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याद-ए-अनुरागी: तथाकथित रहनुमा ही इंसान के असली दुश्मन हैं!

खरी-खरी, वीथिका            Sep 27, 2016


richa-anuragi-1ऋचा अनुरागी। हमारा वर्तमान एक भयानक दौर से रुबरु हो रहा है। जो हमारी बुनियाद को ही तबाह करने पर तुला है। यह पूरा जाल कुछ इस तरह बुना जा रहा है कि हमारी युवा पीढ़ी, हमारे किशोर उस सोचे समझे जाल में फसते चले जा रहे हैं। हमारी धर्मनिरपेक्षता पर चुपके से जैविक दीमक बम से वार किया गया है और वह धीमे जहर के माफिक हमारी सर्व-धर्म सद्भावना को चट करती जा रही है। बचपन में एक गीत रेडियो पर गणेश जी और दुर्गा जी की झाँकियों में यहाँ तक शादी-ब्याह के मौकों पर भी शान से लाउडस्पीकर पर बजा करता था—

तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा।

पर आज इंसान को छोड़ वह पहले जात बन जाता है। बस अब तो इस बात की ही कमी रह गई है कि बच्चों के जन्म से ही ऊपर वाला उनके सर पर उनकी जात और लिख कर भेजने लगे। सबके खून का रंग भी अलग-अलग कर दे। मुझे पापा की कविता याद आ रही है

इंसान बँट नहीं सकता

एक 'काले-आदमी' का दिल नये जादूगरों ने एक 'गौरे-आदमी'के बुझ-रहे तन को दिया है, सूखती-सी शिराओं में रक्त अर्पण को दिया है और पूरी सफलता के साथ उसकी धड़कनों ने घोषणा की है सुने रोडेशियम की बेशरम सरकार, जो इनसानियत के नाम पर धब्बा बनी है; और वे सब लोग, जिनके सिरों पर लुमुम्बा,लूथर, कनेडी या लिंकन के लहू इल्जाम हैं

टेक्सॉस के ओ खूनी चौराहे, सुन दुनिया के हर सुथरे ड्राइंग-रुम में लगी जॉन और बेबी की हसीन तस्वीरें और भी अधिक दिलकश-अन्दाज से मुस्करा रही है। और उनकी मुस्कराहट रोशनी बनकर क्षितीज पर छा रही है। उठो, तमाम दुनिया के साफ दिल और दिमाग वाले लोगो, उठो और मृत म्लाम्बो की बहिन जैनम को सान्त्वना दो; उसकी बिलखती हुई बूढ़ी माँ के अश्रु पोंछो; क्योंकि वे आँखें सिर्फ एक माँ की नहीं,- अनगिनती माँओ की है, और आज मानवता समूची संत्रस्त है!

आओ तमाम दुनिया के साफ दिल और दिमाग वाले लोगो, मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाओ। बुध्द और ईसा से गाँधी और लेनिन तक उभरती चली आई मानवीय समता और प्यार की लकीरों को आज लिखे जा रहे इतिहास के पन्नों पर आगामी कल के लिये दृढ़ता से आगे बढ़ाओ। और फिर प्यार को करोड़ मेगाटनी ताकत से घोषित करो- चमड़ी के रंगों और पूजा के ढंगों से इंसान बँट नहीं सकता! इंसान बँट नहीं सकता!

पापा सही कहते थे,कि दरअसल जात तो कुछ है ही नहीं यह तो खुरापाती दिमागी उपज है। वही गीत— मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया.....

