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अमेरिकी पराभव ने दुनिया को विचारों के एक चौराहे पर ला खड़ा किया

खरी-खरी            Feb 24, 2022


हेमंत कुमार झा।

80 के दशक में रोनाल्ड रीगन के नेतृत्व में अमेरिका अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष पर था।

शीत युद्ध अपने अंतिम दौर में था और सोवियत बिखराव ने दुनिया को दो ध्रुवीय से एक ध्रुवीय में बदल दिया था।
   
अब अमेरिका दुनिया का दारोगा था और ब्रिटेन उसका सबसे विश्वासप्राप्त हवलदार। कभी कभार किसी मुद्दे पर ना नुकुर करते फ्रांस और जर्मनी भी उसकी हवलदारी ही करते रहे।
     
अपनी एकछत्र दबंगई का अमेरिका ने जम कर दुरुपयोग किया। नाटो कहने को कई देशों का सैन्य संगठन था लेकिन मर्जी मूलतः अमेरिका की ही चलती रही। जिधर अमेरिकी हांक पड़ी, नाटो की सेना ने उधर कूच किया।
     
अपनी एकछत्रता के साथ ही आर्थिक और सैन्य ताकत का दुरुपयोग करते हुए अमेरिका ने तमाम विश्व संस्थाओं को अपना बंधक बना लिया और भूमंडलीकरण के बहाने आर्थिक उदारवाद के अश्वमेध के घोड़े को दुनिया के तमाम देशों में विचरने भेज दिया।
    
'ढांचागत समायोजन'यही वे शब्द थे जो किसी भी वैश्विक वित्तीय संस्थान से कर्ज लेने वाले गरीब देशों के लिये शर्त्त के तौर पर कहे जाते थे।
 
यानी हमारी कम्पनियों के लिये बाजार खोलो, हमारी आर्थिक शर्त्तें मानो, अपने मजदूरों के श्रम अधिकारों को छीनो, उन्हें आदमी मानना बंद करो, हमारी कंपनियां अपनी शर्त्तों पर उनसे काम लेंगी और फिर एक दिन निचोड़ कर बाहर फेंक देंगी।
    
दुनिया के तमाम तेल भंडारों और अन्य संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा कायम करने के लिये न जाने कितने निर्मम रक्तपात किये गए, विरोध करने वाले कितने राष्ट्र प्रमुखों को कुर्सी से बेदखल किया गया, उनकी निर्मम हत्या की गई।
     
भूमंडलीकरण अमेरिकीकरण का ही एक दूसरा रूप बन कर दुनिया के सामने आया।
      
नैतिक पतन ने अमेरिका को एक दिन इस मुकाम पर पहुंचा दिया कि डोनाल्ड ट्रंप जैसा नेता वहां का राष्ट्रपति बना।
    
फिर बाइडन साहब आए।
 
इस बीच गंगा, नील, अमेजन आदि नदियों में बहुत सारा पानी बह चुका।

कभी नाटो का द्वंद्व सोवियत झंडे तले 'वारसा पैक्ट' नामक सैन्य समझौते से जुड़े देशों के साथ था। सोवियत विघटन के साथ ही वारसा पैक्ट अस्तित्वहीन हो गया।
 
लेकिन नाटो बना रहा, जबकि विश्व राजनीति की नैतिकता का तकाजा था कि इसे भी भंग हो जाना चाहिए था।
 
पर, दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने और रखने के लिये नाटो को बनाए रखना जरूरी था।
 
खाड़ी युद्ध नाटो की बर्बरता और अनैतिकता का ऐतिहासिक दस्तावेज बना।
   
नाटो को न सिर्फ बनाए रखा गया बल्कि इसका विस्तार करते हुए नए-नए देशों को इससे जोड़ा भी जाता रहा।
     
जिस मुक्त आर्थिकी और बाजार की निर्ममता के सिद्धांतों पर अमेरिका चलता रहा, उसे बड़ी चुनौती 2008 की मंदी से मिली। वह सोचने पर मजबूर हुआ लेकिन सोचने से अधिक करने की जरूरत थी। वह किया नहीं जा सका। अमेरिका में बेरोजगारी का आलम और निम्न मध्यवर्ग का असंतोष बढ़ता ही गया।
    
बढ़ती बेरोजगारी और मांग-आपूर्त्ति का संकट मजबूत से मजबूत अर्थतंत्र को हिला देता है। अमेरिका भी हिलने लगा।
     
