हेमंत कुमार झा।
पिछले दिनों अखबार में एक कोने में छोटी सी खबर थी कि पटना के एक बड़े कॉलेज में आउट सोर्सिंग पर काम कर रहे 46 कर्मचारियों के बीच गर्म कपड़े और कंबल का वितरण किया गया।
शीत लहर में हम अक्सर ऐसी खबरें देखते हैं जिनमें भिखमंगों, फुटपाथ वासियों, रिक्शा चालकों आदि को कपड़ों और कंबलों का दान किया जाता है। अब ऐसे अनुग्रह प्राप्त करने वालों में सरकारी संस्थानों में प्रतिदिन सात-आठ घंटे ड्यूटी बजाने वाले कर्मियों के नाम भी शामिल हो रहे हैं।
इनमें क्लर्क भी होंगे, चपरासी और सिक्युरिटी गार्ड जैसे कर्मी भी होंगे। खबर में बताया गया है कि दान स्वरूप स्वेटर और कंबल आदि प्राप्त कर वे कर्मी काफी खुश देखे गए और उन्होंने इस दया के लिए कॉलेज प्रबंधन को शुकिया कहा।
इस खबर को पढ़ने के बाद पिछले साल की अमेरिका की एक घटना याद आई। वालमार्ट कंपनी ने अपने निचले दर्जे के कर्मचारियों को खाद्य और कुछ अन्य आवश्यक सामग्रियां दान स्वरूप दीं। ऐसा यह कंपनी अक्सर करती है। कर्मचारियों ने कंपनी प्रबंधन को एक आवेदन दिया जिसमें उन्होंने लिखा, "हमें आपका यह अनुग्रह नहीं चाहिए। इसके बदले हम चाहते हैं कि आप हमें उचित वेतन दें ताकि हम अपनी और अपने परिवार की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी कर सकें। हम आपके संस्थान में कड़ी मेहनत करते हैं और हम नहीं चाहते कि इतनी कड़ी मेहनत करने के बावजूद हम या हमारा परिवार किसी भी तरह के दान या दया पर निर्भर हों। हम अपने परिश्रम की बदौलत आत्मसम्मान के साथ जीना चाहते हैं।"
वालमार्ट के कर्मचारियों का उक्त पत्र ऐसे प्रबंधनों और नियोक्ताओं के लिए सीख है जो अपने निचले दर्जे के स्टाफ के कड़े श्रम का लाभ तो लेते हैं लेकिन उनका घोर आर्थिक शोषण करते हैं और उन्हें इतना भी पारिश्रमिक नहीं देते कि वे अपनी मौलिक जरूरतों को भी पूरा कर सकें। यदा कदा किन्हीं अवसरों पर दान स्वरूप उन्हें कुछ एकस्ट्रा दे कर वे अपना अनुग्रह दर्शाते हैं और कर्मियों के भीतर सुलग रहे असंतोष को ठंडा करते हैं।
उल्लेखनीय है कि दुनिया भर की कंपनियों के प्रति एक बड़ी शिकायत यह उभर कर सामने आई है कि वे अपने निचले दर्जे के कर्मियों के अथक परिश्रम की बदौलत अपने मुनाफे का ग्राफ तो बेहद ऊंचा कर रही हैं लेकिन उन्हें परिवार सहित जीने लायक वेतन नहीं देती।
अब इसमें हमारे देश और राज्यों के सरकारी संस्थानों का नाम भी जुड़ रहा है। हालांकि, किसी भी सरकारी कॉलेज में तृतीय या चतुर्थ श्रेणी के पदों पर विधिवत नियुक्त कर्मचारियों का वेतन अच्छा खासा होता है और उन्हें अपने परिवार के साथ आत्म सम्मान से जीने के लिए किसी तरह के दान या अनुग्रह की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन अब तो चलन बढ़ रहा है कि विधिवत नियुक्त नहीं करेंगे, एजेंसियों के माध्यम से आउट सोर्सिंग पर कर्मचारी लाएंगे, उनसे कड़ी ड्यूटी लेंगे, उन्हें कोई अधिकार नहीं देंगे और इतना कम वेतन देंगे कि वे दिहाड़ी मजदूर टाइप के हो कर रह जाएंगे। स्थायी रूप से नियुक्त किसी कर्मी का जितना न्यूनतम वेतन होता है उसका एक चौथाई भी आउट सोर्सिंग से नियुक्त लोगों को नहीं मिलता।सेवा सुरक्षा आदि की तो बात ही बेमानी है। कब नौकरी से निकाल दिए जाएंगे, कोई ठिकाना नहीं।
इसमें गौर करने की बात यह है कि सरकारी संस्थान आउट सोर्सिंग पर कर्मचारियों को जिन एजेंसियों के माध्यम से नियुक्त करते हैं उन एजेंसियों को प्रति कर्मचारी प्रति माह अच्छी खासी राशि का भुगतान करते हैं। ये एजेंसियां नियुक्त कर्मी और नियोक्ता संस्थान के बीच में बिचौलिया हैं जो बिना कुछ किए धरे बहुत कमाई करती हैं।
उत्पादन की प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण और "कॉस्ट एफिशिएंसी" के लिए आउट सोर्सिंग से काम लेना कंपनियों के लिए एक जरूरी कदम है लेकिन सरकारी संस्थानों में इस प्रवृत्ति का प्रसार कर्मियों के आर्थिक शोषण का कारण बन गया है।
ऐसे कर्मचारियों की त्रासदी है कि वे अपने अधिकारों की परिभाषा तक नहीं पढ़ सकते क्योंकि कोई अधिकार हैं ही नहीं। उन्हें इतना निरीह बना दिया गया है कि वे दान में मुफ्त के कंबल या स्वेटर पा कर निहाल हुए जा रहे हैं अपने शोषक नियोक्ताओं का धन्यवाद कर रहे हैं।
शोषण के विरुद्ध शोषितों की आवाज न उठे इसलिए कर्मियों को आत्मसम्मान से रहित बना देने का षड्यंत्र कितना सफल हो रहा है, कॉलेज के द्वारा कंबल-स्वेटर दान और दान लेने वालों की खुशी में इसका उदाहरण हम देख सकते हैं।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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