ममता यादव।
पत्रकारिता यानि मीडिया की नकारात्मक छवि जनता के बीच बनी हुई है। बावजूद इसके कि अगर 80 प्रतिशत मीडिया नकली, गलत या पत्रकारिता के मानदंडों के खिलाफ काम कर रहा है तो 20 प्रतिशत मीडिया वह है जो विशुद्ध पत्रकारिता आज भी कर रहा है विपरीत परिस्थितियों में भी। आप सबको एक तराजू में नहीं तौल सकते फिर भले ही इन वास्तविक विशुद्ध् पत्रकारिता करने वालों का पलड़ा हलका ही क्यों न हो।मीडिया दलाल है,बिकाउ है,चोर है,प्रोस्टीट्यूट है। इसे आप उतना ही सच मान सकते हैं जितना आप सोच सकते हैं या जितना आप जान सकते हैं फिर चाहे आप जिस माध्यम से जानें इसमें सोशल मीडिया को प्रमुख मान सकते हैं। लेकिन क्या यही बात अन्य क्षेत्र के लोगों पर लागू नहीं होती? आप सोच रहे होंगे मैं ये क्यों लिख रही हूं? दरअसल यह सवाल कल शाम से ही मेरे दिमाग में उमड़—घुमड़ रहा है कि क्या वाकई भारतीय मीडिया इतना खराब या नकारत्मक हो गया है। कल यानी 20 सितंबर को सागरविश्वविद्यालय के कुलपति आर पी तिवारी की पहल पर एक नई शुरूआत हुई एलुमनाई व्याख्यान माला की। कुलपति के शब्दों में ये अपने आप में इतिहास बन गया कि इतिहास विभाग से ये शुरूआत हुई और बतौर मल्हार मीडिया की फाउंडर एडिटर के तौर विश्वविद्यालय द्वारा मुझे इसमें बुलाया जाना मेरे लिये गर्व की बात थी। विषय था इतिहास में मीडिया:मिशन से प्रोफेशन और मीडिया के बदलते माध्यम। इस कार्यक्रम में व्याख्यान के बाद जो मेरे और छात्रों के बीच सवाल जवाब का दौर चला उसने मुझे और ज्यादा मजबूर किया ये सोचने पर कि क्या वाकई मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभा पा रहा है। इन सवालों में एक बात जो बार—बार सामने आई कि समाचार चैनलों द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले समाचारों के तरीकों और उनके कंटेंट पर सवाल उठे। मेरा हमेशा खुद से भी सवाल होता है और कई बार लगता है कि क्या समाचार चैनलों के लिये कोई सीमा तय की जानी चाहिए। कल छात्रों से चर्चा के दौरान यह बात महसूस हुई कि शायद हां यह जरूरी है और इसलिये जरूरी है कि एक आम आदमी जब मीडिया की बात करता है तो उस पर आरोप लगाता है तो उसके दिमाग में उसकी बातों में उदाहरण हमेशा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का दिया जाता है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि प्रिंट इन आरोपों से बरी है। एक छात्र ने पूछा था मुझसे कि जब मैं पेपर पढ़ता हूं तो मुझे उसमें ऐसा कुछ नहीं मिलता जो मेरे काम का हो? मुझे याद आया कि हां हमारे छात्र जीवन के दौरान अखबार में कुछ न कुछ चाहे साप्ताहिक ही हो कुछ तो ऐसा आता था जो हमें लगता था कि यह हमारे काम का है। हम कई खबरों की आलेखों की कटिंग काटकर रखते थे।इसके बाद मेरी जिम्मेदारी और बढ़ गई कि मैं कुछ ऐसा कंटेंट ज्यादा से ज्यादा दूं जो छात्रों के काम का हो या उन्हें समझ आये या उन्हें लगे कि नहीं ये एक स्पेस है जहां हमारे लिये कुछ है। कहीं नो नेगेटिव का फंडा है तो कहीं विज्ञापन की लड़ाई है। खबरें वैसी ही दिखाई पढ़ाई जाती हैं जो मीडिया संस्थान चाहता है। हवाला पाठकों का दिया जाता है। कुछ इस तरह से दिया जाता है कि जैसे डिमांड पाठक की ही हो। लेकिन असलियत तो यही है जो मुझे महसूस होती है पाठक या दर्शक को वही परोसा जा रहा है जो मीडिया चाहता है। मूर्धन्य पत्रकार प्रभाष जोशी के इस सिद्धांत का कितना पालन मीडिया कर रहा है कि पाठक ही माई—बाप है यह तो अब खुद मीडिया के आत्ममंथन का विषय बन गया है। एक और खास बात यह है कि मीडिया पर हमले या आरोप का मामला कुछ ऐसा है कि एक ने चिल्लाया तो सबने कह दिया। बहुत हद तक सोशल मीडिया ने इसे हवा दी है और दे रहा है। वो सोशल मीडिया यूजर जो कभी सुबह अखबार भी पलटकर नहीं देखता होगा आसानी से मीडिया को गरिया देता है। ठीक है जो चोर हैं उन्हें फर्क नहीं पड़ता लेकिन जो वास्तविक और ईमानदारी से काम करने वाले पत्रकार हैं उन्हें फर्क पड़ता है और वे जवाब भी देते हैं तब कहीं एक समझाईश आती है खामोश रहिए कुछ न कहिए अपने आप चुप हो जायेंगे। तब मेरे दिमाग में एक सवाल आता है कि इस नकारात्मकता को हवा देने में खुद मीडिया की चुप्पी ने कितनी अहम भूमिका निभाई है।