अब उसके राष्ट्रपति की वह धमक नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। बराक ओबामा अंतिम अमेरिकी राष्ट्रपति हुए जिनकी इज़्ज़त दुनिया करती थी। उनके उत्तराधिकारी ट्रम्प ने दुनिया के इस सर्वाधिक शक्तिशाली पद की गरिमा को जी भर कर पलीता लगाया।
   
फिर, बाइडन के आते-आते अमेरिका अपनी बढ़ती हुई भीतरी कमजोरी को भांप दुनिया भर में फैले अपने जाल को समेटने की कोशिश में लगा।
 
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य वापसी ने तालिबान को मौका मुहैया कराया ही, अमेरिकी प्रतिष्ठा को भी बट्टा लगाया।
   
नाटो का विस्तार करते-करते वह यूक्रेन को इसमें शामिल करने की मंशा तक पहुंच गया। रूस विरोधी और उससे भी अधिक पुतिन विरोधी यूक्रेनी नेता जेलेन्स्की को अमेरिका पर भरोसा था कि वह संकट में साथ देगा। नाटो के बल का भ्रम उन्हें ऐसा हुआ कि उन्होंने पुतिन की चुनौती को हल्के में ले लिया।
 
इधर पुतिन, जो मूलतः तानाशाह हैं, को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने, रूस की सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिये कुछ न कुछ खुराफात तो करते ही रहना है।
   
जिस पुतिन ने कभी बिल क्लिंटन को कहा था कि रूस को भी नाटो में शामिल कर लो, उन्हें यूक्रेन के नाटो में शामिल होने की संभावना से ही भारी प्रतिक्रिया हुई। यह स्वाभाविक भी था। यूक्रेन की सत्ता रूस विरोधी राजनीति की ही उपज है। रूस कैसे स्वीकार करता कि उसे नाटो का संरक्षण मिले।
 
पुतिन ने रूस को आर्थिक स्तरों पर कम, सैन्य स्तरों पर बहुत अधिक मजबूत किया। आज रूस इतना शक्तिशाली है कि उसने यूक्रेन पर हमला कर दिया और तमाम यूरोपीय देश राजनाथ टाइप 'कड़ी निंदा' से आगे नहीं बढ़ पाए। रूस से सैन्य पंगा लेने के अपने खतरे हैं जिन्हें यूरोप के लोकतांत्रिक नेतागण समझते हैं। पुतिन का क्या है, वे तो तानाशाह हैं। जलते हुए रूस के ऊपर पियानो बजाती अपनी तस्वीर डालने में भी उन्हें संकोच नहीं होगा।
 
यूक्रेन संकट ने अमेरिका की रही सही प्रतिष्ठा में भी बट्टा लगा दिया। राष्ट्रपति बाइडन की यह घोषणा कि "अमेरिका रूस-यूक्रेन युद्ध में सीधा सैन्य हस्तक्षेप नहीं करेगा", यूक्रेन के लिए बड़ा धोखा है। अमेरिका और नाटो के बल पर ही तो वह पुतिन को आंखें दिखा रहा था।

अब यूक्रेन के राष्ट्रपति विलाप कर रहे हैं कि उनके देश को अकेला छोड़ दिया गया।
      
यूक्रेनी नेता का यह विलाप इस बात का घोषणापत्र है कि अब अमेरिका दुनिया का दारोगा नहीं रहा। दुनिया अब एकध्रुवीय नहीं रही।
 
रीगन से बाइडन तक की अमेरिकी यात्रा महज तीन-साढ़े तीन दशकों की ही रही। कभी तेज चमक बिखेरता अमेरिका अब मद्धिम पड़ने लगा है। बीते कई दिनों से बाइडन पुतिन को चेतावनी दे रहे थे। अब जब, संकट सर पर आ गया तो 'कड़ी निंदा' और साधारण से प्रभाव छोड़ने वाले आर्थिक प्रतिबंध आदि से आगे बढ़ने का साहस वे नहीं दिखा सके।
     
अमेरिका के पराक्रम का यह पराभव है। यह सिर्फ सैन्य मामलों में ही नहीं, आर्थिक सिद्धांतों के मामले में भी दिखेगा। क्योंकि, वह स्वयं आर्थिक रूप से भी कमजोर हो रहा है। न वह बेरोजगारी से पार पा रहा है न बढ़ती हुई भीषण आर्थिक विषमता से।
 
अमेरिकी पराभव ने पूरी दुनिया को विचारों के एक चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है। यहां से मानवता को नए रास्तों की तलाश करनी होगी।

 



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