राजेश सिरोठिया।
पिछले दिनों संसद के दोनों सदनों में जीएसटी बिल पास हो गया और आज मध्यप्रदेश में। मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार राजेश सिरोठिया का जीएसटी पर विश्लेषण बताता है इस बिल की हकीकत। वास्तव में ये फायदेमंद है किसके लिये और किस पर पड़ेगी इसकी दोहरी मार? यह विश्लेषण उन्होंने 10 मार्च 2016 को किया था, जब जीएसटी पर दिल्ली में नूराकुश्ती चल रही थी।
जीएसटी यानि गुड्स एंड सर्विस टेक्स को लेकर दिल्ली में मची आपाधापी के बीच गरीबों पर मंहगाई की मार, दरोगा राज और देश के छोटे और मझोले उद्योगों पर चौपट होने के खतरे बढ़ जाएंगे जो देश में बेरोजगारी की समस्या को घटाने के बजाए बढ़ा देंगे। राज्यों की वित्तीय आजादी पर अतिक्रमण करने वाले इस टेक्स से नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान के ईज आफ डूईंग बिजनेस का नारा भी सरकारी नियम प्रक्रियाओं के झंझावात में उलझ कर रह जाएगा।
इस टेक्स से सीधा लाभ किसी को होगा तो वो देश की कारपोरेट कंपनियों को होगा। गरीब से लेकर कारोबारी और छोटे उद्योगपतियों से लेकर आम आदमी पर इसकी मार पड़ेगी तो केंद्र और राज्य सरकार के खजाने को भी हर साल कोई सवा लाख करोड़ की चपत लगेगी। इस मुद्दे पर कांग्रेस का विरोध भी आम आदमी की चिंताओं के बजाय ऐसे अनावश्यक मुद्दों को लेकर है जिसका ध्यान उसकी सरकार ने खुद इस टेक्स की पैरवी करते वक्त नहीं रखा।
जिस जीएसटी को लेकर देश में लोगों को सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं दरअसल वह दो मुंहा है। एक तस्वीर वो जिसे पहले यूपीए ने उकेरने की कोशिश की और अब प्रकारांतर से एनडीए चमकाकर दिखाने की कोशिश कर रहा है और दूसरी तस्वीर वो है जिसकी यथार्थ के धरातल पर पनपने वाली कड़वाहट को छुपाने की कोशिशें जारी हैं।
जीएसटी को यह कहकर लाया जा रहा है कि इसके लागू होने के बाद लोगों को वैट, सर्विस टेक्स और एक्साईज टेक्स से निजात मिल जाएगी। लोगों को केंद्रीय और राज्य जीएसटी भर अदा करने होंगे। टेक्स का स्लैब पूरे देश में एक तरह का हो जाएगा। इससे सभी राज्यों में लोगों को बराबरी से कारोबार करने का मौका मिलेगा। 12 और 18 फीसदी के टेक्स स्लैब होंगे। इसमें सब कुछ समाहित होगा। यानि कारोबारियों को अब ज्यादा झंझटें नहीं होंगी और इस टेक्स के अलावा उसे सिर्फ आयकर ही देना होगा बशर्ते कि वह उसके स्लैब के दायरे में आता हो।
सतही तौर पर यह तस्वीर बेहद सुहानी लगती है,लेकिन जब इस टेक्स की मंशा के भीतर झांकने की कोशिश करें तो इस टेक्स के साथ भारत का चेहरा विद्रुपता भरा नजर आता है। इस प्रस्तावित टेक्स का सबसे बड़ा फायदा उन कारपोरेट घरानों को होगा जिन्हें अभी 27 से 28 फीसदी टेक्स अदा करना पड़ते हैं। वे 12 से 18 फीसदी वाले कर स्लैब में आ जाएंगे। यानि जीएसटी से सबसे ज्यादा और प्रकट रूप से फायदा किसी को होगा तो कारपोरेट कंपनियों को होगा। कारपोरेट घराने आटोमेटेड मशीनों पर ज्यादा निर्भर हैं। मानव संसाधन यानि बेकारी की किल्लत झेलते देश की रोजगार की समस्या का वो ज्यादा समाधान नहीं करते। कारपोरेट का मुनाफा बढ़ने से तो रोजगार के ज्यादा साधन विकसित होने के आसार नहीं दिखते। लेकिन इसकी सीधी मार देश भर में फैले उन छोटे और मझोले उद्योगों पर पड़ेगी जो रोजगार के ज्यादा साधन मुहैया कराते हैं। इसी के चलते राज्यों में उनको करों में राहत भी मिली हुई है।
