दिल्ली चुनाव का देश पर पड़ेगा व्यापक असर
खरी-खरी
Feb 07, 2015
समीर शाही
दिल्ली विधानसभा चुनाव हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों से कई अर्थों में भिन्न है। नरेंद्र मोदी व अमित शाह के साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल, भाजपा के 120 सांसद, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, भाजपा महासचिव, पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनेक अधिकारी, प्रचारक और कार्यकर्ताओं की एक विशाल फौज इस चुनाव में उतरी हुई है- ऐसा ‘चुनावी युद्ध’ पहले कभी नहीं हुआ था। 1977 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें, तो चुनाव के इतिहास में यह अकेला उदाहरण है। ‘आप’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और ‘आप’ के प्रत्याशियों के खिलाफ एक सुदृढ़ घेराबंदी खड़ी की गयी है। भाजपा में इतनी घबराहट क्यों है? पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के दिल्ली में 13 प्रतिशत वोट बढ़े थे। दिल्ली लोकसभा की सातों सीटें भाजपा को मिली थीं। तीन प्रतिशत वोट बढऩे के बाद आप एक सीट भी नहीं पा सकी थी। फिलहाल दिल्ली में मुख्य प्रतिद्वंद्विता भाजपा और आप के बीच है। कांग्रेस के अजय माकन की लगभग स्वच्छ छवि और दिल्ली में उनकी अच्छी छवि के बाद भी तीसरे नंबर पर है। बसपा और अकाली दल का प्रभाव-क्षेत्र सीमित है। इन दोनों दलों को मुश्किल से एकाध सीट मिल सकती है।
10 जनवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में नरेंद्र मोदी की रैली असफल रही थी। भीड़ पर्याप्त नहीं थी। यह मोदी के जादू के उतरने का चिन्ह था। जिस मोदी-लहर की बात की जाती रही थी, वह लहर कायम नहीं थी। भाजपा लहर का कहीं कोई सवाल नहीं था। कोई पार्टी एक नेता के बूते अधिक समय तक उड़ान नहीं भर सकती। प्रत्येक जादू का एक तात्कालिक प्रभाव होता है। उसके बाद बड़ा से बड़ा जादूगर भी कामयाबी नहीं दिखा पाता। मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में किरण बेदी की घोषणा दिल्ली भाजपा के पुराने नेताओं के लिए एक झटके और सदमे की तरह था। केजरीवाल के समकक्ष मोदी को रखना मोदी का अपमान था। एक सोची-समझी रणनीति के तहत केजरीवाल के प्रतिद्वंद्वी के रूप में किरण बेदी को खड़ा किया गया। जमीनी स्तर पर दशकों से कार्यरत भाजपा के समर्पित नेताओं-कार्यकर्ताओं की अनदेखी की गयी, जो मोदी-शाह की एक भिन्न किस्म की राजनीति का प्रमाण है। भाजपा किसी भी राजनीतिक दल की तुलना में कहीं अधिक अनुशासनबद्ध है। यह अनुशासनबद्धता सिद्धांत और विचार से कहीं अधिक भय से जुड़ी है। वहां मतभेद और विरोध की हल्की आवाज भी क्षणभंगुर है।