और अब यह सब एक बीमारी बन गया है, हद तो यह है कि आज जब सरहद पर तनाव है, हमारे सैनिकों के शव आ रहे हैं तब भी हम इसे धर्म और जाती जैसे मसलों से जोड़कर देख रहे हैं। हमारे प्रधान मंत्री अपने भाषण में कह रहे हैं--मुस्लमानों को वोट की मंडी ना समझा जाये। आतंकी बाजार बना पाकिस्तान हम पर वार पर वार कर रहा है और हम सिर्फ बयानों-भाषणों में ही उलझे हैं। कभी मोदी तो कभी ओबेसी तो कहीं ठाकरे तो कहीं कोई और। सबके अपने-अपने मत हैं इस अहम मसले पर भी। जबकि होना चाहिए तो सिर्फ देश-वतन के हित की बात होनी चाहिए और इस मामले में न धर्म न जाति और ना ही कोई राजनीतिक दल। पापा अनुरागी जी के एक लेख में लिखी बातें आप सब से बंटना चाहूंगी— "बम तो बम होता है, बम की कोई जात नहीं होती। शैतान भी क्या कहीं हिन्दू या मुसलमान होता या हो सकता है? उसे कलाम ने जगाया हो या कादिर ने, शैतान तो बस, शैतान होता है और शैतानियत उसका धर्म या मजहब होता है। विनाश और विध्वंस ही उसका अकीदा होता है और वह फिर 'अग्नि' पर सवार हो या 'गोरी' पर, विध्वंस ही ढोता है और विनाश ही बोता है। पाकिस्तान द्वारा मचाया जा रहा 'इस्लामी बम' का हल्ला-गुल्ला एक ऐसी ही जहालत का नतीजा है, जो कयामत को नजदीक ला सकता है और मखलूक पर कहर बरपा सकता है। इसे तत्काल समझदारी के साथ रोकना निहायत जरुरी है,अन्यथा गजब हो जाएगा और फिर हमारे हाथों में कुछ नहीं रह पाएगा, सिवाय हाथ मलने और पश्चाताप करने के। उसका वैसे तब कोई मतलब भी नहीं होगा। जागी हुई कृत्या को भला कब-कौन रोक पाया है। ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिन पर अभी, तुरंत ही, रुककर विचार कर लेना निहायत जरुरी है, वरना 'अभी नहीं तो कभी नहीं' वाली स्थिति हमारे सामने है और दुनिया अब इतनी छोटी हो चुकी है कि इसे अपने खूनी पंजों में दबोचते शैतान को कोई देर नहीं लगेगी। संभावनाओं से भरी पृथ्वी आग की लपटों में पंख फड़फड़ा रही होगी। हम यह नहीं चाहते। कोई भी तो यह सब नहीं चाहता। फिर कौन हैं वे, जो यह सब विनाश चाहते हैं और इसके सरंजाम जुटा रहे हैं? इनकी ठीक तहकीकात जरुरी है और इसे फौरन ही अंजाम दिया जाना चाहिए। यह अवाम का अपना काम है। इसे नेताओं और कठमुल्लाओं पर नहीं छोड़ा जा सकता। इन्हीं की बदौलत तो हम आज इस भयानक स्थिति तक आ पहुँचे हैं और अपना सहज विवेक खो बैठे हैं जिसे चींटी जैसा छोटा प्राणी भी नहीं खोता। चीटिंयाँ और गौरैया चिड़ियाँ भी अपने अस्तित्व पर आ सकने वाले खतरे को तुरंत भाँप लेती हैं और सावधान हो जाती हैं। मनुष्य ही इस समूची सृष्टि में एक ऐसा आत्मघाती प्राणी है, जो अपना वजूद ही मिटा डालने पर आमादा है और उसे इसका कोई होश भी नहीं है। कलाम का बनाया एटम बम किसी राम को नहीं बख्शेगा और उधर कादिर की सुलगाई आग भोपाल के छोटे तालाब के पास मुंशी मदारुल की मस्जिद से लगे उस मकान को भी नहीं छोड़ेगी, जहाँ कादिर पैदा हुआ था। वह उस जहाँगीरिया स्कूल को भी धूल में मिला देगी, जहाँ कादिर ने अंकों और अक्षरों की पहचान हासिल की थी, जिसके बल पर कादिर विज्ञान के ऊँचे सोपान चढ़ सका। उसके बाल-सखा और शिक्षकगण, कोई भी तो नहीं बच सकेगा उस एटमी आग से, जिसे मियाँ नवाज शरीफ 'इस्लामी बम' कहकर 'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू'बने दुनिया में घूम रहे हैं और वैसे, यह सब जानते हैं कि पाकिस्तान का यह धूम-धड़ाम उधारी का है और इसके लिए उसे अपना जेहन जंगखोरों के पास रहन रखना पड़ा है, जिसका सूद उसकी पीढ़ियों को चुकाना पड़ेगा और एक जिंदा कौम तवारीख का तमाशा भर बनकर रह जाएगी। कलाम और कादिर मिलकर आइंस्टीन वाले आँसू अपनी आँखों से बहा रहे होंगे। मनुष्य की अनगिनत पीढ़ियों का श्रम और पुण्य क्षणमात्र में ही विलय हो जायेगा और यह प्रलय किसी आसमानी नियती के कारण नहीं, हमारी अपनी कुमति की वजह से होगा। हम स्वयं ही इसके कारण होंगे। हम हिन्दू भी और मुसलमान भी।

कौन अब इनसे कहे बारुद मत घर में भरो बाल-बच्चों सहित घर में और भी रहते हैं लोग असल बीमारी असल में छुपाते रहते हैं लोग और फिर ताउम्र उसको बेवजह सहते हैं लोग वही तो शैतान का पंलीटिकल एजेंट है यहाँ, इस बस्ती में जिसको रहनुमा कहते हैं लोग।

ये तथाकथित रहनुमा ही इंसान के असली दुश्मन हैं और इन्हीं ने यह खुशनुमा-खुशदीद दुनिया दोज़ख की आग में झोंक रखी है। हम सब दुनिया के आम जन युध्द कभी नहीं चाहते पर आतंक भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम भारत और पाकिस्तान के साफ दिलो-दिमाग वाले लोग उठे और विश्वमंच से घोषणा करें कि हमने अलग-अलग नहीं ,एक साथ यह सारे विस्फोट किये हैं और इनका मकसद उन नामुराद गिरोहबंद मुल्कों की साजिश को नाकाम करना है जो एटमी ताकत होने के जनून में बाकी दुनिया को अपना अस्तबल मान बैठे हैं । हम कह सकते हैं कि कबीर-,चौरा के आस-पास सोनू निगम और गुलाम नबी साथ-साथ गा सकते हैं,लाओत्सु और दलाईलामा को लेकर ज़ेन के आंगन में सहज संवाद गोष्ठियाँ आयोजित की जा सकती हैं। फिर क्या जरुरत है, बेकार में बारुद ढोने की। हमारे वे हाथ ,जो केशर की क्यारियाँ बो सकते हैं, बेमतलब बारुद लादे, सीमाओं पर गश्त लगा रहे हैं। देश-भर के सारे स्कूलों में जितना पैसों में कम्प्यूटर पहुँचाए जा सकते थे, उतने पैसों में हम एक पनडुब्बी खरीदते हैं और खुद की पीठ ठोंक रहे हैं। दुनिया को इंसान के रहने के काबिल बनाना ही होगा। यह हमारी अस्तित्वगत जवाबदारी है। हमें इसे पूरा करना.होगा और इसके लिए जिस सामुदायिक साहस की जरुरत है, वह पैदा करना होगा। ' आप सबको यह अनुरागी विचारों की नयी सोच सौपती हूँ इस आशा से कि हम सब जाग जायें और अपने अस्तित्व की रक्षा कर सके। इंसान को इंसान बनाने की पहल करें।


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