जाहिर है कारपोरेट कंपनियों और इन छोटे उद्योगों के उत्पाद जब जीएसटी के बाद समान कर स्लैब के दायरे में आ जाएंगे तो फिर क्या होगा। बड़ी मछलियों से प्रतिस्पर्धा में नाकाम होकर इन छोटे मध्यम कारोबारियों का गला घुटना तय है। बात सिर्फ छोटे या मध्यम उद्योगों तक सीमित नहीं है। अभी देश में पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों को छोड़ दें तो कहीं भी अनाज पर टेक्स नहीं लगता। फल,सब्जी,दूध भी टेक्स के दायरे से बाहर हैं, लेकिन जीएसटी लगने के बाद पूरे देश में खाने—पीने की इन सभी चीजों पर टेक्स लग जाएगा। जाहिर है खाने पीने की चीजें मंहगी होंगी तो देश में त्राहि-त्राहि मच जाएगी।
जहां मोदी सरकार 'ईज आफ डूईंग "की बात कर रही है लेकिन यह कारपोरेट कंपनियों तक सीमित हो जाएगा। लेकिन छोटे कारोबारियों की मुसीबतें बढ़ जाएंगी। उन्हें राज्य जीएसटी और केंद्रीय जीएसटी अदा करना होगा। यानि दो-दो बार रिटर्न दाखिल करना होंगे। अभी विक्रय कर या वैट केवल राज्य वसूलते हैं, फिर केंद्र भी वसूलेगी। यानि दोहरे टेक्स की मार पड़ेगी। अभी व्यापारी राज्यों में सेल टेक्स अफसरों से जूझते हैं, इसके बाद सेंट्रल एक्साईज का दरोगा भी उसके दरवाजे पर आ धमकेगा। यानि दोहरा दरोगा राज कारोबारियों की मुसीबतें बढ़ा देगा। कुल मिलाकर देखें तो केंद्र सरकार जीएसटी के जरिए सेल टेक्स के मामले में राज्यों के अधिकार पर अतिक्रमण करने जा रही है।
गौरतलब है कि एनडीए सरकार ने जब सर्विस टेक्स का कानून संसद में पास कराया था तब उसने यह कहा था कि सर्विस टेक्स अंतत: राज्यों का टेक्स होगा। लेकिन बाद में यूपीए सरकार ने संविधान की अनदेखी करते हुए इस टेक्स की वसूली का अधिकार ना सिर्फ अपने पास बरकरार रखा, बल्कि सर्विस टेक्स का दायरा भी बढ़ाती गई। जबकि सही मायनों में देखा जाए तो सर्विस टेक्स के पहले राज्यों में मनोरंजन कर और विलासिता कर जैसे टेक्स पहले से ही लागू हैं जो एक तरह से सर्विस टेक्स ही है। लेकिन इन पर अलग से सर्विस टेक्स लगाकर दोहरा कर दिया जायेगा। जबकि सुप्रीम कोर्ट एक फैसले में पहले ही कह चुका है कि एक ही चीज के लिए दो-दो कर नहीं लिए जा सकते।
गौरतलब है कि संविधान की अनुसूची सात में केंद्र और राज्य सरकारों को कर लगाने के अधिकार स्पष्ट तौर पर परिभाषित किए गए हैं। इसमें लिस्ट 1 केंद्र और 2 राज्य सरकारों को कर लगाने का हक देती है। लिस्ट 2 की कंडिका 52 में एंट्री टेक्स,54 में वस्तुओं की राज्य के भीतर खरीद फरोख्त पर सेल टेक्स(वैट) और 55 में विज्ञापनों पर कर का हक राज्यों को दिया गया है। इसके अलावा कंडिका 62 राज्यों को मनोरंजन कर एवं क्लब और होटलों में विलासिता कर जुए , सट्टे इत्यादि पर कर का हक केवल और केवल राज्य सरकारों को था। लेकिन केंद्र सरकार ने राज्यों को संविधान में प्रदत्त करारोपण के अधिकार में घुसपैठ करते हुए सर्विस टेक्स के नाम पर दोहरा और अवैध करारोपण कर दिया।
प्रस्तावित जीएसटी के जरिए केंद्र वैट, सर्विस टेक्स और एक्साईज टेक्स को समाहित करके लोगों को राहत के सब्जबाग भले ही दिखा रही है लेकिन सही मायनों में देखें तो वह सर्विस टेक्स के बाद सेल टेक्स वसूली में राज्यों के हिस्से में अपनी भागीदारी का विस्तार कर रही है। अभी तक केंद्र सरकार को तौर पर बड़े मैन्युफेक्चरिंग उद्योगों से सेंट्रल एक्साइज का ही हक मिला हुआ था। लेकिन सबको एक करके वह राज्यों के करों के हिस्से पर भी अतिक्रमण करने जा रही है। जाहिर है कि इस टेक्स के बाद राज्यों की वित्तीय स्थिति वैसी ही हो जाएगी जैसी कि राज्यों की सरकार के सामने नगरीय निकायों की होती है।
एनडीए ने जो जीएसटी बिल संसद में रखा है उसमें उसने जीएसटी के अलावा एक फीसदी सीएसटी(केंद्रीय विक्रय कर) का प्रावधान भी रखा है। मैन्युफेक्चरिंग स्टेट यह वसूली राज्य अपने पास रखेगा। इसके गुजरात , महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे बड़े मैन्युफेक्चरिंग राज्य अपने नुकसान की भरपाई कल लेगा। लेकिन बाकी राज्यों का क्या होगा? जाहिर है कि ये राज्य पिछड़ेंगे। जाहिर है कि कुछ राज्यों के लिए जीएसटी की अवधारणा के विपरीत फायदा पहुंचाया जाएगा।
