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याद-ए-अनुरागी: नभः स्पृशं दीप्तम्

खरी-खरी            Dec 15, 2016


richa-anuragiऋचा अनुरागी।

गीता के 11 वे अध्याय के 24वें श्लोक–

नभः स्पृशं दीप्तमनेकवर्ण,
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हित्वां प्रव्यथितान्तरात्मा,
घृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।

से ली गई एक लाईन को अपना सूत्र वाक्य बनाया हमारी नभ सेना यानी, भारतीय वायु सेना ने। वह वाक्य है– “नभः स्पृशं दीप्तम्”
मैं जब बहुत छोटी थी और पापा के परम् मित्र विंग कमांडर फाईटर विमान को कुशलता से चलाने वाले प्रभु श्रीवास्तव या अपने भाई वायुसेना में विंग कमांडर रविन्द्र जैन और उनके दोस्तों से मिलते तो उन्हें गले लगाते हुए “यही वाक्या–“नभः स्पृशं दीप्तम्” बोलते और वे भी इसका जबाव यही दोहराते हुए देते। तब मुझे अर्थ समझ नहीं आता और मैं सोचती यह भी कोई गुड मार्निग, शुभ प्रभातम्, प्रणाम या नमस्ते, जयहिन्द जैसा ही कुछ होता है।पर बड़े होने पर जब एक बार पापा से पूछा कि आप यह सबसे क्यों नहीं बोलते? तब पापा ने मुझे श्लोक को सुनाते हुए इसका अर्थ समझाया। —

गीता के अनुसार –अर्जुन श्रीकृष्ण के सार्वभौम रुप को देखना चाहते हैं और कृष्ण अर्जुन को अपना दिव्य रूप दिखलाते हैं।तब एक स्थान पर यह वर्णन आता है और अर्जुन कहते हैं–“तेरे इस आकाश को छूने वाले, अनेक रंगों में दमकते हुए, खूब अनोखा बड़ा मुख खोले हुए और बड़ी-बड़ी चमकीली आँखों वाले इस रूप को देखकर आन्तरिकतम आत्मा भय से कांप रही है और हे विष्णु(कृष्ण) मुझे न धीरज बंध रही है और न शान्ति मिल रही है। “यहाँ हमारी वायु सेना को कृष्ण स्वारूपा मानते हुए उसे कृष्ण के इसी आकाश को छूने वाला वो रूप माना है, जिसे देख दुश्मन की आत्मा तक भय व्याप्त हो जाता है। नभ में तेज दमकता हुआ यह भारतीय सेना का कृष्ण रूपी प्रतिबिम्ब ही तो है। पापा अपने दोस्त, भाई, बेटे स्वरूप आदित्य एवं इन सबके साथियों को कृष्ण ही मानते थे। जब कभी ये छुट्टियों में आते तो सबसे पहले भोपाल पापा के पास आते।

सबसे पहले में अपनी यादों के महकते गुलशन में विंग कमांडर, बमवर्षक विमानों, राकेटों के कुशल संचालक प्रभु श्रीवास्तव की खुशबू से आप सबको महकाना चाहती हूँ। पापा के स्कूल-कालेज के साथी और पापा से बेपनह मोहब्बत करने वाले प्रभु श्रीवास्तव ने अपने को भारतीय सेना को समर्पित कर दिया ।वे जब मात्र 32 साल के थे तब चीन युध्द की उस विवशता को जिया था जब हम युध्द को हार गये थे। उस समय चीन के 80 हजार सैनिक लड़ रहे थे और हमारे मात्र 12हजार सैनिक।वे अक्रोश में भर कहते थे–यार रज्जू, ये अमेरिका की चाल थी कि उसने हमारी वायु सेना को न लड़ने की सलाह दी, जबकि चीन की वायु सेना हमसे कमतर थी। हम हाथ बांधे तमाशा देख रहे थे। हमारे डेढ़ हजार सैनिक मारे गये थे।लगभग इतने ही सैनिक लापता थे और इतने ही घायल।हमारे चार हजार सैनिक तो चीन ने बंधक बना लिये थे। अगर हमें आदेश हो जाता तो हम उनकी ईट से ईट बजा देते। यह आँकडे मुझे आज भी मुंह जबानी याद इसलिए हैं कि मैं गिनने लगती, जब प्रभु चाचा बताते कि बारह हजार सैनिकों में से इतने शहीद, इतने घायल, इतने लापता और इतने बंदी बना लिए तो मैं हिसाब लागते हुए सुबकने लगती थी। वे बताते-हम उनके दस मारते तो पिछे पचास और निकल आते, ऐसा लगता था मानो जमीन से चींटे कतार में निकलते चले आ रहे हों। फिर पापा के कंधे पर धौल जमाते हुए कहते—मेरे कलम के सिपाही तूने भी तो मोर्चा संभाला होगा, जल्दी सुना क्या लिखा? पापा कहते प्यारे भाई मैं तो युध्द की घोषणा के साथ आकाशवाणी के माईक के साथ था और सुना रहा था-

नया भारत : नयी गीता

आज अपना देश सारा लाम पर है
जो जहाँ भी है, वतन के काम पर है।

हल लिए हैं हाथ भामाशाह मेरे
प्रतापों ने बर्फ पर साका किया है
लहू देने का महूरत आ गया है
दूध जिसने भी कि इस माँ का पिया है।
समर -सज्जा कस चुकी है कलम मेरे देश की अब
कौम का पौरुष कुदाली ले उठा है
और गौतम बुध्द का धीरज
छिछोरे दुश्मनों को
‘ बेशरम’ कह कर कि गाली दे उठा है।
कसम दे दी है मशीनों ने हमारे कारखानों को
कसम ज्यों द्रौपदी दे,
भीम-अर्जुन-से जवानों को।
तिरंगा हाथ में लेकर निकल आई है तरुणाई
वतन की चूड़ियों ने आज झाँसी की कसम खाई।
हिमालय को हथेली लगाए है वीर विन्ध्याचल
जिसे है सतपुड़ा का, पूर्व- पश्चिम घाट का सम्बल।
नर्मदा अब ब्रह्मापुत्रा को कुमुक पहुँचा रही है
नीलगिरी की गन्ध
लद्दाखी विपट से आ रही है।
थाम ली है भागड़ा की बाँह चम्बल ने
भुजाओं भर लिया है तवी का पानी तवा-जल ने।
भिलाई
देश की किरपानवाली भुजा को बल दे रही है
वतन के पाँव को मजबूत
फौलादी धरातल दे रही है।
उछल कर गोद से दुर्गापुरी के लाल आते हैं
हमारे चित्तरंजन के लिए सड़कें बनाते हैं।
खड़े हैं विश्व-भर में हमारे अपने
कमर कस कर खड़े हैं।
हमारे वसन्ती सपने कमर कस कर खड़े हैं।
हमारे बाग-बागीचे, हमारी फूल-फूलवारी
हमारे गुलबदन बच्चे, हमारी सीमतन नारी
सभी का एक ही स्वर है
सभी की एक ही मंजिल है।
करोड़ों हाथ वाले देश का
बस, एक ही दिल है।
कदम से कदम मिल रहे है
बद्रीनाथ से रामेश्वरम् के।
भुजा जगदीश की
अब द्वारिका के साथ उठ आई
हमारी मस्जिदें, गिरजे, शिवाले,
सब निकल आए
हमारे देश की जनता कि मैदाँ में निकल आई।
सुदर्शन चक्र सेवाग्राम की कुटिया उठाती है
नये युग की नयी गीता
भुवन में गूँज जाती है।
नये युग का नया पौरुष
नया गांडीव लेता है।
हटो, अब दुश्मनो! भारत
महाभारत विजेता है।

और वे सुनते ही पापा को बाहों में भर लेते। पापा की यह कविता इतनी प्रसिध्द हुई कि हर मंच से सुनाई जाती । पापा मंच पर हो तो उन्हें इसकी ही दो पंक्तियों से संबोधित कर बुलाया जाता और अगर मंच पर न हो तो भी कोई न कोई कवि इसे जरुर सुनाता। उनकी यह कविता आदरणीय शिवमंगल सिह जी ने हर मंच से सुनाई और इतनी बार सुनाई कि लोग इस कविता को उनकी ही मानने लगे। डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन की मृत्यु पर वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने एक श्रध्दांजलि लेख इंडिया टुडे में लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि सामान्य जनता में वे इन पंक्तियों के कारण याद रखें जाएंगे—

