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मीडिया को प्रेस्टीट्यूट बनाने के लिए कौन जिम्मेदार है वीके साहब?

खरी-खरी            Sep 23, 2016


sanjay-singhसंजय कुमार सिंह। जनरल वीके सिंह ने मीडिया को प्रेसटीट्यूट कहा था तो लोगों को बहुत अच्छा लगा था और अब भी लोग इस विशेषण का उपयोग करते ही हैं। लेकिन अभी जो हालात हैं उसमें मीडिया काम कैसे करे और सूचना कैसे दे? इसपर कोई बोलने वाला नहीं है। मीडिया की अपनी मजबूरियां हैं। फिर भी, कहने की जरूरत नहीं है कि यह स्थिति सरकारी नालायकी के कारण है और मुश्किलों से निपटने का शुतुरमुर्गी तरीका है। जिसतरह वेस्यावृत्ति कोई शौक से नहीं करता उसी तरह संभव है कि मीडिया की भी मजबूरियां हों। उड़ी हमले के बाद एक वेब पत्रिका ने खबर चलाई कि भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई की है और उसके 20 सैनिक हेलीकॉप्टर से पाक अधिकृत कश्मीर गए और कई पाकिस्तानी सैनिकों को मार आए। हो सकता है कि सेना ने सरकार की अनुमति से या बगैर इजाजत ऐसी कार्रवाई की हो जिसे गुप्त रखने की योजना हो। पर जब यह खबर 'लीक' हो गई तो यह पहली चूक है और अगर गलत ही है तो सरकार को तुरंत खंडन क्यों नहीं कर देना चाहिए? चूंकि सरकार का खंडन मुझे नहीं दिखा इसलिए मैं यह मानकर चल रहा था कि खबर सही है और सरकार इसे गोपनीय रखना चाहती है। मीडिया को सच-झूठ की चिन्ता न हो तो आम आदमी कर भी क्या सकता है? खबर जिस तेजी से फैल रही है उस तेजी से खंडन फैलाने में क्या दिक्कत है? अचानक मुझे ख्याल आया कि अखबार में काम करते हुए हमलोग अपने संबंधित संवाददाता से कहते थे कि आधिकारिक बयान चाहिए। सब कुछ लगभग एक फोन कॉल की दूरी पर होता था। जब मोबाइल नहीं थे, तब भी। संवाददाता संबंधित अधिकारियों से बात करके बता देता था कि आधिकारिक बयान क्या है। यह भी कि खबर सही है या गलत या अधिकारी ने कहा है कि उसे कोट न किया जाए। कभी-कभी यह भी होता था कि अधिकारी सबकुछ बताने के बावजूद कहता था कि मेरी आपसे कोई बात नहीं हुई। खबर उसी हिसाब से छपती थी और लगभग सभी अखबारों में अक्सर एक सी छपती थी। शायद इसलिए कि तरीका एक था, खबर का खंडन या पुष्टि करने वाले या खबर देने वाले सिर्फ एक और निश्चित स्रोत होते थे। मुझे याद नहीं है कि पहले कभी ऐसा हुआ हो कि एक संस्थान अपनी खबर के समर्थन में ना कोई स्रोत बताये ना सबूत दे फिर भी उसे सही कहे। दूसरी ओर, कोई सरकारी बयान बगैर किसी अधिकारी के नाम के जारी हो और उसके उलट खबर भी चले। पाक अधिकृत पाकिस्तान में उड़ी हमले की जवाबी कार्रवाई के संबंध में इंडिया टुडे की एक खबर मिली जिससे पता चलता है कि इस सरकार के राज में पत्रकारों के लिए काम करना कितना मुश्किल है। प्रेसटीट्यूट तो कह दिया जाता है पर अधिकृत खबर प्राप्त करने का घोषित निश्चित स्रोत ना हो तो मीडिया में अटकलें ही चलेंगी। और अटकलें जाहिर हैं सबकी अलग होंगी। इंडिया टुडे की इस खबर में कहा गया है कि क्विंट अपनी खबर पर कायम है लेकिन सेना ने आधिकारिक तौर पर ऐसे किसी अभियान से इनकार किया है। सशस्त्र सेना ने भी इस खबर से इनकार किया है। इंडिया टुडे ने लिखा है कि उसके रिपोर्टर्स ने जब सरकार के उच्च पदस्थ अधिकारियों से संपर्क किया तो उन्होंने इस खबर को "उर्वर कल्पना की उड़ान" बताया। लेकिन वे रिकार्ड पर आने को तैयार नहीं हुए। सवाल उठता है - क्यो? अगर हमला नहीं हुआ है, गलत खबर चल रही है, आप जानते हैं कि खबर गलत है तो सामने आने में किसका डर है? क्यों है? क्या सेना और सरकार के प्रवक्ता घोषित नहीं हैं? नहीं हैं तो पत्रकार किससे संपर्क करे और हैं तो सरकार क्यों नहीं कहती कि अधिकृत प्रवक्ता से संपर्क करके वास्तविक स्थिति जान ली जा सकती है। और पत्रकार उनसे संपर्क किए बगैर अपुष्ट खबरें चलाते हैं। तकनीक के इस जमाने में यह सब बहुत आसान है और बहुत तेजी से दुनिया भर में फैल सकता है। फिर भी नहीं हो रहा है तो इसका मतलब यह क्यों नहीं लगाया जाए कि सरकार चाहती है कि स्थिति ऐसी ही बनी रहे। पीओके में जवाबी कार्रवाई की खबर अगर गलत है तो साफ-साफ खंडन क्यों नहीं किया जा रहा है और जब पहली बार खबर देने वाला कह रहा है कि उसकी खबर सही है तो दूसरे कैसे छोड़ दें और बगैर पुष्टि किए कैसे सही मान लें। जनरल वीके सिंह इसका जवाब नहीं देंगे लेकिन प्रेस को प्रेस्टीट्यूट बनाने के लिए कौन जिम्मेदार है? इस बारे में आपकी क्या राय है - यही बताइए। फेसबुक वॉल से।


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