नियत में खोट नहीं है तो अन्नदाता के लिए कालीन की जगह कीलें क्यों

खरी-खरी            Feb 14, 2024


 

कीर्ति राणा।

जिन पांच विभूतियों को सरकार ने भारत रत्न से नवाजा उनमें एक कृषि क्रांति के जनक स्वामीनाथन की आंखें भी अन्नदाता पर बरसाए जाने वाले आंसू गैस के धुएं से जल रही होंगी।

किसानों की दुर्दशा को दूर करने के लिए अपनी रिपोर्ट में उन्होंने एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) देने की सिफारिश दशकों पहले की थी। कांग्रेस सरकार को हर मामले में कोसने वाली सरकार ने भी एमएसपी वाली सिफारिश को लागू करने में तत्परता नहीं दिखाई।

कृषि मंत्री रहे नरेंद्र सिंह तोमर तो मप्र विधानसभा स्पीकर का दायित्व सम्हालने के बाद उस वक्त किसानों से किए वादों को अब क्यों याद रखेंगे?

अब मोदी सरकार के मंत्री कह रहे हैं किसानों को दिल्ली क्यों आना चाहिए, सरकार तो एमएसपी से अधिक सहूलियत दे रही है किसानों को?

सरकार यदि किसानों के हितों को लेकर इतनी ही सजग है तो क्या कारण है कि उन्हें कीलें, रबर की गोलियों, आंसू गैस का सामना करते हुए दिल्ली आना पड़ रहा है? सरकार को तो अन्नदाता की राह में रेड कॉरपेट बिछा कर दिल्ली में चर्चा के लिए पुष्पवर्षा करते हुए खुद आमंत्रित करना चाहिए।

नीयत में खोट नहीं है तो किसानों को रोकने के लिए आतंकियों से निपटने जैसी रणनीति क्यों? दो साल बाद फिर से बने ये हालात बता रहे हैं कि सरकार को उस वक्त हुई चर्चा के मुद्दे भले ही याद नहीं हों लेकिन किसान संगठनों ने भी उस आग को बुझने नहीं दिया है।

लखीमपुर खीरी कांड तो देश के आम नागरिक भी नहीं भूले हैं जब आंदोलनरत किसानों पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे आशीष ने जीप दौड़ा दी थी और किसान दलजीत सिंह की मौत हो गई थी।

 मान लिया जाए कि नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों ने किसानों के हित में कुछ नहीं किया तो 400 पार का दावा करने वाली सरकार ने बीते वर्षों में ऐसा क्या कर दिया कि उन्हीं खेतों में किसान क्रांति के बीज फूट पड़े?

क्या किसान चुनावी मौसम में ही अन्नदाता, भारत भाग्य विधाता रहता है। ये वर्ग क्या मेरे प्यारे भाइयों-बहनों से बहिष्कृत है।

संतों के चरणों में लोटपोट होने वाले धमार्नुरागियों को तो पता ही होगा किसानों के हक की लड़ाई प्रमुखता से लड़ने वाले किसान नेता, दंडी स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्म इसी महीने में (22 फरवरी 1889) को हुआ था। तब उन्होंने कांग्रेस और डालमिया सेठ के विरुद्ध पहला किसान आंदोलन किया था।

अंग्रेज तो चले गए, भारत की आजादी के बाद से किसान को अपने हक के लिए आंदोलन ही करते रहना पड़ा है। किसानों की निरंतर कमजोर होती आर्थिक हालत, बढ़ता कर्ज का बोझ, महंगी होती कृषि लागत के साथ घटती आमदनी जैसे कारण ही किसानों की आत्म हत्या और सरकार से आमने-सामने की लड़ाई के हालात पैदा करते रहे हैं।

भव्य राम मंदिर की स्थापना से तो किसान भी खुश हैं लेकिन राम राज्य भी तो स्थापित हो। कतर में मृत्युदंड की सजा से नौसैनिकों को बचाना यदि सरकार की उपलब्धि है तो किसानों की परेशानियों का स्थायी हल भी तो आमने-सामने की चर्चा से निकाला जा सकता है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और हिंदुस्तान मेल के संपादक हैं

 


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