Breaking News

तमाशा बनाकर रख दिया पेशे का!दलाली से बड़ी हकीकत है दबाव!

खरी-खरी, मीडिया            Sep 18, 2016


ravish-kumar-ndtvरवीश कुमार। पत्रकार शेखर गुप्ता ने ऐसा कुछ ट्वीट नहीं किया था जिसका जवाब मुख्यमंत्री केजरीवाल नहीं दे सकते थे। अपने ट्वीटर हैंडल से शेखर गुप्ता को दलाल बोलकर उन्होंने ख़ुद को ही शर्मसार किया है। हर नेता को किसी न किसी पत्रकार से समस्या रहती है, हर नेता इंटरव्यू देने के लिए पसंद का पत्रकार रखते हैं या खोज लाते हैं लेकिन यह भी सच्चाई है कि हर नेता को बहुत से पत्रकारों से कोई समस्या भी नहीं होती है। इसका मतलब यह नहीं कि दोनों को आप दलाल के खांचे में रख देंगे। अगर मुख्यमंत्री राजनीति में बदलाव चाहते हैं तो उस बदलाव का एक बड़ा प्रतीक भाषा है। उन्हें भाषा के स्तर पर भी नए मानक गढ़ने होंगे। नेता की भाषा अनुकरणीय होनी चाहिए। तब भी जब वह तनाव में हो। आरोपों से घिरा हो। भाषा के प्रति गंभीर हुए बिना आप नई राजनीति के प्रति गंभीर नहीं हो सकते हैं। अगर शेखर गुप्ता आलोचक ही हैं तो उनकी हर बात का लिखकर जवाब दिया जा सकता है। आजकल चलन हो गया है कि एक को दलाल बोलो और फिर कह दो कि मैंने सबको तो नहीं बोला। मीडिया में कुछ अच्छे लोग भी हैं। बुरे लोग भी हैं। यह चालू जवाब है। आक्रामकता में भी भाषा की गरिमा का ख़्याल किया जा सकता है। अटल बिहारी वाजपेयी की यही तो कमाई है। वे अपने विरोधियों के प्रति आक्रामक रहते हुए भी अमर्यादित नहीं होते थे। दुख है कि इस मानक पर मौजूदा समय में ज़्यादातर नेता फेल होते जा रहे हैं। इन दिनों एक और परिपाटी देखने को मिल रही है। ख़राब भाषा के लिए सोशल मीडिया सेल के ज़रिये साइबर योद्धा पैदा कीजिए जा रहे हैं। गाली गलौज से लेकर महिला पत्रकारों को आतंकवादी के रूप में चित्रण करने का काम इनके ज़रिये करवाया जा रहा है। कार्यकर्ता की जगह योद्धा शब्द आ गया है। साइबर योद्धा गुंडई का शास्त्रीय नाम है। इनसे भाषिक गुंडई कराकर योद्धा जैसे साहसिक और पवित्र शब्द को भी लांछित किया जा रहा है। इसके बाद भी केजरीवाल इन उदाहरणों का सहारा लेकर दलाल जैसी शब्दावली के इस्तेमाल की छूट नहीं ले सकते हैं। ठीक है केंद्रीय मंत्री वी के सिंह ने भी प्रेस्टीट्यूड कहा था लेकिन उसकी आलोचना आज तक हो रही है। अब ऐसी अमर्यादित भाषा और साइबर गुंडई में कोई भी दल पीछे नहीं है। क्या अब यह मान लिया जाए कि वी के सिंह और केजरीवाल फिर से एक मंच पर आ गए हैं। अन्ना वाला मंच न सही, भाषा वाले मंच पर ही सही। मुख्यमंत्री के बयान से प्रोत्साहन पाकर उनके मंत्री भी दुस्साहसी होते चले गए। जैसे एक मंत्री ने पत्रकार दीपक चौरसिया का फोन नंबर सार्वजनिक कर दिया। एक पत्रकार ने मोबाइल फोन ही मंत्री की तरफ उछाल दिया। मैंने टीवी देखना बंद कर दिया है और लोगों से भी अपील करता हूं कि वे मेरी तरह न के बराबर टीवी देखें, इसलिए मुझे पूरी घटना की सही जानकारी नहीं है। इसलिए पत्रकारों की चूक और उनके कार्यक्रमों पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। जानकारी होती तो ज़रूर करता। इसके लिए मुझे टीवी देखना होगा और वो मैं करना नहीं चाहता। लेकिन मंत्री को तो अपनी मर्यादा का ख़्याल रखना चाहिए। दीपक चौरसिया का नंबर सार्वजनिक किये जाने से उनके परिवार तक को परेशानी हो रही है। लोग धमकियां दे रहे हैं। क्या मुख्यमंत्री इस पर भी अफसोस ज़ाहिर नहीं करेंगे? इससे पहले भी राजनीतिक दलों के ट्रोल ने कई बार कई पत्रकारों के नंबर सार्वजनिक किये हैं। यह चलन अच्छा नहीं है। दीपक के परिवार की चिन्ता तो है ही यह तो सरासर पत्रकारों को समर्थकों के दम पर डराने धमकाने का भी मामला बनता है। कपिल मिश्रा जी को मीडिया से दिक्कत है तो एक क्रांतिकारी फैसला कर लें। सभी को विज्ञापन देना बंद कर दें। डेढ़ सौ करोड़ रुपया ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों में बांट दें। जिस मीडिया पर भरोसा नहीं, उस पर पैसे खर्च करने की नौटंकी क्यों कर रहे हैं। मीडिया से बात बंद कर दीजिए। बल्कि मेरी तरह टीवी देखना और अखबार पढ़ना कम कर दीजिए। कर सकते हैं तो करके दिखाइये ज़रा। मीडिया