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सरकार से जुड़े सवालों का समन्वय संघ में भी है

खरी-खरी            Sep 07, 2015


ravish-kumar-ndtv रवीश कुमार सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन कहते—कहते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ख़ुद को अब नागरिक (सिविल सोसायटी) संगठन भी कहने लगा है। इसी आधार पर राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करते करते राजनीतिक भी होने लगा है। संघ भले खुद को सामाजिक सांस्कृतिक कहता रहे लेकिन इन कामों में राजनीति नहीं है माना नहीं जा सकता। संघ के कई बयान सामाजिक दायरे के नाम पर सीधे सीधे राजनीतिक ही होते हैं। एलान ही होना बाकी है कि संघ एक राजनीतिक संगठन भी है लेकिन संघ की तरफ से इस एलान से पहले क्या आपको नहीं दिखता है कि वो एक राजनीतिक संगठन है। कई बार लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने होने की परिभाषा को लेकर दबाव में रहता है। संघ की आलोचना होती है पहला जवाब उसके होने की परिभाषा से आता है कि वो क्या है। क्या क्या है। अगर संघ अपने होने की कई परिभाषाओं में राजनीतिक संगठन भी जोड़ ले तो यह दबाव समाप्त हो सकता है। कम से कम संघ अब यह कह सकता है कि वो चुनाव जीताने की एक मज़बूत संस्था है या उसकी संस्था का इस्तेमाल चुनाव जिताने के काम में होता है। वो कहे न कहे लेकिन अगर यह किसी को नहीं दिखता वो ज़्यादा आश्चर्य की बात है। संघ के कार्यकर्ता अपना घर बार छोड़ बीजेपी के लिए महीनों दूसरे राज्यों में गांव गांव की खाक छानते हैं। कम से कम उनकी इस मेहनत का श्रेय तो मिलना ही चाहिए। आलोचकों की तरफ से भी मिलनी चाहिए लेकिन उससे पहले संघ को खुद चुनाव जीताने वाले इन स्वयंसेवकों को सार्वजनिक सम्मान के ज़रिये श्रेय देना चाहिए। दुनिया में किसी भी पार्टी के पास चुनाव प्रबंधन का ऐसा ढांचा नहीं है। आज कल हर पार्टी या पार्टी के भीतर हर नेता चुनावी प्रबंधन की एजेंसिया किराये पर लेती हैं। खूब पैसे देती हैं। संघ का अदना सा स्वयंसेवक बिना किसी पारिश्रमिक के गांव गांव में बीजेपी के लिए प्रचार करने लगता है। आम तौर पर हम यह समझते हैं कि स्वयंसेवक यह काम सिर्फ बीजेपी के लिए करते हैं। ज़ाहिर है वे कांग्रेस के लिए क्यों करेंगे। लेकिन संघ के स्वयंसेवक बीजेपी के सहयोगी दलों या उनके अच्छे ख़राब उम्मीदवारों के लिए नहीं करते होंगे, ये मैं दावे से नहीं कह सकता। मान कर चल रहा हूं कि स्वयंसेवक बिहार में ही रामविलास पासवान पप्पू यादव के उम्मीदवारों के लिए भी पसीना बहायेंगे। मान कर चला जा सकता है कि चिराग पासवान संघ के स्वयंसेवकों की मदद लेने से नहीं हिचकेंगे। तो क्या चुनावी राजनीति का प्रबंधन करते करते संघ का चरित्र नहीं बदल रहा होगा? यह सवाल क्यों महत्वपूर्ण है। संघ तो यह काम कई चुनावों से कर रहा है। संघ खुद को देशभक्त संगठन कहता है। क्या उससे यह सवाल पूछा जाए कि बीजेपी के लिए प्रचार करते वक्त वह उन उम्मीदवारों का भी समर्थन करता है जिन पर कई तरह के आरोप लगे होते हैं। लोकसभा चुनावों में प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने बार बार कहा था कि एक साल के भीतर ऐसे आपराधिक मामलों वाले सांसदों के मुकदमों को निपटा देंगे। चाहें इसके लिए खतरा उन्हीं पर क्यों न आ जाए। ज़रूर ऐसे उम्मीदवार राजनीतिक बुराई हैं तभी तो नरेंद्र मोदी ने ऐसा वादा किया। क्या संघ इन राजनीतिक बुराइयों के लिए भी प्रचार करता है? करता रहा है ? साफ दिख रहा है कि आर एस एस चुनाव प्रबंधन के बहाने चुनावी राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेने लगा है। आज संघ कह दे कि यह हमारा काम नहीं है तो बीजेपी की ही सांस फूल जाएगी। जीता हुआ चुनाव बीजेपी हार जाएगी। सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाला संगठन चुनावी प्रचार और प्रबंधन का काम क्यों कर रहा है? क्या इस तरह की छूट बाकी नागरिक संगठनों को भी है ? हमने तो अखबारों में यही पढ़ा था कि स्वयंसेवी संगठनों को साफ करना होगा कि वे राजनीतिक आंदोलन या गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे। जो भी है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ये काम कभी छिपा कर नहीं किया है। जब आर एस एस की भूमिका बीजेपी को चुनाव जीताने में हो सकती है तो जीतने के बाद काम का हिसाब मांगने में क्यों न हो। क्या संघ अपनी तरफ से सरकार और संघ के फर्क को कम नहीं कर रहा है। यह तो अच्छा है कि सार्वजनिक रूप से यह सब किया जा रहा है। संघ भी अब सरकार की जवाबदेही लेगा। मशहूर पत्रकार वेद प्रताप वैदिक ने लिखा है कि सरकार के भय से मीडिया जनता की आवाज़ उठाने से बचने लगा है तो संघ ने दो टूक शब्दों में जनता की भावना बताकर क्या गलत किया। वैसे मीडिया में सरकार की पर्याप्त आलोचना होती है। यह नज़रिया भी सही नहीं है कि मीडिया में सरकार के भय से आलोचना नहीं हो रही है लेकिन वैदिक जी की बात पूरी तरह से ग़लत भी नहीं है। क्या नरेंद्र मोदी भूल गए हैं कि उनको पूर्ण बहुमत क्यों दिया था इस देश के मतदाताओं ने, क्या भूल गए हैं कि वे क्यों पहले प्रधानमंत्री बने तीस वर्ष बाद, जिनको ऐसा जनमत मिला, ये वाक्य हैं तवलीन सिंह के लेख से, जो आज के जनसत्ता में छपा है। समन्वय बैठक में जाकर प्रधानमंत्री तो नहीं भूले, लगता है तवलीन सिंह भूल गईं हैं। क्या वे भूल गईं हैं कि अपनी उम्मीदवारी के एलान के लिए नरेंद्र मोदी को नागपुर जाना पड़ा था? क्या वे भूल गईं हैं कि संघ आगे न आता तो नरेंद्र मोदी की बीजेपी के भीतर राजनीतिक लड़ाई इतनी आसान नहीं होती? क्या वे भूल गईं हैं कि उस भरी गर्मी में संघ का पूरा ढांचा उन्हें जीतने में दिन रात एक किये था? क्या वे भूल गईं हैं कि नरेंद्र मोदी और राजनाथ खुलेआम कहते हैं कि वे स्वयंसेवक हैं और इस पर उन्हें गर्व हैं? संघ की बेशक आलोचना कीजिए लेकिन उसे उसके हक से तो वंचित मत कीजिए। यह कीमत तो किसी विधायक को जीताने वाला मामूली मुखिया भी चुनाव के दौरान बलेरो और स्कार्पियों लेकर वसूल लेता है। आर एस एस निश्चित ही पैसा या पद (!) तो नहीं लेता होगा लेकिन एक पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने की इतनी मज़दूरी तो मिलनी ही चाहिए कि वो काम का हिसाब ले। संघ की नीतियों से लेकर भूमिका की आलोचना हो सकती है। होती ही है। कम से कम समन्वय बैठक से इस तरह का दोहरापन तो समाप्त हुआ। कई अखबारों में कार्टून बने हैं जिसमें पहली बार प्रधानमंत्री को किसी के अधीन दिखाया गया है। पहले कार्टून बनते थे कि प्रधानमंत्री ऊंचे आसन पर हैं और बाकी सब नीचे बैठकर सुन रहे हैं। समन्वय बैठक के बाद बने कुछ कार्टून में दिखाया गया कि संघ प्रमुख ऊंचे आसन पर हैं और प्रधानमंत्री नीचे खड़े हैं। समन्वय बैठक से साफ हो गया है कि संघ ने चुनाव जीताने से आगे जाकर अब सरकार की जिम्मेदारी लेने का भी फैसला कर लिया है। यह काम दुनिया भर की मीडिया के सामने किया है। एक चुने हुए प्रधानमंत्री को किसी संगठन के सामने जाकर हिसाब