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लोकतंत्र विहीन दल

खरी-खरी            Mar 12, 2015


जितेन्द्र यादव राजनीतिक दलों के भीतर लोकतंत्र सिर्फ किताबों तक सीमित रह गया है। आप ने तो सिर्फ दो नेताओं को ही पीएसी से बाहर किया है जबकि पूर्व में बड़े राजनीतिक दलों में हालत यह रही है कि पार्टी नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने वाले को सिर्फ पद से ही नहीं बल्कि दल से ही बाहर कर दिया जाता है या ऐसे हालात बना दिए जाते हैं कि उस नेता को खुद ही बाहर का रास्ता नापना पड़ता है। हर पार्टी का अपना संविधान है और संविधान में सदस्य से लेकर अध्यक्ष तक के चुनाव और सर्वोच्च कमिटी के गठन की पूरी प्रक्रिया निर्धारित होती है। यही नहीं, पार्टी से अगर किसी को बाहर किया जाना है तो उसके लिए भी कायदे कानून हैं। ये दीगर है कि इन प्रक्रियाओं का पालन शायद ही कभी होता हो। कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियों में भी आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर चुनाव तो कराए जाते हैं लेकिन सर्वोच्च पदों पर होने वाली नियुक्तियां पूर्व में ही तय हो चुकी होती हैं। सर्वोच्च पद के लिए किसी एक ही व्यक्ति का नामांकन दाखिल होता है और उसे निर्विरोध चुन लिया जाता है। कांग्रेस में तो कई ऐसे मामले हैं, जब असहमति जताने वालों को पार्टी से ही अलविदा कह दिया गया। जब कांग्रेस की कमान पीवी नरसिंहराव के हाथ में थी, तबके धुरंधर अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी को हाशिए पर डाल दिया गया। सोनिया गांधी की एंट्री के दौरान सीताराम केसरी जैसे नेता को न सिर्फ अध्यक्ष पद से हटाया गया बल्कि उन्हें पार्टी से ही बाहर कर दिया गया। जब शरद पवार ने विदेशी मूल के मुद्दे को उठाया तो उन्हें भी बाहर जाने को मजबूर कर दिया गया। कहा जाता है कि पार्टी के फोरम पर असंतुष्ट नेताओं को अपनी बात रखनी चाहिए लेकिन जब उमा भारती ने पार्टी की बैठक में कुछ लोगों पर अपने खिलाफ खबरें छपवाने का आरोप लगाया तो उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया। हालांकि बाद में उन्हें पार्टी में शामिल कर लिया गया। जसवंत सिंह ने जब जिन्ना पर किताब लिखकर अपने विचार व्यक्त किए तो बीजेपी से उन्हें अलविदा कर दिया गया। राम जेठमलानी ने जब बेबाकी दिखाई तो उन्हें निलंबित कर दिया गया। संजय जोशी ने गुजरात सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए तो उन्हें भी नाराजगी झेलनी पड़ी। उन्हें यूपी की कमान सौंपी गई तो गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेन्द्र मोदी इतने खफा हुए कि उन्होंने पार्टी की कार्यकारिणी की बैठकों में आने से ही इनकार कर दिया। वे तभी इस बैठक में शामिल हुए, जब मुंबई अधिवेशन शुरू होने से ऐन पहले संजय जोशी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसी तरह जब गोविन्दाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी को मुखौटा कह दिया था तो उन्हें भी ऐसा साइड लाइन किया गया कि वे अब भी मुख्य लाइन से दूर ही हैं। संविधान के जानकारो का कहना है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं दिखता। सोसाइटी बनाने से लेकर कंपनी बनाने तक के मामले में कानून बने हुए हैं लेकिन पार्टियों के लिए ऐसा कानून नहीं है। उन्हें सिर्फ चुनाव आयोग के पास रजिस्टर होना और मान्यता लेना ही काफी होता है। कई देशों में ऐसे कानून हैं कि चुनाव लड़ने वाली पार्टियों के भीतर लोकतंत्र जरूरी है। चूंकि ऐसा कानून संसद ही बना सकती है इसलिए कोई दल इस मामले में जानबूझकर पहल नहीं करता।


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