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पंजाब को जलाने की फिर साजिश,संदेह नहीं करना चाहिए लेकिन संदेह होता है

खरी-खरी            Apr 09, 2023


संजय वोहरा।

पंजाब में खालिस्तान न तो अब मुद्दा है और न ही मुद्दा बन सकता है। न ही खालिस्तान की अवधारणा किसी तरह से भी तार्किक अथवा व्यवहारिक है।  

ये ठीक वैसा ही है जैसे कश्मीर के संदर्भ में जनमत संग्रह की मांग वाली कहानी को मुद्दा बनाकर जिंदा रखना।

सब जानते हैं कि जनमत संग्रह की जो शर्तें तय हुई मानी जाती हैं उनका पालन खुद पाकिस्तान ही नहीं करेगा।

ये मुद्दे और विचार कागजों में ही रहेंगे और उन कुछ लोगों या इसके समर्थक कथित नेताओं के साथ दफन हो जाएंगे जो अब तक इस पर सियासी रोटियाँ सेकते रहे हैं।

लेकिन ये उन कुछ लोगों को फायदे का सौदा लगता है जो ऐसे मुद्दों के बहाने अपने तरह तरह के हित साधने की तरकीबें खोजते हैं।

इनमें सियासत और धर्म का घालमेल है जो मीडिया को औज़ार की तरह इस्तेमाल करता आया है और कर भी रहा है।

आजकल तो सोशल मीडिया का खूब आसानी से इस्तेमाल हो रहा है।

खालिस्तान के नाम पर जिन्होंने हथियार उठाए और हिंसक बने उनको पडोसी मुल्क  पाकिस्तान ने शह दी और वहां की एजेंसियों ने मदद रसद दी।कनाडा समेत कुछ और देशों से भी समर्थकों को फंडिंग हुई।

यानि खूब पैसा भी इकट्ठा हुआ खालिस्तान के नाम पर हिंसक गुट बनाकर हत्याएं-धमाके , खूनखराबा करने वाले जो बचे खुचे हैं वो जेलों में हैं, कुछ छूट गए हैं और कई इस दुनिया में नहीं हैं।

जो हैं भी अब उम्र के उस पड़ाव में हैं जिसमें कुछ बवाल नहीं कर पाते। कई विदेशों में राजनीतिक शरण के नाम पर वहीँ जमे हुए हैं। खालिस्तान बनाने के नाम पर पैसा जमा करते हैं।

इस स्थिति का फायदा उठाने वाले विदेश में भी हैं और देश में भी हैं जिनमें से शायद एक अमृतपाल सिंह है। एक ऐसा शख्स जिसे चंद महीने पहले तक कोई नहीं जानता था वो रातों रात ऐसी किसी ( खालिस्तान ) बड़ी अवधारणा का लीडर कैसे बन गया या मान लिया गया जिस अवधारणा के बूते पर देश खड़ा करने का ऐलान किया गया था ?

ये सवाल उठना लाज़मी है, कुछ महीने पहले तक इस अमृतपाल का परिचय मात्र यही था कि इसने खुद को अभिनेता दीप सिद्धू की मौत के बाद उसके संगठन ' वारिस पंजाब दे ' का चीफ ऐलान कर दिया था।

दीप सिद्धू वही है जिसने किसान आन्दोलन के दौरान दिल्ली में लाल किले पर तिरंगे के स्थान पर खालसा पंथ का ध्वज फहराया था।

हमारे मीडिया बुद्धिजीवियों ने इसे ' खालिस्तान ' का झंडा बताकर वैसे ही प्रचारित किया था जैसे कई बार ' इस्लाम ' के परचम को पाकिस्तान का झंडा बता दिया जाता है। एक सड़क हादसे में दीप सिद्धू की मौत हो गई थी।

खैर , असलियत ये है कि सारा किस्सा शुरू हुआ अजनाला थाने पर हमले और वहां अमृतपाल के उस साथी को छुड़ाने की घटना से जिसकी पृष्ठ भूमि एक लड़की और लडके के बीच के संबंधों में आई खटास है।

