श्रीप्रकाश दीक्षित
इस गरीब मुल्क मे सत्ता पर सवार होते ही नेताजी ऐसी निर्ममता से सरकारी खजाना उड़ाते हैं मानो उनके बाप का पैसा हो। इसकी जीती जागती मिसाल है सरकारी विज्ञापनों पर बढ़ता खर्च। ज़्यादातर सरकारी विज्ञापन प्रदेशों मे मुख्यमंत्री और केंद्र मे प्रधानमंत्री अथवा सोनिया गांधी जैसी कद्दावर नेता की छबि चमकाने के लिए बांटे जाते हैं। सत्ता दुरुपयोग के अन्य मामलों की ही तरह विज्ञापनबाजी मे भी कांग्रेस और बीजेपी का नजरिया एक सा ही है। सुप्रीमकोर्ट ने इन विज्ञापनों मे मंत्री-संतरी के फोटो पर रोक लगाकर दंभी सत्ताधीशों को सबक सिखाया है।
मनमोहनसिंह के दस साल के शासन को याद करें। तब सोनिया गांधी प्रधानमंत्री से ज्यादा ताकतवर थीं। इसलिए पंडित नेहरू, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी के जन्मदिन और पुण्यतिथि पर हर साल भारत सरकार के मंत्रालयों द्वारा अपने स्तर पर धड़ल्ले से बड़े-बड़े विज्ञापन जारी किए गए। यद्द्पि भारत सरकार मे विज्ञापन जारी करने के लिए केवल केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय की संस्था डीएवीपी ही अधिक्रत है,कोई मंत्रालय अपने स्तर पर इसे जारी नहीं कर सकता।इस भेड़चाल से खजाने को तो चपत लगती थी पर मीडिया की मौज थी क्योंकि उसे एक ही विषय के दो विज्ञापन मिल जाते थे। इस विज्ञापनबाजी मे आप दिल्ली की तत्कालीन शीला सरकार और अन्य काँग्रेसशासित सरकारों को भी शामिल कर लें।
ऐसे विज्ञापनों मे भले मनमोहनसिंह का फोटो न हो पर सोनिया गांधी का फोटो जरूर होता था। मकसद मंत्री का सोनिया दरबार मे अपने नंबर बढ़वाना और नेहरू-गांधी खानदान के प्रति वफादारी और स्वामिभक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन करना होता था। इधर मोदी सरकार आने के बाद ऐसे विज्ञापनों की भरमार है। रोज ही पूरे पेज के विज्ञापन छप रहे हैं। अपने एमपी मे भी शिवराजजी के फोटो वाले विज्ञापनो की बहार है। यहाँ तक की नेपाल मे मारे गए पीडि़तों के लिए आयोजित मौन के विज्ञापन मे भी उनका चेहरा मौजूद है। बेहतर होता किसी पीडि़त का फोटो लगाया जाता जो उपयुक्त होता,प्रासंगिक होता और प्रभावी भी होता ।
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