राकेश कायस्थ।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में अब तक कम से कम 15 लोगों की मौत की खबर है। जो मीडियाकर्मी लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल के बाहर खड़े हैं, उनका कहना है कि यह संख्या बहुत ज्यादा हो सकती है। मारे गये तमाम लोग तीर्थयात्री थे जो प्रयाग राज में कुंभ स्नान के लिए ट्रेन पकड़ने स्टेशन आये थे। इससे पहले कुंभ मेले में के दौरान प्रयागराज में हुई भगदड़ में बड़ी संख्या में लोग मारे गये थे। घटनाएं स्तब्ध करने वाली हैं और विवश करती है कि हम बिंदुवार विचार करें कि देश में इस समय चल क्या रहा है—
- तीर्थस्थलों का महत्व ही इसलिए होता है कि वहां जाना सुगम नहीं होता, अन्यथा मॉल और किसी तीर्थ में फर्क क्या रह जाएगा। बिहार से बंगाल दूर नहीं है फिर भी वहां एक लोकोक्ति प्रचलित है—सब तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार। यही बात कुंभ पर भी लागू होती है। मेरी दादी अपने जीवनकाल में कुंभ सिर्फ एक बार गई थी। लेकिन उसी यात्रा की कहानियां हमें विराट हिंदू पहचान से जोड़े रखती थीं। कमोवेश हर धर्म में ऐसा ही होता है।
हज पर कोई बार-बार नहीं जाता। लंबे इंतज़ार के बाद नंबर आता है, नहीं आया तब भी कोई बात नहीं। बाप दादा या खानदान में कभी कोई गया होगा, उसकी कहानियां ही मन में धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव भरने के लिए पर्याप्त होती हैं।
- किसी भी तीर्थस्थल की अपनी एक सीमा होती है। सर्वोत्तम संसाधन झोंककर भी उसे इस लायक नहीं बनाया जा सकता कि वो अपनी क्षमता से पचास या सौ गुना लोगों का बोझ उठा सके। अगर दुर्घटनाएं ना हों तो ये अपने आप में ईश्वरीय चमत्कार है। इतनी बड़ी भीड़ को नियंत्रित कर पाना किसी सरकारी तंत्र के बूते की बात नहीं है।
- अच्छे तीर्थ प्रबंधन की पहली शर्त ये है कि सरकार ये एडवाइजरी जारी करे कि वहां जाने के जोखिम क्या-क्या हैं और लोग आना ही चाहते हैं किन बातों का ध्यान रखें। यानी सरकार परोक्ष रूप से लोगों को ये बताये कि अच्छे इंतजाम के बाद यहां आना दुष्कर है, इसलिए ना ही जायें तो ही बेहतर है।
- मगर हुआ इसका ठीक उल्टा। मोदी और योगी सरकार किसी सेल्समैन की तरह डुगडुगी बजाकर लोगों को बुलाती रही है। ऐसा लग रहा था, जैसे कुंभ `वाइब्रेट गुजरात’ या `प्रवासी सम्मेलन’ जैसा कोई सरकारी इवेंट हो। क्या केंद्र और राज्य सरकार को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि अगर भीड़ जरूरत से ज्यादा बड़ी थी, तो स्थितियां नियंत्रण से बाहर जाएंगी?
