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लोकतंत्र में विकल्पहीनता एक गढ़ा हुआ मिथक होता है

खरी-खरी, बिहार            Aug 12, 2022


हेमंत कुमार झा।

लगभग 17 वर्षों तक मुख्यमंत्री रहने के बाद उन्होंने 8वीं बार फिर से शपथ ले कर एक नया रिकार्ड बनाया।

यह दर्शाता है कि बिहार की जटिल सत्ता राजनीति में वे आज भी कितने प्रासंगिक हैं।

243 में 164 विधायक उनके समर्थन में हैं। यानी, उधर भाजपा अकेली और इधर राजद, जदयू, कांग्रेस, लेफ्ट, हम आदि एकजुट...और नीतीश उनके सर्वमान्य नेता।

डेढ़ दशक से भी अधिक समय से सत्ता में बने रहे किसी राजनीतिक नेता की ऐसी स्वीकार्यता के उदाहरण विरल ही होंगे।

हालांकि, अपने अति दीर्घ कार्यकाल में उनकी कामयाबियां महज उंगली पर गिनने लायक हैं जबकि नाकामियों की फेहरिस्त लंबी है।

बावजूद इसके, उनका आभामंडल इतना बड़ा है कि विपक्षी खेमे में उनके आते ही एक नए उत्साह का संचार हुआ है।

निश्चित ही यह उत्साह नई ऊर्जा का संवाहक भी बनेगा, जो नजर भी आने लगा है।

इतिहास इस तथ्य को दर्ज करेगा कि उनके कार्यकाल में शिक्षा पर सर्वाधिक बजटीय आवंटन के बावजूद बिहार की स्कूली शिक्षा रसातल में चली गई जबकि उच्च शिक्षा इतनी बदहाल हो गई जिसकी और कोई मिसाल पूरे देश और पूरी दुनिया में शायद ही कहीं और मिले।

कानून व्यवस्था, जो कभी उनकी यूएसपी हुआ करती थी, उनके हाथों से निकल कर आज की तारीख में बेसंभाल है जबकि उनकी प्रिय 'शराबबंदी योजना' का कारुणिक हश्र पूरा राज्य देख और झेल रहा है।

तब भी, ऐसा क्या है नीतीश कुमार में कि पाला बदलते ही उनका नाम सीधे प्रधानमंत्री के संभावित उम्मीदवारों में लिया जाने लगा है?

यह कोई साधारण बात नहीं है कि एनडीए से उनके बाहर आते ही राजनीतिक विश्लेषकों के एक वर्ग ने उन्हें नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में चर्चाओं के केंद्र में ला दिया और उन लोगों के सामने असमंजस की स्थिति ला दी जो मोदी की घटती लोकप्रियता के बावजूद 'विकल्प क्या है' जैसी भोथरी बातें कह कर लोकतंत्र का मजाक उड़ाया करते थे।

यद्यपि, लोकतंत्र में विकल्पहीनता एक गढ़ा हुआ मिथक होता है और वर्तमान सत्ता के दुर्नाम आईटी सेल ने इस गढ़े गए मिथक को खूब हवा दे कर जन जन के मन तक पहुंचाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी।

नीतीश कुमार का विपक्ष में आना और शपथ लेने के तुरंत बाद मोदी को चुनौती देना विकल्पहीनता के इस मिथक को पीछे धकेलने में कामयाब होता दिख रहा है।

इतने वर्षों तक सत्ता में रहने और राजनीतिक पालाबदल के कई अध्यायों से गुजरने के बाद भी उन्हें इस बात का श्रेय तो दिया जा ही सकता है कि उन्होंने बिहार को भाजपा के उग्र हिंदुत्व की प्रयोगशाला नहीं बनने दिया।

हालांकि, इसके लिए नीतीश कुमार से अधिक श्रेय बिहार की सामाजिक संस्कृति को दिया जा सकता है लेकिन यह भी सच है कि दो ढाई दशकों तक के भाजपा के साथ के बावजूद उन्होंने उसके 'हिडन एजेंडा' को बिहार में खुला खेल कभी नहीं खेलने दिया।

नीतीश कुमार इसके लिए जिम्मेवार माने जाएंगे कि उन्होंने अपना साथ और अपना नेतृत्व दे कर भाजपा को बिहार में पैर जमाने का मौका दिया, लेकिन अतीत में किसी पत्रकार को इस सवाल के जवाब में कही गई उनकी यह बात उन्हें एक तार्किक आधार देती है कि, "अगर हम ऐसा नहीं करते तो बिहार की राजनीति में हमारे खत्म हो जाने का खतरा था।"

वैसे भी, वह अटल-आडवाणी का समय था जब भाजपा "पार्टी विद डिफरेंस" की आभा और ओढ़ी गई सौम्यता के साथ जनमानस में अपनी जगह बनाने का यत्न कर रही थी।

लेकिन, "मिट्टी में मिल जाएंगे..." के बहुचर्चित वक्तव्य के बाद नरेंद्र मोदी की भाजपा के साथ उनका फिर से जुड़ जाना उनके वैचारिक व्यक्तित्व पर हमेशा के लिए एक दाग की तरह देखा जाएगा।

नीतीश कुमार, जार्ज फर्नांडिस, शरद यादव, चौधरी अजित सिंह, ममता बनर्जी आदि नेताओं ने भाजपा के राजनीतिक उत्थान में जो भूमिका निभाई उसका निर्णय इतिहास करेगा, लेकिन आज समय ने नीतीश को मौका दिया है कि वे अपने राजनीतिक करियर के अंतिम दौर में भाजपा के राजनीतिक पराभव की पटकथा लिखने में अपना संपूर्ण झोंक दें।

गैंगस्टर कैपिटलिज्म के बोझ तले कराह रही भारतीय अर्थव्यवस्था अब आर्थिक नीतियों में व्यापक परिवर्तनों की आकांक्षी है। इसके लिए ऐसे नेताओं की जरूरत है जिनके पास बदलावों का वैचारिक आधार हो।

नीतीश कुमार भविष्य में प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनें या न बनें, इतना तो तय है कि विपक्षी खेमे में उनके आ जाने के बाद 2024 की लड़ाई को एक अलग धार मिलने की संभावना बलवती हो गई है।

उनके लिए फिलहाल यह उपलब्धि भी कोई कम नहीं।

और...अगर सच में कांग्रेस सहित कुछ अन्य महत्वपूर्ण विपक्षी दलों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर ही दिया तो "नरेंद्र मोदी वर्सेज नीतीश कुमार" का राजनीतिक द्वंद्व खासा दिलचस्प साबित होगा और संदेह नहीं कि मोदी के लिए इस द्वंद्व से पार पाना बेहद कठिन होगा।

 



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