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मोदी के ब्रांड अंबेसडर ने ही मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया !

खरी-खरी            Nov 25, 2015


punya-prasoon-vajpai पुण्य प्रसून बाजपेयी जनता,नेता,मंत्री दादरी के अखलाक को भूल गये लेकिन शाहरुख याद हैं। सरकारें सुनपेड में दो दलित बच्चों को जिन्दा जलाने की घटना को भी भूल गईं लेकिन आमिर खान पर सर फुट्टवल के लिये तैयार हैं। दादरी में अखलाक का परिवार अब क्या कर रहा है या फिर फरीदाबाद के सुनपेड गांव में उन दलित मां बाप की क्या हालत है जिनके दोनों बच्चे जिन्दा जला दिये गये, कोई नहीं जानता। लेकिन शाहरुख की अगली फिल्म दिलवाले है और आमिर खान की अगली फिल्म दंगल है। इसकी जानकारी हर उस शख्स को है, जो मीडिया और सोशल मीडिया पर सहिष्णुता और असहिष्णुता की जुबानी जंग लड़ रहे हैं। लेकिन यह लोग अखलाख और सुनपेड गांव के दर्द को नहीं जानते। तो देश का दर्द यही है। शाहरुख और आमिर खान अपने हुनर और तकनीक के आसरे बाजार में बदलते देश में जितना हर घंटे कमा लेते हैं उतनी कमाई साल भर में भी अखलाख के परिवार और सुनपेड गांव के जीतेन्द्र कुमार की नहीं है। कोई नहीं जानता कि अखलाक के परिवार का अपने ही गांव में जीना कितना मुहाल है और जीतेन्द्र कुमार को अब कोई सुरक्षा नहीं है, जिसके आसरे वह स्वतंत्र होकर जिन्दगी जीता नजर आये,लेकिन आमिर खान के घर के बाहर सुरक्षा पुख्ता है। यानी रईसों की जमात की प्रतिक्रिया पर क्या सड़क क्या संसद हर कोई प्रतिक्रिया देने को तैयार है लेकिन सामाजिक टकराव के दायरे में अगर देश में हर दिन एक हजार से ज्यादा परिवार अपने परिजनों को खो रहे हैं और नेता मंत्री तो दूर पुलिस थाने तक हरकत में नहीं आ रहे है तो सवाल सीधा है। सवाल है कि क्या सत्ता के लिये देश की वह जनशक्ति कोई मायने नहीं रखती जो चकाचौंध भारत से दूर दो जून की रोटी के लिये संघर्ष कर रही है? इसीलिये जो आवाज विरोध या समर्थन की उठ रही है वह उसी असहिष्णुता के सवाल को कहीं ज्यादा पैना बना रही है, जो गरीबों को रोटी नहीं दे सकती और रईसों को खुलापन। असल में आर्थिक सुधार और बाजार अर्थव्यवस्था के रास्ते चलने के बाद बीते 25 बरस का सच यही है कि पूंजी ने देश की सीमा मिटाई है। पूंजी ने अपनी दुनिया बनायी है मनमोहन सिंह से लेकर नरेन्द्र मोदी तक उन्हीं गलियों में भारत का विकास खोज रहे है जो चकाचौंध से सराबोर है। इसीलिये सत्ता की महत्ता हथेलियों पर देश को चलाते 8 हजार परिवारों पर जा टिकी है, जिनके पास देश का 78 फीसदी संसाधन है। देश की नीतियां सिर्फ 12 करोड़ उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर बनायी जा रही हैं। यानी देश में असहिष्णुता इस बात को लेकर नहीं है कि असमानता की लकीर मोटी होती जा रही है। कानून व्यवस्था सिर्फ ताकतवरों की सुरक्षा में खप रही है। किसान को राहत नहीं मिली। मजदूर के हाथ से रोजगार छिन गया। महंगाई ने जमाखोरों-कालाबारियों के पौ बारह कर दिये। यह सोचने की बात है कि अखलाक के परिवार की त्रासदी या सुनपेड में दलित का दर्द शाहरुख खान की आने वाली फिल्म दिलवाले या आमिर की फिल्म दंगल तले गुम हो चुकी होगी। तो मसला सिर्फ फिल्म का नहीं है सिस्टम और सरकारें भी कैसे किसी फिल्म की तर्ज पर काम करने लगी हैं महत्वपूर्ण यह भी है। aamir-khan-supports-pm-modis-swachh-bharat-abhiyan सरकारों के ब्रांड अंबेसडर कौन हैं और देश के आदर्श कौन हो जायेंगे? याद कीजिये