- नरेंद्र मोदी की जिद है कि मौजूदा समय में होनेवाली हर बड़ी चीज़ का श्रेय उन्हें मिले। इसी कड़ी में उन्होंने `राम को लाने’ का अश्लील जुमला गढ़ा और हिंदू समाज के बड़े हिस्से उसे स्वीकार भी कर लिया। योगी-मोदी ने ये जिद पकड़ रखी थी कि उनके कार्यकाल में सबसे ज्यादा कुंभ स्नान करने का रिकॉर्ड बने, जिससे वो साबित कर सकें कि पूर्ववर्ती सरकारें विधर्मी थीं और सिर्फ बीजेपी हिंदू-हितैषी हैं।
- इसी जिद ने सरकार को प्रयागराज कुंभ में आनेवालों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताने को प्रेरित किया। ये बात अपने आपमें हास्यास्पद है कि जो सरकार प्रयागराज भगदड़ में मरने वालों की संख्या ठीक-ठीक ना बता पा रही हो वो छाती ठोककर दावा कर रही है कि अब तक चालीस या पचास करोड़ लोगों ने कुंभ स्नान कर लिया है।
- निजी छवि चमकाने की सनक और राजनीतिक लाभ के लालच ने प्रयागराज के कुंभ में आनेवालों को वैज्ञानिक प्रयोगशाला में इस्तेमाल होनेवाला गिनी पिग बना दिया है। प्रयागराज में जिन पत्रकारों को शूट करने का मौका मिला उन्होंने बताया है कि भगदड़ का मुख्य कारण जरूरत से ज्यादा वीआईपी घाटों का निर्माण था। ये घाट किसी प्राइवेट बीच की तरह खाली थे, दूसरी तरफ जनता के स्नान वाले आम घाटों पर पांव धरने तक की जगह नहीं थी।
- कुंभ को लेकर पूरे देश में एक अलग किस्म का उन्माद पैदा हो गया, जिसे एक तरह का `फोमो’ यानी फियर ऑफ मिसिंग आउट सिंड्रोम कहा जा सकता है। सरकारी प्रयास से लोगों में एक तरह से ये भावना भरी गई कि अगर कुंभ में नहीं गये तो उनके हिंदू होने पर प्रश्न चिन्ह है। खाली घाट पर राजा की तरह डुबकी लगाते सेलिब्रिटीज ने सेल्फी पोस्ट करके देश की गरीब जनता के मन में इस बात की आकांक्षा भरी कि चाहे जैसे भी उन्हें भी इस बार के कुंभ में स्नान करना ही है। नतीजा देश के सामने है। दो बड़ी दुर्घटनाओं के अलावा प्रयागराज में जन-जीवन अस्त-व्यस्त है और आसपास के सैकड़ों किलोमीटर में अभूतपूर्व ट्रैफिक जाम।
- हिंदू जगत का कार्य-व्यापार स्वत:स्फूर्त तरीके से सदियों से चलता आया है। लेकिन बीजेपी-आरएसएस की कोशिश हर धार्मिक क्रियाकलाप पर नियंत्रित स्थापित करने की है। अखाड़ों का राजनीतिकरण पहले कभी इस तरह नहीं हुआ, जैसा इस बार के कुंभ में दिखाई दे रहा है। बीजेपी को इसका कितना राजनीतिक लाभ मिलेगा यह एक अलग सवाल है लेकिन हिंदू धर्म के लिए यह अच्छा नहीं है।
- जिस समाज में लोगों की जान बहुत सस्ती हो, वह समाज उत्तरोतर संवेदनहीन होता जाता है। लेकिन भारतीय समाज क्या शुरू से इतना ही अंसवेदनशील था? ये वही समाज है जो निर्भया कांड के बाद गुस्से से उबलता हुआ सड़कों पर आ गया था। ये वही समाज है, जिसे दो साल पहले केरल में गर्भवती हाथिनी की हत्या से इतना क्षोभ था कि सोशल मीडिया पर तूफान आ गया था।
फिर आखिर क्या कारण है कि प्रयागराज के कुंभ में मची भगदड़ में लोगों के मारे जाने पर आम प्रतिक्रिया होती है कि बड़े आयोजनों में ये सब तो होता रहता है? क्या वजह है कि बेहतर जिंदगी की तलाश में चोरी-छिपे अमेरिका गये लोग हथकड़ी और बेड़ी पहनाकर वापस लाये जाते हैं, तो आम प्रतिक्रिया होती है-- ये लोग इसी लायक थे।
- उदारता, करूणा, मानवता, प्रेम, त्याग और सहिष्णुता इन बड़े-बड़े शब्दों का इस्तेमाल हिंदू धर्म की प्रकृति को बताने के लिए किया जाता है। क्या आज के सामूहिक हिंदू व्यवहार में आपको ये बातें नज़र आती हैं? आक्रामकता, श्रेष्ठता बोध, घृणा और हिंसा अब हिंदू पहचान के केंद्रीय तत्व हैं। दुनिया के प्राचीनतम धर्म की अनुयायियों का एक बड़ा हिस्सा एक ऐसी भीड़ में बदलता जा रहा है, जिसे कोई राजनीतिक शक्ति मनचाहे ढंग से नियंत्रित कर सकती है।
संघ के दुलारे और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने अपनी नई किताब में इन चिंताओं पर विस्तार से लिखा है। लेकिन क्या किसी को इन बातों पर विचार करने की फुर्सत है?
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