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2019 से पहले एक सवाल, संस्थानों की दरकती स्वायत्तता की जिम्मेदारी?

खरी-खरी            Dec 11, 2018


 राकेश दुबे।
2014 में जब भाजपा के सत्तासीन होने के आसार दिख रहे थे, ऐसा लगता था कि भाजपा सत्ता में आई तो वह लोकतांत्रिक संस्थानों की पवित्रता और प्रभुता बहाल करेगी, लेकिन वो मुगालता था।

भाजपा का यह कार्यकाल सरकारी और गैर सरकारी दोनों तरह के संस्थानों के लिए ठीक नहीं रहा वे लगातार दबाव महसूस करते रहे हैं। सरकार अपनी प्रभुता मजबूत करने और संस्थानों पर नियंत्रण कायम करने में लगी रही और असफल साबित हुई।

यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आजादी के बाद भारत में बमुश्किल केंद्रीय सहमति की व्यवस्था बनी थी, इस काल में दरकने लगी।

संस्थानों की स्वायत्तता इन दिनों सवालों के घेरे में है। निर्वाचन आयोग,केंद्रीय जांच ब्यूरो, केंद्रीय सतर्कता आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, मीडिया और विश्वविद्यालयों के साथ न्यायालय को भी समझौतापरक बनाने के प्रयास किये गये और जारी हैं। इसके साथ ही मीडिया पर लगाम की कोशिशें हुई।

अनेक उच्च शिक्षा संस्थानों में विश्वस्तों की भर्ती की गई। ऐसे लोग भर्ती हुये जिनके पास जरूरी काबिलियत तक नहीं थी। वैसे यह पहला मौका नहीं था जब सत्ता ने अपने पसंदीदा लोगों को प्रभावशाली पदों से नवाजा हो।

पूर्व में अकादमिक संस्थाओं के प्रमुखों या सदस्यों का एक पेशेवर कद होता था, लेकिन इस सरकार द्वारा पदस्थापित लोगों का रिकॉर्ड तो अत्यधिक निराश करने वाला है। उनके पास विशेषज्ञता और उपलब्धि के नाम पर कुछ नहीं है।


कई संस्थानों ने सरकार के विरृद्ध् अपने अस्तित्व को बचाना भी शुरू कर दिया है। 2019 के आम चुनाव करीब आ रहे हैं और राजनीतिक परिदृश्य बदल रहा है। ऐसे में कई संस्थानों को लग रहा है कि सरकार बदल सकती है। उनके भीतर प्रतिरोध का साहस पैदा हुआ है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस ने ही इन संस्थानों को कमजोर करने की शुरुआत की थी। इंदिरा गांधी ने अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के चलते पार्टी, संसद, नौकरशाही, न्यायपालिका, राष्ट्रपति पद और यहां तक कि भारतीय लोकतंत्र जैसे संस्थान को नुकसान पहुंचाया।

प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के कद के अधीन संस्थानों को और भी नुकसान पहुंचा है। इसके पीछे सीधा तर्क यह है कि एकमात्र वैध प्राधिकार सत्ताधारी दल का नेता है। ऐसे में स्वायत्त और स्वतंत्र संस्थानों को उनका विरोधी मानना निश्चित है।

संस्थानों को क्षति पहुंचाकर या राजनीतिक नेताओं की वैचारिकता को बढ़ावा देकर लोकतंत्र को मजबूत नहीं किया जा सकता।

भाजपा की इन कोशिशों से उन संस्थानों की स्थिरता को खतरा उत्पन्न हो गया है जो देश ने दशकों में तैयार किए हैं। इससे लोकतंत्र को निरंतर नुकसान पहुंचेगा। नेताओं को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए कुछ संस्थान और उनकी स्वायत्ता आवश्यक हैं।

 


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