सुधीर जैन।
दो अक्टूबर और तीस जनवरी को गांधी की याद बनाए रखने की परंपरा चली आ रही थी। लेकिन अब सब कुछ नया नया करने के चलन में यह परंपरा कुछ टूटती दिख रही है। यह बात पिछले दो साल के सामान्य अनुभव से निकली है। बहरहाल गाधी जयंती गुज़र गई है फिर भी आइए इसे सरसरी तौर पर तो देख ही लें।
पिछले 40 साल से लगातार जो देखा
अपने प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिनों तक और फिर विश्वविद्यालय में अध्यापन से लेकर अखबार में काम करने तक मेरा ऐसा कोई साल नहीं गुज़रा जब गांधी जयंती पर महात्मा गांधी की प्रासंगिकता पर बातें न होती रही हों। यह पहला साल है कि इस बार की गांधी जयंती पर किसी भी आयोजन की सूचना मुझे नहीं मिली। दो तीन साल से ईमेल को नियमित चैक करने की भी आदत हो गई है। ईमेल पर भी कहीं से कोई आमंत्रण या सूचना नहीं आई।
गांधी की प्रासंगिकता पर नियमित आयोजन भी नहीं हो पाए
गाज़ियाबाद में कुछ मित्र गांधी जयंती पर हर साल नियमित रूप से एक आयोजन किया करते थे। इसका विषय हुआ करता था गांधी की बात मानने का वक्त। इस साल वह भी नहीं हो पाया। हर साल इस दिन टीवी और अखबारों में आमतौर पर होने वाली गोष्ठियों या व्याख्यानों में विद्वानों की कही बहुत सी नई बातें जानने को मिल जाती थीं। इस बार वे ख़बरें लगभग नदारद रहीं। अखबारों के भीतर के पन्नों के एक कोने में जो इक्का दुक्का ख़बरें हैं वे भी इस साल एक एक दो दो लाइनों में नमनों और श्रद्धासुमनों में निपटा दी गईं।
सरकारी विज्ञापनों में भी सिकुड़न
हां, ऐन दो अक्टूबर के दिन हर साल की तरह कुछ सरकारी विज्ञापन ज़रूर दिखे। मसलन भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय का विज्ञापन। इस साल यह बिल्कुल अलग तरह का था। इस साल के विज्ञापन का अगर अंतर्वस्तु विश्लेषण किया जाए तो हो सकता है कि यह लगे कि महात्मा गांधी मोदी सरकार के स्वच्छता और शौचालय अभियान के ब्रांड एंबेस्डर बना लिए गए हैं।
एक विज्ञापन उप्र सरकार का भी है। इसमें मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का फोटू फिट करने के लालच से ज़रूर बच लिया गया। भारत सरकार जितने ही बड़े इस विज्ञापन को किसी को भी दिखा लिया जाए, कोई भी यही कहेगा कि बेमन से रस्म अदायगी है।
इत्तेफ़ाक़ से इसी हफ़्ते गांधी की ज्यादा ज़रूरत थी-
अगर ग़ौर करें तो देश के जैसे हालात हैं उनमें गांधी की प्रासंगिकता और ज़्यादा बढ़ी नज़र आती है। अमानवीयता के एक भयावह रूप यानी युद्ध का ख़तरा सिर पर आकर खड़ा है। इस ख़तरे से बचने और बचाने की बजाए चारों तरफ युद्ध की आकांक्षा बढ़ाने का जोर है। इसी संकट और दुविधा के समाधान के लिए महात्मा गांधी को याद करते रहने की ज़रूरत पड़ती है। इसीलिए इस साल गांधी को और ज़्यादा प्रतिबद्धता के साथ याद करने की ज़रूरत थी।
गांधी जयंती पर इस समय कोई बात होती तो क्या होती
मौजूदा हालात में यह पूछा जा रहा होता कि युद्ध और खुद को हिंसक बनाने के अलावा चारा क्या है। इसका एक जवाब यह आ सकता था कि एक उपाय अपनी प्रतिरक्षा की क्षमता बढ़ाना है। भारतीय चिंतंन परंपरा के एक दर्शन में अहिंसा विवेक की लंबी व्याख्या है। उसमें हिंसा के तीन रूप बताए जाते हैं। आरंभजा हिंसा यानी जो आजीविका के अर्जन में अपरिहार्य होती है। विरोधजा हिंसा जो प्रतिरक्षा के लिए होती है। और संकल्पजा हिंसा जो संकल्प के साथ पहल करती है और हिंसा का उन्माद पैदा करती है। भारतीय ज्ञान परंपरा में इसी संकल्पजा हिंसा का निषेध है। हिंसा के पहले वाले दोनों रूपों को गृहस्थों के व्रतों में शामिल नहीं किया गया है। गांधी जयंती पर अगर अहिंसा पर विमर्श हो रहा होता तो बहुत संभव है कि यह बात हो रही होती।
दोहराना पड़ सकती है वह कहावत-
हो सकता है कि कुछ लोग सोचते हों कि मौजूदा हालात में गांधी प्रासंगिक नहीं हैं। ऐसा मानने वाले लोग वक़्त की नज़ाकत का हवाला देकर ज़रा देर के लिए खुद को सही साबित करते दिख सकते हैं। देखने में यह भी आता है कि कुछ मासूम लोगों को इतिहास में घुसाकर भी बहस करने के लिए तैयार किया जा चुका है। लेकिन उन्हें याद दिलाया जा सकता है कि महात्मा गांधी के साथ एक कहावत जैसी भी जुड़ी है। यह कहावत है मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। कहावतों का महत्त्व मान कर चलें तो कह सकते हैं कि फौरी तौर पर युद्ध और हिंसा के पक्षधर भले ही हावी लगने लगे हों लेकिन बहुत संभव है कि जल्द ही हमें मजबूरी में अपने राष्ट्रपिता को उसी शिद्दत से याद करना पड़े।
लेखक वरिष्ठ कॉलमनिस्ट हैं यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।
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