मोदी प्रधानमंत्री बने तो पीएमओ हो या इंडियागेट दोनों जगहों पर आमिर खान को प्रधानमंत्री मोदी ने वक्त दिया, महत्ता दी। कभी कोई गरीब किसान मजदूर पीएमओ तक नहीं पहुंच पाता लेकिन आमिर खान के लिये पीएमओ का दरवाजा भी खुल जाता है और प्रधानमंत्री मोदी के पास मिलने का वक्त भी निकल आता है। लेकिन आमिर खान ने कुछ इस तरह से प्रधानमंत्री मोदी के दौर को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जो बीजेपी पचा नहीं पा रही है और मोदी सरकार निगल नहीं पा रही है। बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी और मोदी सरकार के मंत्री भी जिस तेजी से निकल कर आमिर खान को खारिज करने आये उतनी तेजी कभी किसी असहिष्णु होते नेता मंत्री के बयान पर नहीं दिखायी दी। ना ही अखलाक की हत्या पर कोई इतनी तेजी से जागा। तो क्या देश जुबानी जंग में जा उलझा है या फिर विकास की उस चकाचौंध में उलझा है जहां मान लिया गया है कि सत्ता के ब्रांड एंबेसडर रईस ही होते हैं? सत्ता रईसों के चोचलों से ही घबराती है। रईसों के साम्राज्य में कोई सत्ता सेंध नहीं लगा सकती । इसीलिये अर्से बाद संसद भी उसी तर्ज पर जाग रही है जिसमें असहिष्णुता के सवाल पर नोटिस देकर विपक्ष दो दिन बाद से शुरु हो रहे संसद के तत्कालीन सत्र में बहस चाहता है। यानी सवाल वही है कि असहिष्णुता के सामने अब हर सवाल छोटा है। चाहे वह महंगी होती दाल का हो या फिर आईएस के संकट का बढ़ती बेरोजगारी का है या फिर नेपाल में चीन की शिरकत का। यकीनन दिल किसी का नहीं मानेगा कि भारत में सत्ता बदलने के बाद सत्ता की असहिष्णुता इतनी बढ़ चुकी है कि देश में रहें कि ना रहें यह सवाल हर जहन में उठने लगा है। लेकिन जब देश के हालात को सच की जमीन पर परखें तो दिल यह जरुर मानेगा कि देश गरीब और रईसो में बंटा हुआ है। akhlak-daadri गरीब नागरिक वह है जो सत्ता के पैकेज पर निर्भर है और रईस नागरिक वह है जिसपर सरकार की साख जा टिकी है और उसी के लिये विकास का टंटा हर सत्ता चकाचौंध के साथ बनाने में व्यस्त है। इसलिये देश के हालात को लेकर जब देश का गरीब सत्ता से कोई सवाल करता है तो वह किसी के कान तक नहीं पहुंचता लेकिन जैसे ही चकाचौंध में खोया रईस सत्ता पर सवाल दागता है तो सरकार में बेचैनी बढ़ जाती है। ध्यान दें तो मोदी सरकार के ब्रांड अंबेसडर वही चेहरे बने जिनमें से अधिकतर की जिन्दगी में एक पांव देश में तो दूसरा पांव विदेश में ही रहता है। संयोग से आमिर खान को भी मोदी सरकार का ब्रांड अंबेसडर बनने का मौका भी मिला और इंडिया गेट पर प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के साथ आमिर खान की गुफ्तगु हर किसी ने देखी समझी भी। तो क्या मोदी सरकार का दिल इसीलिये नहीं मान रहा है जिन्हें अपना बनाया वही पराये हो गये? मगर आखिरी सवाल यही है कि रास्ता है किधर और हालात लगातार बिगड़ क्यों रहे है? क्या देश उन परिस्थितियो के लिये तैयार नहीं है जहां मीडिया बिजनेस बन कर देश को ही ललकारते हुये नजर आये और सोशल मीडिया कहीं ज्यादा प्रतिक्रियावादी हो चला है, जहां हर हाथ में खुद को राष्ट्रीय क्षितिज पर लाने का हथियार है और हर रास्ता चुनावी जीत-हार पर जा टिका है। जहां मान लिया जा रहा है कि जुनावी जीत सत्ता को संविधान से परे समूची ताकत दे देता है। यानी तीसरी दुनिया के भारत सरीखे देश को एक साथ दो जून की रोटी से भी जूझना है और चंद लोगों के खुलेपन की सोच से भी।


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