जनतांत्रिक मूल्यों का अर्थ आलोचना के साथ विकल्प भी सुझाना होता है

खरी-खरी            Mar 13, 2023


राकेश दुबे।

आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में भले ही कभी न गये हों। शाखा में गाये जाने वाला गीत “भला हो जिसमें देश का वो काम सब किए चलो” न सुना हो।

परंतु आज देश के भीतर बाहर जो भी कहा-सुना जा रहा है, उसे देशहित नहीं कहा जा सकता।

इस वाद विवाद में ‘देश का भला’ क़तई नहीं है। इसकी शुरुआत किसने की और क्यों की?

और अब जिस तरह से देश के बाहर और भीतर जो कुछ कहा-सुना जा रहा है उसमें देश हित खोजना मुश्किल है।

राहुल गांधी विदेश में जो कुछ कह सुन आए हैं और उसके जवाब में जो कुछ कहा सुना जा रहा है क्या ठीक है?

ठीक तो वो बात भी नहीं थी की देश में पिछले 75 सालों में कुछ नहीं हुआ।

आज भाजपा के कुछ नेता कह रहे हैं कि राहुल गांधी को देश के बाहर भारत सरकार की आलोचना नहीं करनी चाहिए।

सब जानते हैं पिछले दिनों राहुल गांधी को इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय में आमंत्रित किया गया था, जहां उन्होंने भारत की वर्तमान स्थिति के बारे में भाषण दिया था।

फिर ब्रिटिश संसद में भी उन्हें बुलाया गया और वहां भी उन्होंने कुल मिलाकर वही सब दुहराया जो कैंब्रिज विश्वविद्यालय में कहा था।

 'वही सब' अर्थात भारत में जनतंत्र के लिए उत्पन्न 'खतरों की कहानी’।

देखा जाये तो इस गाथा में ऐसा कुछ नया नहीं था जो राहुल गांधी ने देश की संसद में, और देश की सड़कों पर नहीं कहा है।

अपनी 'भारत जोड़ो यात्रा' के दौरान भी राहुल कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक इस बात को दुहराते रहे हैं कि देश की सरकार जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों को अंगूठा दिखा रही है।

 विपक्ष को अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जा रहा, देश की स्वायत्त संस्थाओं का दुरुपयोग किया जा रहा है आदि-आदि।

और यही सब उन्होंने विदेश -यात्रा के दौरान कहा, वैसे भारत कि स्थिति का हर क्षण कूटनीतिक विवेचन विश्व में होता ही है।

कुछ हद तक भारतीय जनता पार्टी की सरकार और पार्टी, दोनों की इस आपत्ति से सहमत हुआ जा सकता है कि विदेश में जाकर इस तरह की आलोचना देशहित में नहीं है।

इसके जवाब में कांग्रेस पार्टी की ओर से दो बातें कही गई हैं- एक तो यह कि सरकार देश नहीं होती, सरकार की आलोचना देश की बुराई करना नहीं होती और दूसरी यह कि यदि ऐसा करना अपराध है तो हमारे प्रधानमंत्री स्वयं अमेरिका, जर्मनी जैसे देशों में जाकर पिछली सरकारों और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बारे में प्रतिकूल भी कहते रहे हैं।

यही नहीं, प्रधानमंत्री पिछले आठ-दस साल में हर मंच पर यह कहते रहे हैं कि 75 साल में देश में कोई विकास नहीं हुआ, इसमें इस बात का झोंका कि देश का असली विकास वर्ष 2014 से ही शुरू हुआ है, उचित नहीं है।

देश निर्माण तो एक सतत प्रक्रिया है, किसी समयावधि में कम किसी में ज़्यादा हो सकता है। इसे लेकर किसी की निंदा और किसी के गुणगान से चुनाव जीत सकते हैं, पर इस क़वायद को देश के भले की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

इसमें कोई किंतु- परंतु नहीं है कि राहुल गांधी ने देश के बाहर जाकर देश की सरकार के काम की, काम के तरीकों की, आलोचना की है, लेकिन सच यह भी है कि ऐसी ही बातें पिछली सरकारों के बारे में प्रधानमंत्री मोदी भी कहते रहे हैं और भाजपा द्वारा निरंतर कहा जा रहा है।

यदि कुछ गलत कहा-सुना गया है, तो देश के हित में ऐसा दोनों ने नहीं किया है। यूँ तो यह अब अपराध नहीं है - इक्कीसवीं सदी में जबकि दुनिया इतनी छोटी हो गयी है कि देशों के बीच दीवारों का कोई मतलब नहीं रह गया है।

ये दीवारें इतनी पतली हैं कि कमरों के भीतर बैठकर कुछ कहने और कमरों के बाहर उसी बात को दुहराने में कोई अंतर नहीं है।

वैसे तो कैंब्रिज विश्वविद्यालय में, और ब्रिटेन की संसद में भी राहुल गांधी ने जो कुछ कहा है, उसे ग़लत न मानते हुए भी इतना तो कहा जा सकता है कि इस मौके पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी से कुछ बेहतर कह-सुन सकते थे।

वास्तव में यही समय और अवसर था जब वे देश की वर्तमान सरकार की रीति-नीति की खामियों को सामने लाने के साथ-साथ अपनी पार्टी कांग्रेस की ओर से एक वैकल्पिक व्यवस्था सामने रखते ।

अभी तो यही सुन रहे हैं, इनकी या उनकी पार्टी यदि सत्ता में आती है तो देश की बेहतरी के लिए काम करेंगे।

वैसे जहां प्रतिपक्षी दलों का दायित्व बनता है कि वे विरोधी की रीति-नीति की आलोचना करें, उसकी कमियां उजागर करें तो सत्तारूढ़ दल को अपने काम का सतत मूल्यांकन करना चाहिए ।

जनतांत्रिक मूल्यों का अर्थ ही आलोचना के साथ-साथ विकल्प भी सुझाना होता है।

उभय पक्ष का दायित्व है कि मतदाता को यह बताया जाये कि उसे क्यों ‘ठगा’ जा रहा है और उसे नुकसान से कैसे बचाया जा सकता है?

अभी चल रही वाद-विवाद प्रतियोगिता में “देश का भला” नहीं है।

 

 



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