डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
Rowlett act आयेगा तो जलियांवाला में विरोध होगा ही!
गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले सप्ताह बुधवार को लोकसभा में तीन बिल पेश किए थे। ये तीनों बिल अलग-अलग इसलिए कि केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और केन्द्रशासित राज्यों के नेताओं के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं।
प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री या कोई भी मंत्री किसी ऐसे क्राइम में अरेस्ट या 30 दिन की हिरासत में रहता है, जिसकी सजा 5 साल या उससे ज्यादा हो तो उसे पद छोड़ना पड़ेगा।
बढ़िया बात !
बुरी बात यह कि यहां बात हिरासत की है, सजा की नहीं। भारत में तो ED, CBI किसी को भी हिरासत में ले लेती है। केजरीवाल ED की हिरासत से छूटे तो CBI ने धर लिया। न्याय कोर्ट में होता है, अब ED और CBI मुख्यमंत्री को हटाने का फैसला कर लेंगे।
अच्छी बात यह कि इसके दायरे में प्रधानमंत्री भी होंगे ! है ED या CBI में उनको छूने की हिम्मत?
पूरी बात को, इसके खतरे को सरलतम शब्दों में समझिये :
न अपील, न वकील, न दलील। ये बिल रौलेट एक्ट जैसा है। रौलेट एक्ट के खिलाफ लोग जलियांवाला बाग में सभा कर रहे थे।
ये तीनों बिल अलग-अलग क्योंकि केंद्र, राज्य और केन्द्र शासित राज्यों के लीडर्स के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं।
ये बिल अनैतिक हैं। अगर सदन में कोई भी बिल पेश होता है तो सदस्यों को 24 घंटे के पहले उनको कॉपी मिल जानी चाहिए ताकि सांसद अपनी तैयारी करके आएं लेकिन इस बिल की कॉपी मंगलवार शाम को यानी 19 तारीख की शाम को दी गई।
इमरजेंसी प्रोविजन है कि अगर स्पीकर चाहे तो विशेष परमिशन दी जाती है, पर इस विधेयक के लिए ऐसी कोई विशेष परमिशन नहीं दी गई।
इस विधेयक पर कैबिनेट में चर्चा हुई, उसके बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई, लेकिन इसके बारे में किसी को बताया नहीं गया. बिल की कॉपी सदस्यों में सर्क्युलेट नहीं की गई, जो की जानी चाहिए थी।
विपक्ष में इस बिल को कंपेयर किया है 1919 में आए रौलेट एक्ट से, इसके विरोध में जलियांवाला बाग में बैठक हुई थी। रॉलेट एक्ट में प्रावधान था कि केवल शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है।
ये प्रावधान न्याय के सिद्धांत का पालन नहीं करते, क्योंकि अगर कोई सीएम हिरासत में 30 दिन से अधिक रहा है तो उसे दोषी मान लिया जायेगा। इस्तीफ़ा देना पड़ेगा। वो दोषी नहीं पाया गया तो भी इस्तीफ़ा तो हो ही चुका।
सीएम के इस्तीफे का मतलब पूरे मंत्रिमंडल का त्यागपत्र। नए सिरे से कवायद। फिर से शपथ। हर मंत्री, राज्य मंत्री, उप मंत्री तक की। पूरे राज्य में उथलपुथल!
अब तीनों बिल जॉइंट कमेटी ऑफ़ पार्लियामेंट को भेजे गए हैं, जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी को नहीं।
दोनों में अंतर है। मीडिया वाले दोनों को ही जेपीसी कहते हैं। कई बेचारों को तो इनका अंतर भी नहीं मालूम। जॉइंट कमेटी ऑफ़ पार्लियामेंट बनती रहती हैं। बार बार। लेकिन जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी ख़ास काम के लिए बनाई जाती है, विशेष रूप से किसी महत्वपूर्ण मुद्दे, घोटाले, या विधेयक की गहन जांच या समीक्षा के लिए गठित की जाती है। इसका दायरा अधिक विशिष्ट और जांच-उन्मुख होता है।
जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी आखिरी बार 2013 में बनी थी। मनमोहन सिंह के राज में। 2G पर ही ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी बनी है, अगस्त्य वेस्टलैंड पर बनी है, पेय पदार्थ में कीटनाशक मुद्दे पर बनी है।
ये विधेयक कानून बनने के बाद न केवल विरोधी दलों के लिए नासूर बन जाएगा, बल्कि एनडीए के दलों के लिए भी ब्लैकमेलिंग का हथियार होगा। किसी सीएम को हटाने का फैसला कोर्ट करे तो बेहतर, पर ED और CBI तो कोर्ट से भी वजनी हो जाएंगे।
किसी भी विरोधी सीएम को हटाना हो तो जांच एजेंसियों को छू कर दो, 30 दिन हिरासत में डाल कर रख दो, उसकी राजनीति खल्लास! इससे कई क्षेत्रीय पार्टियां ख़त्म हो जाएगी।
सत्ता का भारी केन्द्रीयकरण होगा जो लोकतंत्र की सेहत के लिए शुभ नहीं होगा।
मैं किसी भी भ्रष्ट का समर्थन नहीं कर रहा हूं, लेकिन चाहता हूं कि कोर्ट का काम कोर्ट करें, ED और CBI नहीं! क्योंकि ये तोते हैं!
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