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सामाजिक नहीं समाज विरोधी पुलिस के खिलाफ सुबोध की अनुशासनहीनता!

खरी-खरी            Jul 24, 2015


कुमार सौवीर पुलिस का यह सदियों पुराना ढर्रा है। ज्‍यादातर पुलिसवालों के लब जब भी खुलेंगे, फूल की तरह गालियां ही झरती दिखती-सुनायी देंगी। साला शब्‍द तो अब क्षुद्र हो चुका है। डायरेक्‍ट मादर-बेटी से शुरूआत होती है किसी भी दो-पक्षीय मामलों के निपटाने की प्रक्रिया में। इतना ही नही, रिक्‍शेवालाें, खोमचावालों, मण्‍डी, दिहाड़ी मजदूर वाले भीड़-भड़क्‍का के बीच यह गालियां पुलिस के लिए खासी मुफीद मानी जाती हैं। ऐसे में गालियों का तूफान कयामत और बवंडर की तरह घना हो जाता है। लेकिन बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि पुलिसवालों में ऐसी घृणित गालियां परम्‍परागत चलती आ रही हैं। किसी गटर-गंगा की तरह। ऊपर वाले नीचे वाले को, नीचे वाले उससे नीचे वाले और सबसे नीचे वाला आम आदमी को गालियों से ही नवाजता है। लेकिन आप कभी-कभी ऐसी फोटो भी देखते होंगे या फिर ऐसी खबरें सुनते होंगे जिसमें आक्रोशित जनता पुलिसवालों की जमकर पिटाई कर देती है। अभी चार दिन पहले ही जौनपुर के लाइनबाजार थाने के दो पुलिसवालों को एक परिवार की महिलाओं ने जमकर पीट दिया था। एक विवाद को लेकर यह पुलिसवालों को पैसा भी चाहिए था और घरवालों की महिलाओं की इज्‍जत भी। महिलाओं ने मोर्चा खोल लिया इन छिछोरे पुलिसवालों पर और गली-सड़क पर घसीट-घसीट पर धुन दिया। अब यह दीगर बात है कि इस हादसे को पुलिस-महकमावालों ने अपनी प्रतिष्‍ठा से जोड़ लिया और पूरे खानदान की महिलाओं को जेल भी ठूंस दिया। इसी तरह की दो अन्‍य घटनाएं शाहजहांपुर और बाराबंकी में हो चुकी हैं, जहां एक महिला और एक पुरूष को जिन्‍दा फूंक डाला गया था। शाहजहांपुर की पुलिस ने एक पत्रकार के घर में उसे पेट्रोल डाल कर फूंक दिया था, जबकि बाराबंकी में एक पत्रकार की माता को पुलिसवालों ने बलात्‍कार में असफल होने पर जिन्‍दा फूंक डाला। वह तो इन पुलिसवालों की खुशकिस्‍मती है कि उनका महकमा और प्रदेश सरकार का हाथ उन पुलिसवालों के सिर पर सरपरस्‍ती पर रखा हुआ है। indian-policecartoon-03 लेकिन ऐसा नहीं है कि पुलिसवालों के सीने में कोई दिल नहीं धड़कता है। खूब धड़कता है जनाब! उन में भी होती है ईमानदारी की हिलोरें और जूझने का जज्‍बा भी। आप देख लीजिए। उसी जौनपुर के जफराबाद कस्‍बे में एक युवती को बंधक बनाये तीन डकैतों को साहसी पुलिसजनों ने घेर कर दिनदहाड़े मारा था। चित्रकूट में घनश्‍याम डाकू के साथ मुठभेड़ में एक दिलेर सिपाही बीर सिंह ने समाज को बचाने के लिए खुद की जान न्‍यौछावर कर दिया था। जबकि पीएसी के एक आईजी और एक डीआईजी अपनी खुद की बचकानी