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समाज वहशीपन,संवेदनहीनता के इंजेक्शन से मरता है और बहस हत्यारे के काम आती है

खरी-खरी            Oct 05, 2015


vasutullah-khanवसुतुल्लाह खान जस्टिस मार्कंडेय काटजू बनारस यूनिवर्सिटी में दिन दहाड़े यह कह सकते हैं कि मैं अगर बीफ़ खाऊं तो कौन रोकेगा मुझे,क्योंकि जस्टिस काटजू बिसहड़ा गांव के अख़लाक़ अहमद नहीं। शोभा डे धड़ल्ले से बोल सकती हैं कि मैंने अभी-अभी बीफ़ खाया है, आओ मुझे मार डालो क्योंकि शोभा डे अख़लाक़ अहमद की मां असगरी नहीं हैं। लालू यादव सवाल कर सकते हैं कि बीफ़ और बाकी गोश्त में क्या फ़र्क़ है,क्योंकि लालू एहसान जाफ़री नहीं। जैसे पाकिस्तान में किसी को भी मारने के लिए मस्जिद के लाउडस्पीकर पर एलान कर के भीड़ इकट्ठी हो सकती है कि फ़लाने ने क़ुरान का अपमान किया। उसी तरह भारत में भी किसी भी मंदिर से एलान-ए-जंग हो सकता है कि फलाने मोहम्मद सलीम ने गाय के बछड़े की खाल कचरे में फेंकी है या फलाने फर्नांडीस ने फलाने जीवनराम की लड़की छेड़ दी। जैसे पाकिस्तान में किसी हिंदू को भारतीय जासूस या किसी ईसाई को अंग्रेज़ की औलाद कहना सब एक हल्का-फुल्का मजाक समझते हैं। उसी तरह भारत में किसी मुसलमान को पाकिस्तानी या देशद्रोही कहना या अहमदाबाद के मोहल्ला बटावा को पुलिस रिकॉर्ड में बंटा हुआ पाकिस्तान और थाणा ज़िले के मोहल्ले निलास पाड़ा को डाक कर्मचारी की तरफ़ से छोटा पाकिस्तान कहना और लिखना भी सबको कबूल है। जब हम दूसरे धर्म मानने वालों से सिर्फ़ इसलिए संपर्क ना रखें कि कहीं बाकी लोग बुरा न मान जाएं तो उसके बाद हमारा मन और दिमाग उन्हीं बाकी लोगों का गुलाम बनता चला जाता है और हमें पता भी नहीं चलता कि हमारी आत्मा और नजर का रिमोट कंट्रोल किसके हाथ में चला गया? मेरे दोस्त गुजरात के एक पत्रकार राजीव खन्ना बताते हैं कि एक दिन जब वो पुराने अहमदाबाद में खजूर ख़रीदने जा रहे थे तो उनके साथ चलने वाला एक अंग्रेज़ पत्रकार हैरानी से पूछने लगा, राजीव भाई आप भी खजूर खाते हैं, मैं तो समझता था कि खजूर बस मुसलमान खाते हैं? किसी के कहने पर किसी की जान लेने का काम तब शुरू होता है जब किसी के मुंह पर पहला चांटा पड़े और आसपास के लोग इस व्यक्ति की हिमायत इसलिए ना करें क्योंकि उसकी नस्ल, धर्म और संस्कृति अलग है। चूंकि इस बुनियाद पर पहली बार थप्पड़ मारने का हौसला और बढ़ जाता है, फिर यह हौसला बढ़ते-बढ़ते अगली वारदात में दो चांटों और फिर एक चाक़ू और फिर एक पिस्तौल और फिर भीड़ के हमले और फिर पूरी बस्ती फूंक देने में बदल जाता है। हम खुद को यही कहते रह जाते हैं कि इतने बड़े देश में अब किस-किस घटना पर रोएं? यही छोटी-छोटी बातें समाज की माला में पिरोती-पिराती इतना बड़ा हार बन जाती हैं जिससे पूरे समाज को फांसी दी जा सकती है। जिसके हाथ में यह रस्सा है, अगर वो इससे हम सबको फांसी ना दे तो यह हमारी कोई अच्छाई नहीं, उसकी मेहरबानी है। एक साफ बात बस यह है कि कोई भी समाज बीफ या सूअर खाने से नहीं, वहशीपन या संवेदनहीनता के इंजेक्शन से मरता है। खुद की तसल्ली के लिए कारण कोई भी गढ़ लें कारण की बहस अक्सर हत्यारे के काम आती है। मरने वाले को क्या कि वो क्यों मरा? बीबीसी हिंदी से साभार


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