किसी भी देश की अर्थ व्यवस्था में अपरोक्ष कर (वैट इत्यादि)को अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि जहां सीधे करों (आयकर आदि) का भार केवल अमीरों पर ही पड़ता है। वहीं अपरोक्ष करों का भार गरीब और अमीर दोनों को बराबर देना पड़ता है। भारत में विलासिता के सामानों पर यह अभी 29 फीसदी तक है। साढ़े 15 राज्यों द्वारा वसूला जाता है। 13-14 फीसदी केंद्र पहले ही वसूल लेती है। जीएसटी लगने के बाद केंद्र सरकार की दलील है कि 18 फीसदी के दायरे में आने से सभी को फायदा होगा। लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या कारपोरेट कंपनी यह लाभ आम लोगों को देंगी या नहीं? पर यह तय है कि इससे होने वाली सवा लाख करोड़ के नुकसान की भरपाई सरकार खाने पीने और कपड़ों की जो चीजें टेक्स फ्री हैं, उन पर लगाकर वसूलेगी। जाहिर है कि बड़ी कंपनियों के फायदे के नुकसान की भरपाई गरीबों की जेब से की जाएगी।
मप्र का माडल ज्यादा बेहतर
इससे बेहतर तो जीएसटी का मप्र सरकार का मॉडल था। इसके तहत राज्य सरकार अपने करों को समाहित करके स्टेट जीएसटी वसूल ले और केंद्र सरकार अपने एक्साईज और सेंट्रल सर्विस टेक्स को समाहित करके केंद्रीय जीएसटी वसूले। राज्य सरकारें अपने राज्य में दी जाने वाली सेवाओं पर सर्विस टेक्स मनोरंजन कर,विलासिता कर को जोड़कर टेक्स वसूले और केंद्र एक्साईज और सेंट्रल सेल टेक्स के साथ केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली सेवाओं रेलवे,हवाई सेवाओं आदि पर सर्विस टेक्स को अपने जीएसटी में समाहित कर ले। इससे राज्यों के हकों पर अतिक्रमण नहीं होगा और केंद्र भी अपने हिस्से के वाजिब कर की वसूली करके अपना खजाना भर ले। हालांकि यूपीए सरकार के समक्ष पेश किए गए इस माडल को मप्र सरकार पहले तो जोर दे रही थी, लेकिन अब केंद्र में अपनी ही पार्टी की सरकार होने के कारण मप्र सरकार ने इस पर चुप्पी साध ली है।
जीएसटी पर भ्रमित कांग्रेस
जीएसटी को लेकर सबसे ज्यादा भ्रमित कोई पार्टी है तो वह कांग्रेस है। कारपोरेट घरानों के दवाब में उसी ने जीएसटी की पहल की। लेकिन खास की सहूलियतों पर केंद्रित जीएसटी के आम अवाम पर पड़ने वाले असर की ना तो उसने सत्ता में रहते चिंता की और ना वह विपक्षी दल के रूप में जीएसटी की विभीषिका का आकलन कर पा रही है। जीएसटी के विरोध में कांग्रेस की दलील भी अजूबी हैं। वह चाहती है कि जीएसटी की अधिकतम कर दर 18 फीसदी को घटाने या बढ़ाने का प्रावधान संविधान संशोधन के जरिए ही हो। यानि कोई भी सरकार आसानी से यह नहीं कर सके। लेकिन कांग्रेस यह नहीं समझ पा रही है कि 18 फीसदी कर ही आम लोगों के लिए जानलेवा साबित होने वाला है और वह जान जान के बाद की चिंता में डूबी है। विरोध के नाम पर विरोध का उसका यह तौर-तरीका समझ से परे है।
जबकि कांग्रेस के जीएसटी बिल के मसौदे में खुद यह बिंदु शामिल नहीं था। जीएसटी पास कराने के लिए कांग्रेस की दूसरी शर्त यह थी कि जीएसटी काऊंसिल में दो तिहाई की जगह राज्यों की नुमाइंदगी तीन चौथाई की जाए। कांग्रेस ने खुद भी यह प्रावधान नहीं रखा था लेकिन अपनी अहमियत जताने के लिए उसने यह मुद्दा उठाया भी और बाद में मान भी गई। कांग्रेस के जीएसटी में एक फीसदी सीएसटी का प्रावध नहीं रखा था। मोदी के जीएसटी में यही भर जोड़ा गया था क्योंकि मैन्युफेक्चरिंग स्टेट को भारी नुकसान हो रहा था। लेकिन कांग्रेस और कारपोरेट घरानों के दबाव में यह प्रावधान भी वापस लिया जा चुका है।
लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।
Comments