में समस्या है। दलाली भी एक हकीकत है। दबाव तो उससे बड़ी हकीकत है। कई राज्यों में चुनिंदा अख़बारों को सरकार विज्ञापन नहीं देती है। हाल ही राजस्थान पत्रिका से संपादक ने सार्वजनिक पत्र लिखा था। तमाम राज्यों से सुनने को मिलता है कि फलां चैनल को नेता जी ने विज्ञापन देना बंद कर दिया है। अपने नियंत्रण वाले केबल पर प्रसारण बंद करवा दिया है। उसके बाद केबल पर चालू करवाने के नाम पर डील का लंबा खेल चलता है। एंकर बदला जाता है, शो के सवाल बदल दिये जा रहे हैं। चुन कर विज्ञापन न देना, केबल पर प्रसारण बंद करवाना, यह सब मोदी राज की देन नहीं है। पहले अफसोस कि ये सब सभी के राज की देन है और आज भी जारी है। हर नेता के बारे में आपको ये सब सुनने को मिल जाएगा। मुझे इसकी बिल्कुल जानकारी नहीं है कि गिल्ड या केबल टीवी संघ ने इसके ख़िलाफ़ कोई सार्वजनिक बयान जारी किया है या नहीं। मैं ख़ुद ही सारे मसलों पर बयान जारी नहीं कर पाता तो उनसे ये उम्मीद क्यों करूं। यह बात लिखकर रख लीजिए कि जिस मीडिया पर आप महीने का हज़ार बारह सौ रुपये खर्च करते हैं उसका अधिकांश स्वतंत्र नहीं रहा। था भी नहीं और है भी नहीं। हो सकता है पहले से कुछ ज़्यादा हो रहा हो। मीडिया अपने सबसे न्यूनतम दौर में है। यह चिन्ता एक पत्रकार की नहीं है। एक पत्रकार क्या कर लेगा। विश्व दीपक ने आवाज़ उठाई, उसे नौकरी नहीं मिली। संपादक तक बदले जाने की चर्चा होती रहती है, संपादकों को गुप्त बैठक में हड़काने की खुसफुस चर्चा सुनाई देती है। संस्था के तौर पर मीडिया को यह दबाव सुखद लग रहा है। मेरा सवाल अब सीधे उस पाठक और जनता से है कि क्या आप किसी भी सरकार के कामकाज का मूल्यांकन करते वक्त इस बात को प्राथमिकता देते हैं कि उसके दौर में मीडिया ने कितनी निष्पक्षता से काम किया है या करने दिया गया है। अगर मीडिया ही स्वतंत्र नहीं था तो आपकी सारी जानकारी सही कैसे हो सकती है। आपकी जागरूकता भी तो बिकाऊ ही हुई न। पाठक और दर्शक को ही खुलकर कह देना चाहिए कि उसे भी देशहित में लालची और लचर मीडिया चाहिए। मैं आपकी पसंद के नेता की तारीफ में लाजवाब प्रोग्राम कर सकता हूं। ऐसी ऐसी तारीफ करूंगा कि आप सुनकर घर में ही नाचने लगेंगे। कुर्ताफाड़ तारीफ कर सकता हूं। पहली हेडलाइन बनाऊंगा कि आज नेता जी क्या खूब मुस्कुराये। टाइम पर नहाए, देर से खाए, देशहित में हम सब मिलकर उनकी पीठ खुजा आए। तमाशा बनाकर रख दिया है हमने और आप सबने इस पेशे का। मज़े लेने के लिए दो चार पत्रकारों को पकड़ लाओ कि अरे आप इस पर चुप हैं उस पर चुप हैं। अरे भाई करोड़ों लोग मर गए हैं क्या। उनसे पूछो कि वे किस किस बात पर चुप हैं। क्यों चुप हैं। दोस्तों की इस सलाह से भी दम घुटने लगा कि चुप रहो, कम बोलो वर्ना तुम भी निपटा दिये जाओगे। जैसे आप विश्वदीपक को भूल गए वैसे ही आप किसी को भी भूल सकते हैं। आप मतलब जो आप पाठक हैं और दर्शक हैं। पत्रकार का कोई नहीं होता। समाज न संस्थान। दो चार अच्छे पत्रकार रख लिये जाते हैं ताकि आपको लगे न कि सब कुछ समाप्त ही हो गया है। इसलिए मीडिया पर अब लिखने का मन नहीं करता। एक ही बात को कितनी बार अलग—अलग घटनाओं के बहाने लिखते रहें। हमें खुशी है कि हमारे लिखे का कुछ असर नहीं हुआ। बाहर न भीतर। आज पत्रकार पत्रकार में पेशेवर रिश्ता ख़राब हो चुका है। राजनीतिक दलों की घुसपैठ इतनी हो गई है कि जल्दी ही आप सुनेंगे कि न्यूज़ रूम में ही पत्रकारों के बीच ताकत के हिसाब से फैटा-फैटी या पटका-पटकी हो गया। चैनलों के माध्यम से हो ही रहा है। हर तरह से होने ही लगा है। यह भी अच्छा है कि इसी बहाने समझौतापरस्त आलसी पाठकों और दर्शकों को यह भी तमाशा देखने को मिल रहा है। कम से कम कोई पाठक यह तो नहीं कह सकेगा कि मीडिया बिकाऊ था और हमें पता ही नहीं चला। मैं यह बात मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके मंत्रियों की हरकत को हल्का करने के लिए नहीं लिख रहा। इन बातों के बाद भी उनका भाषिक आचरण सही नहीं था। कायदे से मुख्यमंत्री को अफसोस ज़ाहिर करना ही चाहिए। वे चाहें तो अफसोस को माफी भी पढ़ सकते हैं। कस्बा से साभार।


इस खबर को शेयर करें


Comments