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भोपाल:सरकारी आवासों की बंदरबांट, गैरसरकारी हैं ज्यादा काबिज ..?

खरी-खरी            Sep 23, 2015


sriprakash-dixitश्रीप्रकाश दीक्षित सरकारी मकान बनाए जाते हैं कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए पर दैनिक भास्कर की खबर बताती है कि ज़्यादातर मामलों मे शासकीय सेवक रिटायर हो जाता है पर उसे सरकारी मकान नसीब नहीं होता..! इसके पीछे सत्ताधीशों की नियम-कानून को दरकिनार कर अपनो को मकान रूपी रेवड़ियाँ बाँटने की प्रवत्ति ही जिम्मेदार है। विधायकों के लिए बाकायदा एक विधायक विश्राम बस्ती है जहां उनके लिए छोटे बड़े तीन सौ से अधिक फ्लेट बने हैं। अब हो यह रहा है कि बड़ी संख्या मे विधायकों ने बड़े सरकारी बंगले कबाड़ रखे हैं। यही नहीं सांसदों को भोपाल मे सरकारी आवास सुविधा देने की ना तो कोई तुक है और ना ही प्रावधान, पर उन्हे भी सरकारी बंगले मिले हुए हैं। ये सांसद, विधायक और मंत्री चुनाव हार जाने पर भी बेशर्मी के साथ इन बंगलों पर कब्जा जमाए रहते हैं जब तक जबर्दस्ती लतियाए नहीं जाते । सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री को भी बंगला देने का नियम बना दिया है। अब क्योंकि जो आज मुख्यमंत्री है वह कल भूतपूर्व तो होगा ही इसलिए इस नियम को खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता है..! इस नाते मोतीलाल वोरा को मिले बंगले मे कोई रहता नहीं है, बस मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं। इसके अलावा भी सामाजिक कार्यकर्ता जैसी श्रेणियां बना कर भी अपनो को सरकारी बंगलों का सुख दिलाया जा रहा है। सरकार पत्रकारों को भी सरकारी बंगला देती है। इसके जो नियम हैं उनमें से एक का भी सरकार ने पालन नहीं किया है। इसका खुलासा सूचना के अधिकार के तहत मुझे मिली जानकारी और पत्रकार कोटे के दुरुपयोग को लेकर मेरी जनहित याचिका पर सरकार के जवाब से हुआ है। सबसे ज्यादा धाँधली और मनमानी पत्रकार कोटे के बंगलों के आवंटन मे हो रही है। अखबार मालिकों और मीडिया ऑफिसों के नाम पर भी बंगले एलाट किए गए हैं जो बतौर गेस्ट हाउस ही इस्तेमाल हो रहे हैं। नेताओं और उनके लगुओं-भगुओं को पत्रकार बना कर भी इस कोटे की खूब बंदरबाँट की गई है। पत्रकारों का इस सरकार मे इतना खौफ है की, रिटायर हो चुके पत्रकारों को तो छोड़िए, जो परलोक सिधार गए उनके परिजनो से भी बंगले खाली नहीं कराए जा सके हैं। इस सरकार ने तो पत्रकार कोटे के बंगलों की संख्या 180 से बढ़ा कर 230 कर दी है..?


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