हेमंत कुमार झा।
1990 के दशक में, जब हमारे बैच या उसके कुछ आगे-पीछे के बैच के लोग पढ़-लिख कर रोजगार की दुनिया में जगह तलाशने निकले तो उन्हें अपने सामने एक वीराने के सिवा कुछ नजर नहीं आया।
कहीं कोई वैकेंसी नहीं। अखबारों में रोज खबरें छपा करती थीं कि सरकार की माली हालत बेहद खस्ता है और इस कारण सरकारी भर्त्तियों पर अघोषित रोक है।
तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह अपने वक्तव्यों में उम्मीद जताते थे कि आर्थिक उदारीकरण अपना असर दिखाने में कुछ समय लेगा और उसके बाद रोजगार के क्षेत्र में अवसरों की भरमार होगी।
बिहार-यूपी के हमारे जैसे छात्रों-नौजवानों को बचपन से ही अभिभावक और शिक्षक सरकारी नौकरी के लिये तैयार करने में लगे रहे थे। हम लोग भी यही सोच कर मिडिल स्कूल से एम ए तक की पढ़ाई में लगे रहे कि एक दिन कलक्टर-प्रोफेसर-बीडीओ से लेकर क्लर्क-मास्टर तक बन जाएंगे।
लेकिन, यहाँ तो सन्नाटा था। संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों में हर साल वैकेंसीज कम होती जा रही थी, विश्वविद्यालयों के कर्त्ता-धर्त्ता कसम खाए बैठे थे कि भर्त्तियाँ नहीं करनी हैं। कभी-कभार कोई छोटी-मोटी वैकेंसी आई नहीं कि अभ्यर्थियों का रेला टूट पड़ता था।
मीडिया उदारीकरण के पक्ष में माहौल बना रहा था और मध्य वर्ग, जो अपने बच्चों को सरकारी नौकरी में देखना चाहता था, जो अपनी बेटियों के लिये किसी भी तरह सरकारी नौकरी वाला दामाद चाहता था, उदारीकरण और निजीकरण का न सिर्फ स्वागत कर रहा था,बल्कि इसके पक्ष में बहस तक करने को उतारू नजर आता था।
एक माहौल बन गया था कि सरकारी कंपनियां देश के लिये बोझ हैं, सरकारी कर्मी सरकार के लिये बोझ हैं, और कि सरकारी पद जितने खत्म किये जाएंगे, देश का उतना भला होगा।
'रोजगार का मतलब सरकारी नौकरी नहीं"...यह सिर्फ सरकार का ही प्रिय वक्तव्य नहीं था, मध्यवर्गीय सयाने लोग भी इस तरह की बातें करते मिलते थे।
तो, बैंकों में, रेलवे में, पब्लिक सेक्टर की अन्य इकाइयों के साथ ही एसएससी आदि में भी वैकेंसी या तो नदारद थी या बहुत कम आ रही थी।
1996-97 आते-आते हालात ऐसे बन गए थे कि अच्छे-खासे युनिवर्सिटी टॉपर्स प्राइमरी स्कूल की मास्टरी की लाइन में लग गए थे, बीटेक किये लोग बैंक क्लर्की की फार्म निकलने का इंतजार कर रहे थे। और, जो सरकारी प्राइमरी मास्टर बन गए उनके यहां बड़े बड़े अधिकारी गण भी अपनी बेटियों की शादी के लिये दौड़ लगाने लगे थे।
उस दुःकाल में, जब बड़े सरकारी पद वाले अविवाहित युवाओं का अकाल सा पड़ गया था, स्कूल टीचर की डिमांड भी काफी बढ़ गई थी। बस, उसे सरकारी होना था।
हालांकि, प्राइवेट नौकरियों का भी अकाल सा ही था तब। लेकिन, उम्मीद जताई जा रही थी कि खुलता हुआ बाजार रोजगार के क्षेत्र में क्रांति लाएगा एक दिन। आज अगर बाप की पीढ़ी इस संक्रमण काल में दिक्कतों का सामना कर रही है तो कल बेटे की पीढ़ी के सामने रोजगार की विकट समस्या नहीं होगी।
तब से ढाई-तीन दशक बीते। भारतीय संसद में पहले उदारवादी बजट के तो बाकायदा तीन दशक बीते।
वह 1991 था, यह 2021 है, 30 वर्ष...ये क म नहीं होते। इतनी अवधि में पीढियां बदल जाती हैं।