वह उठने से पहले दबा दी जाती है। नरेंद्र मोदी ने केजरीवाल को ‘अराजक’ कह कर जंगल में चले जाने को कहा था। अब अरुण जेटली के दिल्ली में एकमात्र मुद्दा ‘गवर्नेंस बनाम एनार्की’ है। मोदी के पास शुरू से अब तक केवल दो मुद्दे रहे हैं- विकास और सुशासन। उनके यहां आंदोलन का कोई महत्व नहीं है। केजरीवाल और किरण बेदी- दोनों आंदोलन से निकले हुए हैं। आंदोलनों से सत्ता-वर्ग घबराता है। आंदोलन जनता करती है। शासक वर्ग उसे कुचलता है। आंदोलनकारियों को अपने साथ ले आता है। आंदोलनकारियों में भी अवसरवादी तत्व मिले होते हैं, जिससे एक नयी श्रेणी का आंदोलनकारी जन्म लेता है। केजरीवाल को बार-बार कांग्रेसी नेताओं ने चुनाव लड़ कर संसद में आने और कानून बनाने को कहा था। कांग्रेस की निगाह में आंदोलनों का कोई महत्व नहीं था। जयप्रकाश नारायण को अंतत: एक पार्टी का गठन करना पड़ा था और जनता पार्टी ने कांग्रेस को चुनावी हार का मुंह दिखाया। किरण बेदी एक नयी पार्टी आप में शामिल नहीं हुईं। वे माकूल अवसर की प्रतीक्षा में थीं। आप ने इसी कारण उन्हें ‘अवसरवादी’ घोषित किया।
आप की दिल्ली विधानसभा में जीत एक निर्णायक भूमिका अदा करेगी। उसकी हार भी निर्णायक होगी क्योंकि प्राय: सभी राजनीतिक दल ढलान पर हैं। आप की जीत और हार से इस वर्ष के अंत में होने वाला बिहार विधानसभा का चुनाव सर्वाधिक प्रभावित होगा। उसके बाद पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के चुनाव भी। कांग्रेस निरंतर आंतरिक संकटों से जूझ रही है। जयंती नटराजन के पार्टी छोडऩे के बाद उत्तराखंड में विजय बहुगुणा का हरीश रावत से विरोध खुल कर सामने आ चुका है। एक ही पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री वर्तमान मुख्यमंत्री के खिलाफ ‘आक्रोश रैली’ की घोषणा कर चुके हैं। कांग्रेस आईसीयू में है। राष्ट्रीय दल के बाद मोदी की तीक्ष्ण दृष्टि क्षेत्रीय दलों पर है। मोदी के यहां विपक्ष और विरोधी स्व का दूर-दूर तक न कोई अर्थ है, न सम्मान। चुनावी लोकतंत्र को ‘आंशिक लोकतंत्र’ कहा गया है और ‘आंशिक लोकतंत्र’ में आस्था शासक वर्ग के लिए खतरनाक हो सकती है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के बाद नये सिरे से आंदोलन खड़े होंगे। दिल्ली की हार-जीत के दूरगामी अर्थ हैं।
लोकसभा में कोई विरोधी दल नहीं है। किसी भी राज्य में विरोधी दल की सरकार उनके अनुसार नहीं बननी चाहिए। क्या सचमुच राष्ट्र की चिंता अकेले मोदी, भाजपा और संघ परिवार को है। उनके विरोधी को राष्ट्रविरोधी कहना उचित है? यह एक झूठे लोकतंत्र में ही संभव है। सच्चा जनतंत्र जनसंगठनों की व्यापक बुनियाद पर कायम होता है। पूंजीवाद का मौजूदा विकास एक साथ जनविरोधी, आंदोलन विरोधी और प्रगति विरोधी है। विपक्षी दलों की सरकार भारतीय लोकतंत्र के हित में है। भारतीय गणतंत्र को ‘दमनकारी गणतंत्र’ में बदलना एक खतरनाक दौर की शुरुआत होगी। बहस का अस्वीकार लोकतंत्र का अस्वीकार है। बेदी बहस से भाग रही हैं। मोदी को ‘बहस’ (डिबेट) में नहीं, वितरण (डिलेवरी) में यकीन है। दिल्ली चुनाव में प्रधानमंत्री रैलियां कर रहे हैं। 31 जनवरी को ‘आप’ ने घोषणापत्र जारी किया। भाजपा के लिए अब ‘घोषणापत्र’ का महत्व नहीं, दृष्टि-पत्र (विजन-डॉक्यूमेंट) महत्वपूर्ण है। भाजपा सात दिनों में 250 रैलियां कर रही है। केजरीवाल ‘अभिमन्यु’ की तरह घेर लिये गये हैं। इस चुनाव का भारतीय राजनीति पर, क्षेत्रीय दलों पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। असहमति और विरोध के स्वर या तो उठेंगे नहीं, या कम कर दिये जायेंगे।
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