हरकतों में गोली की चोट खा गये। अब आइये पुलिस में बेईमानी और गाली-गलौज पर बनाम ईमानदारी पर। गोण्‍डा में एक पुलिस अधीक्षक बने थे राणा। एक दिन गो-सेवा आयोग-समिति के एक वरिष्‍ठ पदाधिकारी केपी पाण्‍डेय ने उनके घर पहुंच कर उन्‍हें पचास हजार रूपया की भेंट दी। साथ ही निवेदन किया कि चूंकि आपके जिले से गौ-पशुओं का आवागमन रोक दिया गया है, इसलिए आप इस प्रतिबंध को हटा लें। ताकि हमारा गोवंश तस्‍करी का का धंधा बेधड़क चलता रहे। यह पहला मौका था जब कि प्रदेश सरकार से जुड़े गो-वंश के तस्‍करों ने किसी जिले के पुलिस अधीक्षक को गोवंश तस्‍करी के लिए सीधे-सीधे रिश्‍वत देने की हिमाकत की थी। राणा ने ने इस बातचीत को रिकार्ड कर उसे अपने वरिष्‍ठ अधिकारियों को भेज दिया। लेकिन नजीजा दो-तरफा हुआ। एक तो यह कि तीन दिन के भीतर ही पुलिस कप्‍तान को ढक्‍कन-पोस्टिंग पर भेज दिया गया और दूसरा यह कि गोंडा में गो-वंश की तस्‍करी धडल्‍ले से शुरू हो गयी। चंदौली वाले डीएसपी शैलेंद्र सिंह ने भी मुख्‍तार अंसारी की करतूतों से दो-दो हाथ करने की कोशिश की, तो उसे नौकरी ही छोड़नी पड़ गयी। पचीस साल पहले लखनऊ में बिजली सतर्कता प्रकोष्‍ठ के पुलिस अधीक्षक दासगुप्‍ता ने अपने एक शोध-पत्र में साबित किया था कि लालकृष्‍ण आडवाणी मूलत: हूण हैं और हूण मूलत: आक्रामक, हिंसक और अभद्र होते हैं। तब भाजपा की सरकार थी, इसलिए दासगुप्‍ता सेवा से शहीद कर दिये गये। आईजी कृपाकृष्‍ण चतुर्वेदी ने बसपा सरकार में अपने नाम के आगे हरिजन क्‍या लगाया, उन्‍हें बसपा सरकार ने ही शूद्र-पतित मान कर दुरदुरा दिया।सच और अभिव्‍यक्ति की आजादी की आवाज उठाने वाले इसी क्रम में अमिताभ ठाकुर ताजा कड़ी हैं, जिसने पुलिस, प्रशासन और सरकार की करतूतों का तिचां-पांचा करने की कोशिश की है। यह सारी घटनाएं दरअसल शहीदनामों की तरह हैं, जिन्‍होंने व्‍यवस्‍था से जुझने की जुर्रत की, और बदले में उनकी जितनी भी छीछालेदर हो सकती थी, विभाग, प्रशासन और सरकार की ओर से कर दी गयी। लेकिन ऐसी घटनाओं के बावजूद पुलिसवालों में जज्‍बा अभी भी बेहिसाब है। आप देखिये ना कि आम पुलिसवालों के हकों के लिए आवाज उठाने वाले सुबोध यादव को पुलिस महकमे ने सीधे बर्खास्‍त कर दिया। लेकिन इसके बावजूद सुबोध पूरी जी-दारी से अभियान में जुटा हुआ है। हो सकता है कि इन लोगों ने अनुशासनहीनता की हो, लेकिन सवाल यह है कि यह अनुशासनहीनता की परिभाषा क्‍या है। क्‍या दमन, अभद्रता, गालियां, घूस, डाली, लै-मारी जैसी हरकतों का विरोध करना ही अनुशासनहीनता है तो फिर वही भी ठीक। ऐसे में अगर सुबोध ऐसे अनुशासनहीनता का विरोध कर रहा है, तो उसमें बुरा क्‍या है। कुमार सौवीर के फेसबुक वॉल से


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