
डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
यह पत्रिका कोई हास्य-व्यंग्य की पत्रिका नहीं थी, बल्कि आदिवासी समाज की एक ऐसी पत्रिका थी,जो उनकी सादगी, पवित्रता और कोमल भाव को प्रकट करती थी.
मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के बामनिया में मामा बालेश्वर दयाल इस पत्रिका के संपादक रहे. उनके ही आश्रम से यह पत्रिका छपती थी.
यह पत्रिका आदिवासी क्षेत्र में जागरूकता फैलाने, समाज सुधार और स्वतंत्रता संग्राम के प्रचार के लिए निकाली जाती थी. ब्रिटिश काल में साधनहीन गांव बामनिया से खुद के छापाखाने में इसे छापा जाता था. उसे दौर में चुनौतियां ही चुनौतियां थी खास करके आदिवासी समुदाय के सामने.
आज मामा बालेश्वर दयाल की पुण्यतिथि है. 26 दिसंबर 1998 को उन्होंने देह त्यागी थी.
मामा जी के नाम पर राजस्थान के कुशलगढ़ में एक सरकारी कॉलेज है, और भील क्षेत्रों में कई मंदिरों में उनकी पूजा होती है. वे सादगी, त्याग और सेवा के प्रतीक थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन उपेक्षित आदिवासी समाज के लिए समर्पित कर दिया.
मामा बालेश्वर दयाल का पूरा नाम बालेश्वर दयाल दीक्षित था. वे स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी चिंतक, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता थे. उनका जन्म 10 मार्च 1905 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में उनका हुआ था.वे मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात के भील जनजाति क्षेत्रों में आदिवासियों के उत्थान के लिए कार्य करते रहे.
भील समुदाय उन्हें मामा पुकारता था और कई जगहों पर उन्हें देवता या भगवान की तरह पूजते हैं। उनकी समाधि पर हर साल 26 दिसंबर को उनकी पुण्यतिथि पर हजारों अनुयायी इकट्ठा होते हैं, और बामनिया में मेला लगता है.
मामाजी ने आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन के अधिकारों के लिए संघर्ष कराया. रियासती काल में बेगार प्रथा को समाप्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. नशाखोरी, शोषण और धर्मांतरण के खिलाफ अभियान चलाया.
1937 में उन्होंने बामनिया में भील सेवा आश्रम की स्थापना की, जहां वे जीवनभर आदिवासियों के बीच रहकर कार्य करते रहे.
वे आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहे, जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं के सहयोगी थे. 1977-1984 तक मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद रहे. जनता दल (यूनाइटेड) पार्टी के चुनाव चिह्न तीर का सुझाव भी उन्होंने दिया था, जो जनजाति के धनुष-बाण से प्रेरित था।
Comments