राकेश कायस्थ।
कांग्रेस की महंगाई हटाओ रैली से जो सबसे बड़ी हेडलाइन निकल कर आई है वो ये कि राहुल गांधी ने यह समझाने की कोशिश की है कि हिंदू धर्म और हिंदू राजनीति दो अलग-अलग चीज़े हैं।
सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी ऐसा समझा पाये? भाषण सुनकर ऐसा लगा कि राहुल गांधी खुद यह समझ नहीं पा रहे हैं कि समझाना क्या है।
देश में आज ऐसे लोगों की तादाद ठीक-ठाक है, जो राहुल गांधी में संभावनाएं देखते हैं। उन्हें लगता है कि मोदी के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत सिर्फ उन्होंने ही दिखाई है।
मैं दोनों को बातों को ठीक मान लेता हूं लेकिन साहस कभी भी राजनीतिक कौशल का पर्याय नहीं हो सकता। राजनीतिक कौशल के मामले में राहुल गांधी मुझे वैसे ही लगते हैं, जैसे बरसों पहले थे।
`हिंदू हूं, मगर हिंदुत्ववादी नहीं'-- इस वन लाइनर की व्याख्या वो आदमी कैसे करेगा जो मुसलमानों को गाली वाले किसी व्हाट्स एप मैसेज के साथ अपने दिन की शुरुआत करता है और मथुरा की कारसेवा वाला पोस्ट पढ़कर सोता है।
हिंदू समाज अपने अंत:करण से फासिस्ट हो चुका है। इस ज़हर का एंटी वैनम किसके पास है? आरएसएस के फासिज्म से लड़ने के लिए जो वैचारिक तैयारी दिखाई देनी चाहिए वो कांग्रेस में दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है।
समझाने के लिए राहुल गांधी ने जो किया उससे समझ में आता है कि कांग्रेस पार्टी बौद्धिक रूप से किस हद तक दिवालिया हो चुकी है। `ये देश हिंदुओं का है' इस बात का एलान करते हुए राहुल ने नेहरू की उस भारतीयता की परिभाषा का तर्पण कर दिया जिसमें पाँच हज़ार साल का समावेशी इतिहास बोध समाया हुआ था।
आप जब कहते हैं कि यह देश सबका है तो स्वभाविक रूप से 85 फीसदी हिंदू इस `सब में' सबसे बड़े समूह के रूप में उभरते हैं। सबका है, मतलब देश उन लोगों का भी उतना ही है, जितना राजनीतिक हिंदुओं का है।
जयपुर में राहुल गांधी ने हिंदुओं के देश का एलान करके यह बता दिया कि भारतीय राजनीति का आगे सफर ठीक उसी तरह बढ़ेगा जिस तरह आरएसएस चाहता है।
कांग्रेस और बीजेपी में बुनियादी अंतर यह है कि एक पार्टी खाये-अघाये पार्ट टाइम राजनेताओं की है तो दूसरी उन फुल टाइम लोगों की जिनके पीछे एक प्रतिबद्ध विचारधारा है।
बीजेपी जब दो सीटों वाली पार्टी थी, तब भी उसके पीछे एक थिंक टैंक था, जो रात-दिन राजनीतिक स्थितियों का विश्लेषण करके रणनीति बनाने में जुटा था। कांग्रेस का जो वैचारिक तेज़ था, उसका पतन नेहरू युग के अंत के साथ शुरू हो गया।
कांग्रेस ने अपनी विचारधारा पर धार चढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया। ना संस्थान बनायें ना बुद्धिजीवियों की जमात खड़ी की उल्टे पटेल और शास्त्री जैसे विभूतियों पर अपना दावा छोड़ दिया और बाद में उन्हें बीजेपी जैसी पार्टियों ने अपनाकर उसका भरपूर राजनीतिक लाभ लिया।
राहुल गांधी को देखकर मुझे हमेशा यही लगता है कि वो किसी एनजीओ के जोशीले कार्यकर्ता हैं। भारत के चुनावी राजनीति के टेढ़े-मेढ़े डगर पर चलकर कामयाब होने के लिए जो कौशल चाहिए वो राहुल में नहीं है।
फिर राहुल को क्या करना चाहिए? मेरे हिसाब से सबसे पहली चीज़ ये है कि तात्कालिक राजनीतिक लाभ और नैतिकता में किसी एक चुनाव करना उनके के लिए ज़रूरी है। दोनों तरफ थोड़ा-थोड़ा होने का मतलब कहीं ना होना है।
अगर राहुल गांधी ये कि वो फासिज्म के ख़िलाफ एक लंबी राजनीतिक लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं, तो संभव है, बहुत से लोगों का साथ उन्हें मिल जाएगा। दूसरा रास्ता ये है कि राहुल पूरी तरह केजरीवाल हो जायें, जो अब संभव नहीं है।
फिर राहुल क्या करेंगे? थोड़ा इधर और थोड़ा उधर से हो सकता है कि लोकसभा में 10-20 सीटें बढ़ जायें या घट जायें लेकिन भारतीय राजनीति में बुनियादी तौर पर कुछ नहीं बदलेगा।
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