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संसदीय तमाशा! ये ‘पब्लिक’ है ये सब जानती है...!

खरी-खरी            Aug 03, 2015


rituparna-dave ऋतुपर्ण दवे कहीं हम अनजाने में ही एकाधिकारवादी शासन की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं ? तभी लगता है कि हंगामा क्यों ? यकीनन सवाल हर आम भारतीय के मन में उठता तो होगा, इस पर बहस न हो ये अलग बात है। कांग्रेस ने संसद सत्र के पहले जो कहा था कर दिखाया, लगभग आधा सत्र हंगामें की भेट चढ़ गया, स्थिति यही रही तो पूरा भी चढ़ जाए तो भी हैरानी नहीं होगी। नया कुछ नहीं है, पहले भी होता था, कब तक होगा यही सोचना है। तटस्थ होकर चिन्तन करें तो कोई खास अलग नहीं दिखती यूपीए और एनडीए सरकारों की संसदीय तस्वीरें। चिन्ता बस इतनी कि क्या लोकतंत्र की सेहत या फिर उन करोड़ों मतदाताओं में सुकून होगा जिन्होंने बहुत ही उम्मीदों के साथ बदलाव का आगाज किया था और नरेन्द्र मोदी सह भाजपा के हाथों कमान सौंपी थी ? जहां लोकतंत्र अपने ही मंदिर में झुलस रहा है वहीं इसके पुजारी और भक्त अपने स्वार्थों का प्रसाद बना रहे हैं। बहुत ही दुखद है, खेदपूर्ण है और चिन्ताजनक है संसद की मौजूदा दशा और दिशा का निदान भी कुछ दिखता नहीं। सभी जगह अड़ियल रवैया, बातचीत को कोई तैयार नहीं। संसद में गतिरोध से जनता के खून और पसीने की गाढ़ी कमाई भी चुक रही है। हर मिनट संसद की कार्यवाही पर ढ़ाई लाख रुपए जो खर्च होते हैं। बोझ तो आखिर वही आवाम भुगतेगी जिसके अन्नदाता को भी इन्हीं माननीयों ने नहीं बख्शा और बेतुकी फब्तियां कसने से गुरेज़ तक नहीं की। कोई किसान की आत्महत्या को आशिकी बताता है तो कोई बीमारी, मादक पदार्थों की लत, बेरोजगारी, संपत्ति विवाद, दिवालियापन यहां तक कि बांझपन, नपुंसकता, दहेज प्रता़ड़ना कह चुका है। संसद में गतिरोध नया नहीं है। साल 2005 में यूपीए सरकार के तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह का ईराकी तेल बिक्री से फायदा लेने वालों की सूची में नाम क्या आया, सुषमा स्वराज ने कहा था कि बिना उनके पद छोड़े जांच कैसे हो पाएगी ? आईपीएल फ्रेन्चाइजी विवाद में शशि थरूर को पद से हाथ धोना पड़ा था। ए राजा और कनिमोझी का मामला भी सबके सामने है। इस विवाद पर मचे बवाल में भी संसद 23 दिन तक बाधित रही और जनता के 146 करोड़ रुपयों का खून बिना कार्यवाही हुए हो गया था। कोल ब्लॉक आवंटन प्रकरण में भी कमोवेश वही स्थिति तब बनती दिखी थी। विपक्ष की तबकी नेता सुषमा स्वराज ने तब भी सरकार पर जोरदार हमला किया था और गतिरोध इस कदर बना रहा कि साल 2012 में 20 दिन के मानसून सत्र में 13 दिन कार्यवाही बाधित रही। लोकसभा में 1950 के दशक में साल भर में जहां औसतन 127 दिन काम होता था वहीं घटकर अब 70 दिन तक चला गया। सन् 2001 में पीठासीन पदाधिकारियों, मुख्यमंत्रियों, संसदीय मामलों के मंत्रियों और राजनैतिक दलों के नेताओं व सचेतकों के अखिल भारतीय सम्मेलन में हर वर्ष संसद की कम से कम 110 बैठकें सुनिश्चित करने का आव्हान किया गया था, उसका भी कोई असर न पहले हुआ न अब दिखा। आरोप प्रत्यारोपों के बीच यह जुमला भी ठीक नहीं कि तब भाजपा ऐसा करती थी तो कैसा था ? इसका मतलब यह नहीं कि सबका मकसद यही हो। हां मुद्दों पर बहस होनी चाहिए, निर्णय होने चाहिए, कानून बनने चाहिए लेकिन देश में लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर जिसका सीधा प्रसारण होता है, वो नहीं दिखना चाहिए जिसको देखकर देश का विद्यार्थी ऐसे लोकतांत्रिक क्रियाकलापों की दीक्षा ले ? अगर 11 राज्यों के 111 सांसद यह कहते हैं कि काम नहीं तो वेतन नहीं का फॉर्मूला यहां भी लागू हो तो क्या बुरा ? लेकिन इससे संदेश जरूर उलट जाता है कि क्या सांसद पगार की खातिर संसद जाते हैं ? तो क्या देश सेवा, लोकसेवा, जनसेवा महज दिखावा है, छलावा है ? कुछ भी हो हंगामों की भेंट चढ़ते संसद के सत्र न पहले कभी अच्छे लगते थे, न अब लगते हैं और न आगे लगेंगे। ऐसे में आखिरी सवाल बस इतना क्या नैतिकता के नाम पर हम भले या वो भले की बात या फिर जग भले की वो बात हो जो सच में भली है ? सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह व्यक्ति हैं, संस्था नहीं चूक अनजाने हुई या जानबूझकर ये बाद का विषय है, अव्वल राजधर्म प्रथम है। 21 वीं सदी के इस युग में जब तकनीकी क्रान्ति कहीं-कहीं नहीं बल्कि हर हाथ में मयस्सर है और यही अच्छे बुरे का पल-पल भान भी कराती है, ज्ञान भी देती है, हमारे माननीयों को भी सोचना होगा कि वो, वो करें जो करना है वरना ये पब्लिक है ये सब जानती है....!


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