लड़की ने नौजवान पर धोखा देने या यूं कहें कि शादी के बहाने संबंध बनाने का इलज़ाम लगाया। ये नौजवान उस अमृतपाल सिंह का करीबी है।

लड़की को इंसाफ़ दिलाने के लिए जिस शख्स ने पहल की उसको बंधक बनाकर बुरी तरह पीटा गया।

पीड़ित ने जब FIR कराई तो पुलिस मारपीट करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने लगी।

इसी केस पकड़े गए साथी तूफ़ान को अमृतपाल का गुट थाने पर हमला करके छुडा ले गया और इसके लिए ' गुरु ग्रन्थ साहब ' की आड़ ली गई।

अब जब पुलिस और तमाम एजेंसियों ने कार्रवाई शुरू की तो हैरान करने वाली खबरें आ रहीं हैं कि अमृतपाल और उसके साथी खालिस्तान बनाना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने हथियारों का सहारा लेना था।

पंजाब के कुछ दशकों के इतिहास के बारे में समझ रखने वाला भी इस बात पर यकीं नहीं कर सकता कि ऐसी तैयारी होगी या कुछ ही महीनों में हो सकती है।

यहां तक कि इसके लिए ' आनंदपुर खालसा फ़ोर्स ' बना ली गई . हथियार ही नहीं बुलेट प्रूफ जैकेटें भी छापे में मिलीं जिनपर AKF लिखा हुआ था।

 ट्रेनिंग भी हुई, इनके विदेशों से भी संबंध की बात कहीं जा रही है।

अगर इतनी बड़ी साजिश है तो ये हमारी पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की क़ाबलियत पर संदेह पैदा करता है।

मतलब ये कि अगर अजनाला थाने वाली घटना न हुई होती तब तो इस साज़िश के तहत बहुत कुछ भयानक हो सकता था।

वैसे इत्तेफाकन हमारी एक बड़ी ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ #RAW के चीफ सामंत गोयल भी पंजाब कैडर के आईपीएस अफसर हैं और सबसे तेज़ तर्रार कही जाने वाली एन आई ए #NIA के मुखिया यानि डायरेक्टर दिनकर गुप्ता भी पंजाब के आईपीएस हैं।  कुछ अरसा पहले तक तो वो पंजाब पुलिस के प्रमुख ही थे।

खैर अब पंजाब के इस मामले को तूल देने के लिए अमृतपाल की ' सरबत खालसा ' बुलाने की मांग पर तरह तरह के समाचार , बयानबाज़ी और परिचर्चाओं का सहारा लिया जा रहा है। ये बहसबाजी ज़्यादातर इकतरफा होती है।

अमृतपाल को सिख समाज का लीडर बनाकर पेश किया जा रहा है. उधर दूसरी तरफ पुलिस एजेंसियां हर उस उस बंदे के पीछे पड़ रहीं हैं जिसका ' वारिस पंजाब दे ' से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर साधारण सा ताल्लुक रहा है।

दीप सिद्धू ने इस संस्था को पंजाब के मुद्दों को उजागर करने या उनके लिए संघर्ष करने को बनाया था जिसपर अब ' खालिस्तान ' या यूं कहें कि अलगाव का ठप्पा लग गया है।

पंजाब के युवाओं में असंतोष है जिसके बहुत से कारण हो सकते हैं।

नशे में लिप्त होना भी उनकी एक बड़ी समस्या है. खेती किसानी से वो हट रहा है।

अच्छा रोज़गार पूरे देश में नहीं है तो पंजाब सरकार तो वैसे ही कंगाली जैसी हालत में दशकों से है।

यहां हर कोई विदेश जाने को लालायित है. ज़मीन जायदाद बेचकर , क़र्ज़ लेकर माँ बाप भी उसे विदेश भेजने के जुगाड़ में लगे रहते हैं।

एक उम्मीद उनको ये भी होती है कि वहां जाकर डॉलर भेजता रहेगा और पक्का हो गया तो उनको भी बुला लेगा।

दर्जनों पंजाबी फिल्मों में ये मानसिकता प्रमुखता से दिखाई भी जाती है।

 

 



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