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उत्तरप्रदेश में अगर भाजपा जीती तो यह​ शोध का विषय होगा

खरी-खरी            Feb 21, 2022



राकेश कायस्थ।
2017 में यूपी का चुनाव प्रचार ज्यादातर लोगों को याद होगा। दोनों तरफ से गर्मा-गर्मी थी। अचानक गुजराती गधे का जिक्र आया और मोदीजी ने बीजेपी के अश्वमेध यज्ञ में घोड़े के बदले गधा जोत दिया।

खुद को गधे की तरह परिश्रमी बताने लगे। हार्डवर्क बनाम हार्डवर्क का नैरेटिव सेट किया जाने लगा। कब्रिस्तान बनाम श्मशान एक पक्ष था लेकिन 2017 के चुनाव में बीजेपी का कैंपेन पूरी तरह `गरीब के बेटे' से महानायक बने मोदी पर केंद्रित था, जिसने नोटबंदी करके अमीरों की कमर तोड़ दी और गरीबों के बीच मुफ्त में सिलेंडर बांट रहा है।

मोदी प्रतीकों का इस्तेमाल करने में माहिर हैं। एक वाक्य पकड़कर पूरी कहानी बनाने के उस्ताद हैं। लेकिन अखिलेश यादव ने इस बार उन्हें ऐसा कोई मौका नहीं दिया है, पर मोदी अखिलेश को लगातार मौके दे रहे हैं।

2017 और 2022 के बीच का सबसे बड़ा फर्क यही है। मोदी अखिलेश को उनके पाले से बाहर खींच लाने में नाकाम रहे हैं। हताशा में जुबान लड़खड़ा रही है। उनके कैंपेन का सुर कुछ ऐसा है, जैसे वो विपक्ष में हों और सरकार अखिलेश यादव चला रहे हों।

मोदी और अमित शाह के भाषणों में सैकड़ों बार दोहराया जाने वाला वाक्य है अगर सपा सत्ता में आई तो।

बीजेपी के शीर्ष नेताओं के भाषण चुनाव की अब तक की कहानी बयान कर रहे हैं।

आखिर नरेंद्र मोदी जैसे चौकस चालाक राजनेता ये क्यों नहीं समझ पाये कि साइकिल को आतंकवाद के प्रतीक के रूप में स्थापित करने की कोशिश बेहद बचकानी है, जिसका उल्टा असर होगा। समाजवादी पार्टी गर्वनेंस के नाम पर वोट मांग रही हैं।

प्रियंका गांधी दावा कर रही हैं कि वो मुद्दा आधारित राजनीति वापस लौटाना चाहती हैं। केजरीवाल अपने दिल्ली मॉडल का हवाला दे रहे हैं। मगर भाजपा?

बीजेपी के पूरे कैंपेन में नफरत और नकारात्मकता के सिवा कुछ और नहीं है। इसके बावजूद अगर बीजेपी चुनाव जीतती है तो यह समाजशास्त्र और समूह मनोविज्ञान का अध्ययन करने वालों के लिए शोध करने लायक विषय होगा।

फेसबुक वॉल से।

 



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