राकेश दुबे।
कल्पना कीजिये, एक ऐसे समाज के भविष्य की जिसमें शिक्षा की रोशनी के वाहक कहे जाने वाले अध्यापक रौशनी गुल कर रहा हो, फर्जी डिग्री बेचने के आरोप में कुलपति गिरफ्तार हो, वह कैसा समाज बनेगा ? भोपाल में यह सब हो चुका है।
सजग सरकार और उससे ज्यादा सजगता का दम भरने वाले प्रतिपक्ष की नाक के नीचे। सब जानते हैं, फिर भी चुप हैं।
हैदराबाद पुलिस ने भोपाल की सर्वपल्ली राधाकृष्णन यूनिवर्सिटी के एक वर्तमान और एक सेवानिवृत्त उपकुलपति को बीटेक से लेकर एमबीए कोर्स तक में पैसे के बदले फर्जी डिग्रियां देने के आरोप में गिरफ्तार किया है।
जिन्हें कुछ कहना था, कुछ करना था, वे भी चुप हैं।
इस बड़े रोग से छुटकारा पाने के लिए, शिक्षा बचाने की खातिर जन-आंदोलन करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। सवाल आपसे है, कुछ करेंगे ?
एक समाज जिसने भ्रष्टाचार को लगभग सामान्य चलन में ही लेना शुरू कर दिया हो, ऐसे में क्या हैरानी कि हमें शिक्षा क्षेत्र में निरंतर घोटालों के बारे में खबरें न मिले?
लेकिन भ्रष्टाचार के ऐसे सामान्यीकरण के बावजूद यहां तक कि सामाजिक स्वीकार्यता होने के बाद जब हम पाते हैं कि एक उप-कुलपति फर्जी डिग्रियां बेचने में शामिल है या कोई मंत्री, कोई पूर्व मुख्यमंत्री और उसके सहयोगी तमाम प्रक्रिया को तोड़-मरोड़ रहे हैं।
तो ऐसे में चुप्पी साधे रखना मुश्किल काम है, इससे प्रदेश का भविष्य जो जुड़ा है।
गुस्से की वजह समाज है, जो खुद अपनी शिक्षा की प्रभुता को तहस-नहस कर रहा है और शिक्षण के पेशे का अवमूल्यन कर रहा है।
ऐसे हालात में न तो कोई प्रदेश बच्चों के भविष्य को बचा सकेगा और न ही उनके अंदर की रचनात्मकता को सक्रिय कर पाएगा।
हम लगभग भूल चुके हैं कि ऐसा समाज जो शिक्षा की रोशनी के वाहक कहे जाने वाले अध्यापक को गंवा दे।
यह अलग बात वह पहले ही अपना अस्तित्व खो चुका है और निरंतर खोता जा रहा है।
याद करें कुछ महान उप-कुलपतियों को, जैसे कि आशुतोष मुखर्जी और गोपालास्वामी पार्थसारथी।
स्मरण करें सीवी रामन और सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे महान प्राचार्यों को और याद करें बहुत से कम मशहूर, किंतु अत्यधिक प्रतिबद्ध अध्यापकों को, जिनके प्रेरणापुंज मारिया मोंटेस्सरी और गिजूबाई बढेका जैसी हस्तियां थीं।
उनकी कोशिश रहती थी कि शिक्षा की सृजनशील बारीकियों और जिंदगी संवारने वाले सबक को मूर्त रूप दिया जा सके।
सोचिए उस पीढ़ी के बारे में जिसे पाओलो फ्रेरे और इवान इल्लिच जैसी विभूतियों से संवाद करने का आंनद लेना पसंद था या जिसको जिद्दू कृष्णामूर्ति के शिक्षा संबंधी विचार सुनना अच्छा लगता था।
याद करें, हमारे कुछ सबसे बेहतरीन दिमागों को इतिहासकार, भौतिकी-शास्त्री, समाजशास्त्री जिन्होंने मोटी पगार वाली नौकरियां छोड़कर ग्रामीण और हाशिए पर आते तबके के बच्चों के साथ काम करना चुना|
नई पीढ़ी हमारे कुछ कुख्यात उपकुलपतियों की करतूतों की कहानियां सुनकर भ्रमित है।
मध्यप्रदेश के भोपाल की तरह हिमाचल प्रदेश में एक विश्वविद्यालय का अध्यक्ष भी 55000 जाली डिग्रियां बेचने का आरोपी है।
ऐसे मामलों में सुनाई जाने वाली सजा भी अजीब है।
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल के उप-शिक्षा मंत्री की बेटी को हुक्म दिया कि उसने वर्ष 2018 से लेकर जो भी वेतन बतौर शिक्षक पाया है, वह लौटाया जाए।
जिस विद्यालय में बतौर उप-शिक्षक उसने काम किया था, उसी के प्रांगण में घुसने तक से वर्जित किया गया, क्या इससे बदतर कुछ और नहीं हो सकता था ?
दूसरी वस्तुओं की तिजारत की तरह शिक्षा को भी व्यापार बना देने की पूरी छूट से यह दुर्दशा हुई है।
जैसे कोई पैसे के बदले कॉफी का प्याला पीता है वैसे ही बीटेक, बीएड, एमबीए या यहां तक एमबीबीएस डिग्री भी बिक रही हैं।
शिक्षा क्षेत्र में राजनीतिक वर्ग और कुछ व्यापारियों का अपवित्र गठजोड़ बनने के परिणामस्वरूप मैनेजमेंट और चंदा कोटे के प्रावधान वाले घटिया दर्जे के मेडिकल कॉलेज, टेक्निकल यूनिवर्सिटियां यहां-वहां कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं।
आज सवाल यह है,क्या हम अपने बच्चों को वास्तव में शिक्षा दिलवाना चाहते हैं?
क्या अपने बच्चों की जरूरत की खातिर हम सड़कों पर उतरकर यह मांग करने को तैयार हैं, कि उन्हें स्कूलों में बढ़िया पुस्तकालय, रचनात्मकता और प्रयोग आधारित शिक्षा प्रणाली और अच्छे अध्यापक मिलें।
जो उनको अहसास दिलवाएं कि शिक्षा केवल इम्तिहान उत्तीर्ण करने की तकनीक न होकर आवश्यक रूप से बौद्धिक ज्ञानात्मकता एवं सुरूचिपूर्ण कलात्मकता का संगम है।
या वह संवेदनशीलता जो विनम्रता, सहृदयता और परोपकार जगाए। क्या हम अपनी बढ़िया सार्वजनिक यूनिवर्सिटियों को राजनेताओं की निरंतर गिद्धदृष्टि से बचाने की खातिर आवाज उठा सकते हैं?
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