आज अपना देश सारा लाम पर है
जो जहाँ भी है वतन के काम पर है।

विष्णु खरे का प्रत्याख्यान करते हुए छायाकार नवल जायसवाल ने एक खत उक्त पत्रिका को लिखा कि इन पंक्तियों को सुमन जी मंचों पर दोहराते जरूर थे क्योंकि उन्हें वे बेहद पंसद थी लेकिन इसके लेखक सुमन जी नहीं श्री राजेंद्र अनुरागी हैं। इस पत्र को पत्रिका ने प्रमुखता के साथ विष्णु जी के खेद प्रकाश के साथ छापा था। श्री राम प्रकाश त्रिपाठी जी ने चर्चा के दौरान एक बार जिक्र भी किया था कि अनुरागी जी की इस कविता को सुमन जी ने नेहरू जी को भी सुनाया था और नेहरू जी ने सुमन जी के द्वारा अनुरागी जी को इस कविता के लिए बधाई प्रेषित की थी। इस कविता की दो पंक्तियाँ —

आज अपना देश सारा लाम पर है
जो जहाँ भी है वतन के काम पर है।

सन् 65 और सन् 71 के युध्द के समय नारा बन हर जबान पर थी। हर मंच से सुनाई जाती थी। मुझे याद है जुमराती बाजार, चौक बाजार,न्यू मार्केट, भाभा मेडिको पर तो सालों लगी देखी हैं। गाँव कस्बों में लाल रंग से बड़े-बड़े अक्षरों से दीवारों पर अंकित थी। पापा कहते थे अब यह दो पंक्तियाँ मेरी नही पूरे देश की हो गई हैं।

प्रभु चाचा हम सब बच्चों के रियल हीरो हुआ करते थे और पापा उनके। यादों के इस गुलशन में भटकना जाइज़ है ,इसलिए थोड़ा भटक गई पर मैं फिर बात रियल हीरो प्रभु श्रीवास्तव पर लाती हूँ —

वे हकीकत बयां करते और हमें लगता हम कोई कहानी सुन रहे हो। वे युध्द की बातें कुछ इस तरह बयां करते कि हमें लगता हम कहानी सुन रहे हैं। माँ जब बीच में आकर कहती भोजन तैयार है पहले भोजन कर लो, तब याद आता कि पेट में चूहे दौड़ रहे हैं। भोजन के दौरान भी किस्से-कहानियां शुरु रहती और मां बार-बार कहती – खाते समय बलना नहीं चाहिए वरना जीभ कट जायेगी। तीन साल बाद ही पाकिस्तान ने अपने हजारों सैनिकों की घुसपैठ भारतीय सीमा में करा कर युध्द की घोषणा कर दी। माँ बताती हैं- पापा रेडियो के सामने से नहीं हटते, पल-पल की जानकारी उन्हें मालूम होती वे बहुत चिन्तित रहते अक्सर रेडियो स्टेशन जा कर अपनी कविताओं से औज बरसाते। तीन हफ्तों तक भीषण युध्द हुआ, इस बार प्रभु चाचा के फाईटर विमान पूरे जोश के साथ बम बर्षा कर रहे थे और माँ- पापा को सबसे अधिक चिन्ता चाची की थी, दो छोटी बेटियां मधु और निनी उनके साथ थी और वे गर्भवती भी थी वे सुरक्षित स्थान तक नहीं पहुँच पाई थी और युध्द शुरु हो गया था और उनकी किसी तरह कोई समाचार नहीं मिल पा रहे थे।जब संयुक्त राष्ट्र के प्रायोजित युध्दविराम पर सहमत पर सहमत हो गए।युध्द विराम के बाद जब प्रभु चाचा अपने परिवार के साथ भोपाल आए तो उनके साथ नन्ही गुड़िया भी साथ थी ।  …….निरन्तर है ,आगे का अगले मंगलवार…



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