देना, खुद जाने से पहले तीन दिनों तक अपने मंत्रियों को वहां सुनने और बताने के लिए भेजना इन सब पर सवाल उठत रहे हैं और इसका जवाब कांग्रेस के समय सोनिया गांधी के अधीन राष्ट्रीय सलाहकार समिति के उदाहरण से दिया जाता रहेगा। यह सवाल वाजिब है कि प्रधानमंत्री के सहयोगी मंत्री लाइन लगाकर अपने काम का हिसाब दे रहे हैं। यही हिसाब वो बीजेपी के दफ्तर में भी दे सकते थे। संघ की भूमिका तो है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चुनाव के वक्त बीजेपी का कार्यकर्ता या उसके समर्थक सोशल मीडिया पर मेहनत नहीं करते हैं। लेकिन बीजेपी क्या संघ से अलग है ? संघ में बीजेपी है और बीजेपी में संघ है। हर आलोचना आलोचकों की सुविधा से नहीं होगी। वैसे आलोचक की बात सही है कि सरकार संसद के प्रति जवाबदेह होती है। वेद प्रताप वैदिक ने भी इस आलोचना को इस रूप में स्वीकार किया है कि उन्हें दूसरे संगठनों से भी सलाह मशवरा करनी चाहिए। लेकिन क्या वे अपने मंत्रियों को रिपोर्ट कार्ड लेकर उन दूसरे संगठनों के पास भेजेंगे। ज़ाहिर है ये सुविधा और हैसियत इस सरकार में सिर्फ आर एस एस की है। “ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जिन उद्देश्यों को,सपनों को लेकर अपने कार्यकर्ता काम कर रहे हैं, उस दिशा में शासन द्वारा काम क्या हुआ है, वो भी मंत्री महोदय ने यहां बताया। लोगों ने भी जो कार्यकर्ता आए थे, अपने विचार व्यक्त किये। समाज जीवन में काम करने वाले संघ समाज की ताकत पर करता है। तो इसलिए संघ के विचार के नज़दीक या उस विचार से प्रेरणा लिये हुए लोग दे की सत्ता जब संभाल रहे हैं, स्वाभिवक है कौतुहल है कि काम कैसे हो रहे हैं। “ ये सह सर कार्यवाह दत्तात्रेय हसबोले के शब्दश बोल हैं जो उन्होंने बैठक के बाद अपनी प्रेस वार्ता में कहा है। दत्तात्रेय हसबोले ने कहा कि अर्थव्यवस्था का पश्चिमी माडल फेल हो गया है। भारतीय मूल्यों पर आधारित कोई माडल बनना चाहिए। उन्होंने चित्रकूट में नानाजी देशमुख के बनाए मॉडल का ज़िक्र किया और यह भी कहा कि और भी कई मॉडल हो सकते हैं। संघ से दो सवाल होना चाहिए। नानाजी देशमुख जैसे और कितने हुए हैं जिन्होंने एक उम्र सीमा के बाद सांसदी या राजनीति छोड़ समाज सेवा की तरफ प्रस्थान किया? दूसरा कई राज्यों में बीजेपी की सरकारें चल रही हैं। कई सरकारें तो दस से पंद्रह साल से चल रही हैं। संघ बताये कि इन राज्यों में कौन सा ऐसा मॉडल सरकार की तरफ से पेश किया गया है जो भारतीय मूल्यों पर आधारित हो और जिसमें अर्थव्यवस्था का मॉडल बनने की संभावना हो। संघ बताये कि जिस गुजरात मॉडल की भूरी भूरी प्रशंसा होती रही है क्या वो भारतीय मूल्यों पर आधारित है ? क्या गुजरात मॉडल के समय भी संघ ने मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी को किसी कार्यशाला में बुलाकर पूछा था? अपना इनपुट दिया था? अर्थव्यवस्था का पश्चिमी मॉडल फेल हो गया है। यह बात संघ कहे तो सिर्फ इसी आधार पर इसे खारिज नहीं करना चाहिए। यही बात तो मार्क्सवादी संस्थाएं भी कह रही हैं और यही बात वो संस्थाएं भी कह रही हैं जो गैर मार्क्सवादी हैं। अर्थव्यवस्था की अल्प समझ के बाद भी मुझे लगता है कि संघ ने यह बात ठीक कही है। अब संघ से पूछा जाना चाहिए कि ज़रा दिखाइये कहां आपने भारतीय मूल्यों पर आधारित अर्थव्यवस्था का कोई मॉडल बनाया है। वसुंधरा राजे से लेकर शिवराज सिंह चौहान और अब केंद्र सरकार ने जो श्रम सुधार लागू किये हैं वो पश्चिमी मॉडल पर आधारित है या भारतीय मूल्यों पर । आप