विपुल रेगे
सच है देश के कई पत्रकार करोड़ों की सम्पत्ति बटोर चुके हैं। छह-छह महीने तक देखते भी नहीं कि उनके खाते में चिड़िया की बीट (जिसे वेतन कहा जाता है) जमा हुई या नहीं। हाँ सच है कि पत्रकारिता भ्रष्ट हुई है। महंगाई ने उनके उसूल सस्ते बना दिए।
बढ़ते परिवार को चिड़िया की बीट से कैसे पाला जा सकता है। पुलिस और पत्रकार के भ्रष्ट होने का सबसे बड़ा कारण उसका चिंदी वेतन ही है। यदि वो पुलिसवाला चौराहे पर खड़े होकर वसूली न करे तो सिर्फ वेतन में तो उसके परिवार का गुजर होना असम्भव है। मैं टीवी चैनलों की बात नहीं कर रहा क्योंकि उनकी लाइफ स्टाइल हम अख़बारवालों से कहीं बेहतर है।
अब जरा ये भी जान लीजिये कि जमीन पर काम करने वाले पत्रकारों का सैलरी स्लेब कैसा है।
सुबह के अख़बार
फ्रेशर- 5000₹
अनुभवी- 10 से 12000
सीनियर-12 से 20,000
संपादक-(टेबल पर काम करने वाला, केबिन से बाहर न आने वाला)- 2 लाख रुपया प्रति माह
ये भी बताते चले कि संपादक के पद तक पहुँचने के लिए एक पत्रकार को कई साल अंतहीन सफर तय करना होता है। इस बीच उसे अपनी गुणवत्ता भी बनाये रखनी होगी और अपना परिवार भी पालना होगा वो भी पूरी इमानदारी के साथ। मैंने दोपहर के अख़बारों के वेतन के बारे में नहीं बताया है क्योंकि बताने लायक नहीं है।
ये चिड़िया की बीट पाने वाले को कभी रविवार की छुट्टी नहीं मिलती। दीवाली के दिन भी ऑफिस आना ही होता है। देर रात घर पहुंचकर बिना बच्चो से मिले सो जाना पड़ता है। दुनिया गलती कर दे लेकिन उससे कोई चूक नहीं होनी चाहिए।
अब जब भी आप पत्रकारों को गाली दें तो उन ईमानदार पत्रकारों को बख्श दीजिये जिनकी कहानी ऊपर सुनाई गई है।
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