरह तरह की कुर्सियों पर छितराए, तरह—तरह की कुर्सियों को चिपकाए बैठे लोगों के पेट में मरोड़ उठने का क्रम शुरू होने लगा. पुलिस थाना मुकदमा जेल मर्डर.... ये अंजाम हमें पता था. हमेशा से ऐसा ही होता आया है उनके साथ जो छिपाए दबाए जा रहे सच को उधेड़ कर पूरे जोर से बाहर लाते हुए सरेआम असलियत कहने बताने लगते हैं. असल में इस देश का लोकतंत्र संविधान न्यायपालिका मीडिया नौकरशाही आदि इत्यादि मिलाकर पूरा सिस्टम जो कुछ है, वह सब कुछ एक बहुत बड़ा नाटक नौटंकी है और इसके शीर्ष पर बैठे लोग सबसे शानदार व दिमागदार अभिनेता. सच्चाई यही है कि ये पूरी व्यवस्था बड़ों के लिए, बड़ों के द्वारा और बड़ों से रचित संरक्षित सृजित संचालित है. आप परत दर परत इस सिस्टम के भीतर घुसते जाएंगे तो सच की असलियत खुद आपको पता लगती चल जाएगी. इस सिस्टम यानि काजल की कोठरी में जितना आप गहरे घुसेंगे तो पाएंगे कि यहां तो वैसा कोई न मिला जैसा किताबों में पढ़ा सीखा सोचा था. पाएंगे कि आपके आदर्श नैतिकता न्यायप्रियता संवेदनशीलता सब कुछ सिर्फ दिखाउ—लिखाउ—पढ़ाउ चीजें हैं, व्यवहार में इनकी कोई जगह नहीं है. यानि सत्य संवेदना न्याय बराबरी आदि इत्यादि मेनस्ट्रीम नहीं हैं, मुख्य धारा नहीं है. भड़ास के जरिए जब धमाके शुरू किए तो बड़े बड़ों के परखच्चे उड़े. लांछन आरोप छीटें मेरे पर भी आने थे. लेकिन जैसे पागल को ये क्या पता कि लोग उसे क्या कह रहे, उसी तरह अपन भी अपनी ओर उठती उंगलियों से बेखबर रहे. नोटिस थाना जेल मुकदमे दनादन मेरे पर होने लगे. घर आफिसों पर छापे तक पड़ने लगे. सबने मिलकर भड़ास और मेरे को नक्सली / पागल / अराजक / अनसिस्टमेटिक / अनप्रेडिक्टबल / जाने क्या क्या घोषित कर दिया. ऐसी मन:स्थिति और ऐसे हालात में कभी अपेक्षा नहीं करता कि कोई मुझे सम्मानित करेगा, कोई मुझे रिकागनाइज करेगा. लेकिन आज आम मीडियाकर्मियों के साथ साथ सत्ता शीर्ष पर बैठा कथित बड़ा आदमी भी जब भड़ास और मेरा नाम सम्मान से लेते हैं और इसे पुरस्कार के काबिल मानते हैं तो सोचता हूं कि कहीं ये भड़ास को नष्ट करने की साजिश तो नहीं. ऐसी ही मन:स्थिति में लखनऊ में राज्यपाल रामनाईक के हाथों सम्मानित हो आया. दरअसल लखनऊ यानि अपने गृह प्रदेश की राजधानी में इस सम्मान के बहाने मैंने लखनऊ के ढेर सारे सत्ता शीर्ष के चिरकुटों, चारण-भाटों को दिखा चिढ़ा दिया कि लगातार गालियां देते रहने से भी सम्मान मिल जाया करता है, इसके लिए अनवरत तेल लेपन व झूठ बोलन ही कतई जरूरी नहीं तो भाइयों, आइए गरियाना जारी रखें. सत्ता सिस्टम की पोल खोलना बरकरार रखें. लुटेरों, भ्रष्टाचारियों को सरेआम नंगा करना जारी रखें. हमारे काम को कोई समझ पाए और सम्मान वम्मान करा दे तो बहुत अच्छा. न कराए तो उससे भी अच्छा. हम चले थे ना यह सोचकर कि मंजिल मिल ही जाएगी अपनी मस्ती में बहते रहे रस्ते बनते रहे कहीं कहीं प्रणाम सम्मान दिखते रहे हम रहे सबसे बेपरवाह हमें तो अपनी सुर लय गति प्यारी थी हमें अपनी कलकल आनंद भरी जलधारा प्यारी थी इसे ले जाना था उस महासमुद्र में जहां जाकर सारी बेचैनियों संघर्षों मुश्किलों भ्रमों का हो जाया करता है अंत बनकर अनंत... चीयर्स मित्रों


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