किसी भी पार्टी की किसी भी सरकार का चुनाव कर सकते हैं। साठ साल के हिसाब से कांग्रेस का हिसाब कर सकते हैं और दस से पंद्रह साल के हिसाब से भाजपा शासित या कम्युनिस्ट शासित राज्यों का भी हिसाब कर सकते हैं। सब फेल हैं। किसी के पास कोई विकल्प नहीं है। कम से कम खुद फेल होते हुए भी संघ ने यह बात कहने का साहस तो दिखाया है। मज़दूरों का शोषण हुआ है। उनके रहने की बस्तियों को नरक बनने दिया गया है। सूरत, लुधियाना, दिल्ली, गुड़गांव सब जगह। संघ ने सरकार के काम को बेहतर माना है और शाबाशी दी है। उसे बताना चाहिए कि मोदी सरकार का कौन सा मॉडल भारतीय मूल्यों पर आधारित है। इसका ये मतलब नहीं कि सरकार ने अच्छे काम नहीं किये हैं। काम और मॉडल में फर्क है। योग ज़रूर भारतीय मूल्यों पर आधारित है लेकिन क्या वो आर्थिक मॉडल है। जनधन खाता अच्छा काम हो सकता है लेकिन क्या वो कोई भारतीय मूल्यों पर आधारित आर्थिक मॉडल है। प्रधानमंत्री के साथ जाने वाले उद्योगपतियों के प्रतिनिधिमंडल में क्या किसी को गांव का धोती कुर्ता वाला व्यावसायी दिखा है जिसे देखकर बताया जा सके इस आदमी ने संघ की विचारधारा पर चलते हुए एक मॉडल का विकास किया है। स्लोगन से मॉडल नहीं बनते हैं। वाइब्रेंट गुजरात में कितनी चर्चा भारतीय मूल्यों पर आधारित मॉडल पर हुई और कितनी पश्चिमी मॉडल की। संघ के साथ इन सब सवालों पर चर्चा हो कितनी सार्थक बातें निकलेंगी। दत्तात्रेय हसबोले की इस बात में किसी को क्यों ख़राबी नज़र आती है कि ग्राम जीवन से लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं । कमाई, पढ़ाई और दवाई इन तीन कारणों से लोग गांव छोड़ रहे हैं । जो संघ विरोधी हैं वो भी यही कहते हैं। अब ये कितना अच्छा मौका था दत्तात्रेय जी से पूछने का कि सबसे विकसित और प्रशंसित गुजरात मॉडल में क्या गुजरात के ही गांवों से शहरों की तरफ पलायन नहीं हुआ ? उन्हें ख़ुद बताना चाहिए कि संघ की मेहनत और विचारधारा से प्रेरणा पाकर जीतने वाली भाजपा ने कितने गांवों में पलायन को रोका है। गांवों में कितने स्तरीय अस्पताल बनाए हैं? स्कूल खोले हैं और रोज़गार के अवसर पैदा किये हैं? स्कूल खुलने के बाद भी पलायन होगा। इस वक्त भारत में जो भी ज़िंदा हैं वो पश्चिमी मॉडल को ही देखते देखते दुनिया से जायंगे। मेरी तरफ से ये बात लिखकर जेब में रख लें। संघ के पास भले कोई भारतीय मॉडल होगा लेकिन उसके पास जो राजनीतिक मॉडल है वो कांग्रेस समाजवादी या कम्युनिस्टों के चुनावी मॉडल से कितना फर्क है। दरअसल आलोचक संघ से इतना भयभीत रहते हैं कि जब भी उससे सवाल करने का मौका आता है, अपने डर का बखान करने लगते हैं। संघ ने समन्वय बैठक के ज़रिये खुद को सरकार की नीतियों और कार्यों की ज़िम्मेदारी लेने वाली संस्था के रूप में पेश किया है। इससे सतर्क भी होना चाहिए और इसका स्वागत भी करना चाहिए। संघ सिर्फ सलाहकार संस्था नहीं है बल्कि चुनाव जीताने वाली संस्था भी है। समन्वय बैठक से संघ ने अपनी तरफ से संघ और सरकार की दूरी मिटाने का काम किया है। आलसी आलोचक पता नहीं इस दूरी को किस दूरबीन से देख रहे हैं। जो दूरी है नहीं उस दूरी की बात क्यों की जाए सिर्फ इसलिए कि प्रधानमंत्री ने हिसाब दिया है। ये सवाल उस सवाल से अलग है कि क्या सारे मंत्रियों को जाकर हिसाब देना चाहिए। जनता अपने सवाल लेकर कहाँ जाए ? सरकार के पास या संघ के दरवाज़े । रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से साभार


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