मैं ये नहीं कहती कि आप गलत को गलत न कहें लेकिन जो वास्तविक लोग हैं उन्हें भी अनदेखा न करें। एनडीटीवी के रवीश कुमार की भी यही तकलीफ है जो उनके आलेखों में बार—बार सामने आती है। मैं तो पिछले एक—डेढ़ साल से समाचार चैनल देख ही नहीं रही हूं क्योंकि बतौर दर्शक बहुत निराश हो जाती हूं। अगर बात मिशन या प्रोफेशन की करें तो मैं इस बात से बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखती कि आप भूखे पेट मिशन चलाईये। जब पत्रकारिता मिशन थी वो एक अलग दौर था ये एक अलग दौर है। प्रलोभन दबाव तब भी थे अब भी हैं। ये आप पर निर्भर करता है कि आप इन्हें कैसे हैंडल करते हैं। आप विज्ञापन को प्रलोभन कहते हैं तो मैं उसे नकारती हूं क्योंकि मल्हार मीडिया चलाने के लिये या मुझे खुद के जीवन यापन के लिये पूंजी चाहिए जो विज्ञापन से ही संभव है और जो एक सीधी रास्ते से कमाई गई राशि है। ये मेरे विवेक पर निर्भर करता है कि मुझे विज्ञापन किन शर्तों पर चलाना है? चलाना भी है या नहीं। चलाना भी है तो अपनी कलम और अपने स्वाभिमान की कीमत पर तो बिलकुल नहीं।सिर्फ इसलिये मैं अपने कंटेंट अपने पाठकों की रूचि ,भावनाओं को नजरअंदाज नहीं करूंगी कि मुझे विज्ञापन मिल रहा है।मैं सरकार से सुविधायें लेने के खिलाफ हूं मगर कोई पत्रकार ले रहा है तो मैं उस पर उंगली उठाने का हक नहीं रखती। इस संबंध में एक पोस्ट मैंने कुछ दिन पहले लिखी थी तो कमेंट ये आये थे कि अगर पत्रकारिता को जीवन चलाने का जरिया बनाना चाहते हैं तो आप पत्रकारिता छोड़ दीजिए। हमारे लिये तो ये मिशन ही है। अब मैं एक बहुत सीधी बात करने जा रही हूं। मैं जो अनुभव कर रही हूं पिछले कुछ सालों से जो देख सुन रही हूं इस तरह के मिशन की बात वही करते हैं जो लगभग रिटायरमेंट ले चुके हैं, जिन्होंने कुछ न कुछ हासिल कर लिया है। कम से कम इतना कमा लिया है कि उनका जीवन आराम से चल रहा है। पत्रकारिता के नाम पर उनकी उपलब्धि अब केवल यह है कि सोशल मीडिया पर किसी एक पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष या छोटे—से—छोटे मुद्दे पर चार लाईन या एक लंबा निबंध लिख देना। जो कि उनकी अपनी निजी भड़ास होती है। मैं पूछना चाहती हूं क्या उन्होंने पत्रकारिता से अपने घर नहीं चलाये? तो एसी कमरों में बैठकर मिशन का पाठ या सीख युवा पत्रकारों को ही क्यों पढ़ाई सिखाई जा रही है। आज जो माहौल है वो आज का नहीं है ये परिपाटी हर शासनकाल में रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि हम चोर को चोर ही लिखते हैं सर बिना बताये कीमती सामान या पैसा ले जाने वाला नहीं। एक बात जो भड़ास के कार्यक्रम में उठी कि नये पत्रकारों को कुछ आता नहीं है तो मुझे इस मामले में वरिष्ठ पत्रकार आंनद स्वरूप वर्मा की बात सटीक लगी कि पुराने लोग अपने अहंकार में इतने डूबे रहते हैं नये लोगों को कुछ सिखाना ही नहीं चाहते तो अच्छे पत्रकार आयेंगे कहां से। मैं इस मामले में भाग्यशाली हूं कि मुझे ऐसे वरिष्ठ पत्रकारों का सानिध्य मिला जो भले ही देर से मिला और मल्हार मीडिया शुरू करने के बाद ज्यादा मिला जिन्होंने मुझे सिखाया,सही सिखाया और सही रास्ता दिखाया। मैं वाकई खुद को भाग्यशाली मानती हूं और ये कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि मैं डॉ.हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग की छात्रा रही हूं। आज जो छात्र हैं उनके लिये ये सौभाग्य की बात है कि उनके पास आज भी वो शिक्षक हैं जो मेरे पास थे। किताबी ज्ञान से हटकर थोड़ा उनकी उन बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत है जो वो व्यवहारिकता में सिखाते हैं। मैं शायद यहां तक न पहुंचती या मल्हार मीडिया या ममता यादव पत्रकार न होती अगर इतिहास विभाग के वर्तमान अध्यक्ष डॉ.अशोक अहिरवार ने मुझे पीएचडी करने से न रोका होता। हालांकि ये अलग बात है कि आज भी मुझे कई लोग सलाह देते हैं पीएचडी कर लो। सच्चाई तो यही है कि हर दूसरे प्रोफेशन के व्यक्ति को दूसरे का प्रोफेशन बहुत लुभावना लगता है लेकिन हकीकतें कुछ और होती हैं। मैं आभारी हूं सागर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री आर पी तिवारी जी की जिन्होंने यह अभिनव पहल की और एक नई परंपरा शुरू की। क्योंकि इस पहल के लिये बतौर छात्र हम हमेशा तरसे कि कोई तो हमारा सीनियर ऐसा हो जो क्लास में आकर हमें कुछ दिशा देकर जाये, बताकर जाये।मैं उम्मीद करती हूं कि ये परंपरा कायम रहे भविष्य में भी। मैं छात्रों से एक अपील करना चाहूंगी कि आप मोबाइल फोन पर सोशल मीडिया पर बहत वक्त बिताते हैं फेसबुक ट्विटर के अलावा सर्च करिये कभी malhaarmedia.com, prakashhindustani.com, satyagrah.com, bhadas4media.com, mediavigil.com। एक बार इन वेबसाईट्स पर जाईये जरूर आपको मीडिया में इतनी भी नाउम्मीदी नहीं मिलेगी ये मेरा वायदा है।इनके जैसी कई वेबसाईट्स हैं जहां बेहतरीन कंटेंट आपको मिलता है।भड़ास का नाम इसलिये लिखा क्योंकि एक सवाल यह भी था कि मीडिया ही मीडिया पर कमेंट क्यों नहीं करता तो वेब पत्रकारिता में ये भी हो रहा है। मेरे लिये यह बहुत सरप्राईसिंग इसलिये रहा कि मेरी उम्मीद से बाहर यहां पर विभिन्न विभागों के अध्यक्ष और प्रोफेसर्स मौजूद थे। जितने बड़े स्तर का कार्यक्रम अशोक सर ने आयोजित किया वो मेरी कल्पना में भी नहीं था। मेरे दिमाग में बस इतना था कि क्लास में जाना है बोलना है और आ जाना है। सागर यूनिवर्सिटी के कई गुरूओं से सहजता मैंने सीखी है। श्री आर पी तिवारी बतौर कुलपति जितने सहज हैं उसकी कल्पना मुझे भी नहीं थी। उन्होंने सामने बैठकर मुझे सुना। उनके साथ अन्य प्रोफसर भी। ये सहजता कितने यूनिवर्सिटीज में कितने छात्रों को अपने शिक्षकों से मिलती होगी,मुझे नहीं पता। क्योंकि कई बार ऐसे कार्यक्रमों में कई शैक्षणिक संस्थानों से मंच पर बैठने की होड़ के किस्से सामने आते रहे हैं। इस कार्यक्रम में पूर्व कुलपति उदय जैन,आरएन यादव अधिष्ठाता छात्र कल्याण,प्रो.पीपी सिंह,प्रोक्टर प्रो.एपी दुबे,अधिष्ठाता विधी प्रो जीएस तिवारी,प्रोफेसर एडी शर्मा,प्रोफेसर चंदा बेन,विभागाध्यक्ष हिंदी,प्रोफेसर गिरीश मोहन दुबे,विभागाध्यक्ष अर्थशास्त्र,प्रो सविता गुप्ता,प्रो. ममता पटेल,डॉ.अनुपमा कौशिक,विभागाध्यक्ष राजनीति विज्ञान,डॉ.अलीम खान, प्रो राकेश शर्मा डॉ.नेहा निरंजन, कार्यपरिषद सदस्य डॉ आर पी सिंह,डॉ.सुरेंद्र यादव,डॉ.आफरीन खान,डॉ.आशुतोष मिश्र,डॉ.अफरोज बेगम,डॉ.मनीष कुमार,डॉ.जनार्दन,डॉ सर्वेन्द्र यादव,डॉ.हिमांशु यादव,प्रोफेसर डीसी शर्मा,पूर्व विभागाध्यक्ष इतिहास विभाग,प्रो.बीके श्रीवास्तव,डॉ.प्रीति बागड़े,डॉ.पंकज सिंह,डॉ.संजय बरोलिया,इतिहास विभाग के शोध छात्र नीलिमा धाकड़ ब्रजेंद्र अखिल प्रियंका,मनीष,अखिलेश,शैलेंद्र,बीना,असीम मिश्रा और इतिहास,विधि एवं अन्य विषय के छात्रों की शानदार मौजूदगी के लिये मल्हार मीडिया आभारी है। उम्मीद है यह संवाद बना रहेगा और अगली मुलाकात में आपके सवालों के और अच्छे संतोषजनक जवाब आपको मिल पायेंगे। कमेंट बॉक्स में अपनी प्रतिक्रिया से अवगत अवश्य करायें।
Comments