आज के रोजगार परिदृश्य को देखें। सरकारी भर्त्तियों पर लगभग ताले लगे हुए हैं, प्राइवेट सेक्टर मंदी से त्रस्त हैं, जिस कारण रोजगार के क्षेत्र में भी भारी मंदी है।
नहीं, कोरोना को मत कोसिए अभी। कोरोना पूर्व काल...यानी जनवरी, 2020 को याद करें। देश में बेरोजगारी का स्तर पिछले 45 वर्षों में अधिकतम हो गया था।
1990 के दशक में भी बैंकों की भर्त्तियाँ नगण्य स्तरों पर थी। बाद में हालात कुछ सुधरे लेकिन फिर...इधर वर्षों से वही सन्नाटा।
रेलवे में अलग वीरानी छाई है। एसएससी आदि की भर्त्तियाँ घटती जा रही हैं। कालेजों, विश्वविद्यालयों में आधे से अधिक पद खाली हैं, केवल बिहार में स्कूल शिक्षकों के तीन चार लाख पद खाली हैं।
कुल मिला कर बेरोजगारों में त्राहि-त्राहि मची है। क्या सरकारी, क्या प्राइवेट...नौकरियों का घोर अकाल है।
1990 के दशक में बाप की पीढ़ी रोजगार के लिये भटक रही थी, 2020 के दशक में बेटे की पीढ़ी उससे भी बड़े रोजगार संकट से दो-चार है।
आज भी विशेषज्ञ यही कह रहे, सरकार की माली हालत खस्ता है, तब भी यही कह रहे थे।
आज भी मध्य वर्गीय सयाने लोग निजीकरण की अंधी मुहिम का गुणगान कर रहे, हालांकि, तब की तरह आज भी उन्हें बेटे के लिये सरकारी नौकरी चाहिये, दामाद तो सरकारी नौकरी वाला चाहिये ही।
तो...तब और अब के बीच में फर्क क्या आया?
सरकारी कर्मियों से पेंशन छीन ली गई, प्राइवेट कर्मियों को मालिकान के रहमोकरम पर छोड़ने वाले तथाकथित 'श्रम सुधार कानून' पारित किए गए, परमानेंट की जगह कांट्रेक्ट और आउट सोर्सिंग को प्रोत्साहित किया जाने लगा।
यानी बाप से बड़ा संकट बेटे की पीढ़ी के सामने है।
पता नहीं, पोता जी की पीढ़ी का क्या होगा...।
तीन दशकों की यात्रा के बाद मुक्त बाजार का सिद्धांत सन्देहों के दायरे में आ गया है। इसकी अमानवीयता जैसे-जैसे उजागर हो रही है, विचारक गहन मंथन के दौर से गुजर रहे हैं। अर्थशास्त्र में हालिया वर्षों के नोबल पुरस्कार विजेताओं को देखें। वे मुक्त आर्थिकी को मानवीय चेहरा देने की वैचारिक कोशिशों के तहत पुरस्कृत किये जा रहे हैं।
यानी, मुक्त आर्थिकी सिर के बल खड़ी होने की नौबत में है। भारत ही क्या, धनी यूरोपीय देश भी भारी मंदी और रोजगार के संकट से दो चार है। आर्थिक विषमता सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही गई, वह अलग।
यूरोप के लोग आंदोलित हैं, अमेरिका में बेचैनी बढ़ रही है, लैटिन अमेरिका के अनेक देशों की दुर्दशा दुनिया जानती है, एक दौर में कृत्रिम चमक से इतराते 'एसियान' देशों की अर्थव्यवस्था तो कब की लुढ़क कर जमीन पर आ गिरी थी।
भारत में भी अयोध्या, काशी के बाद मथुरा की 'मुक्ति' का आह्वान अनसुना किया जा रहा, क्योंकि बेचैनियां यहां भी कम नहीं।
हालांकि, भारत में लोग सिर्फ बेचैन ही हैं। वैचारिक आंदोलनों के प्रति यहां कोई उत्साह नहीं फिलहाल।
समझ नहीं आ रहा कि रोजगार, जो किसी भी समाज की प्राथमिक जरूरत है, किसी भी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने वाली चीज है, इस क्षेत्र में बीते तीन दशकों में कितनी और कैसी क्रांति आई।
तब भी रेगिस्तान का सन्नाटा था, आज भी मरघट का वीराना है।
तीन दशक कम भी तो नहीं होते।
लेखक पाटलीपुत्र यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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