क्या बेताली मौन ही सत्ता का सुरक्षा कवच है...?

खरी-खरी            Nov 07, 2025


शैलेष तिवारी।

इसे हम अपनी खुशनसीबी कहें या बदनसीबी कि भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में घट रही उस घटना के हम गवाह हैं जिसमें विपक्ष चुनावी प्रक्रिया को लेकर सवाल दर सवाल केंद्रीय चुनाव आयोग से पूछ रहा है। मजे की बात यह है कि चुनाव आयोग के बचाव में सत्ताधारी दल के प्रवक्ता और नेता उतर पड़ते हैं। जिनसे कोई सवाल पूछा ही नहीं गया है। शक के बीज की बोवनी यहीं से होती है कि क्या विपक्ष के नेता ने नाभि में तीर चुभा दिया है?

 चुनाव आयोग जिससे निष्पक्षता की उम्मीद लोकतंत्र में की जाती है वह पूरी निर्लज्जता के साथ विपक्ष के सवालों का कोई तार्किक उत्तर नहीं देता वरन टालने वाले अंदाज में तुरत फुरत प्रेस कॉन्फ्रेंस में देता है।

जिन बिंदुओं का उल्लेख आयोग ने किया वह भी अपने आप में विरोधाभासी हैं। जैसे किसी भी वोटर का नाम ऑन लाइन डिलीट नहीं किया जा सकता और इसी तरह के मामले की एफआईआर भी चुनाव आयोग ने दर्ज कराई है। आयोग की इस तरह की पूरब पश्चिम जैसी बातें देश के नागरिक के मन में शंका के नाग को अपना फन फैलाने का पूरा अवसर दे रही है।

हरियाणा विधान सभा चुनाव को लेकर राहुल गांधी ने जो एच फाइल डिकोड कर खुलासा किया है जिसमें ब्राजील की मॉडल का फोटो मतदाता सूची में कई जगह उपयोग होने से संदेह के बादल और अधिक घनी भूत हो जाते हैं।

हमें नहीं मालूम कि विपक्षी नेता राहुल गांधी के सवाल कितने सही या कितने गलत हैं? इन सवालों को सही या गलत साबित करने के लिए चुनाव आयोग को आरोपों की जांच पूरी निष्पक्षता से कराना चाहिए और देश की जनता के मन में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती से स्थापित करना चाहिए।

परन्तु आयोग इसके विपरीत कार्यवाही को अंजाम देकर अपनी निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगाने का पूरा मौका देश को दे रहा है।

यहीं से सवाल भी जन्म लेता है कि चुनाव आयोग को यह ताकत कहां से मिल रही हुआ कि वह स्वयं को संविधान और सर्वोच्च न्यायालय से ऊपर स्थापित करने का दुस्साहस कर रहा है। पहले इसी बिंदु को समझ लें तो विपक्ष के आरोप समझने में आसानी होगी।

याद कीजिए वह सुप्रीम फैसला जिसमें मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए एक पैनल बनाए जाने का निर्देश दिया था। उस पैनल में प्रधान मंत्री और विपक्ष के नेता के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को शामिल करने को कहा गया था।

जाहिर है अलग अलग क्षेत्र के तीन में से जो दो एक तरफ होते वह मुख्य चुनाव आयुक्त बनता और संविधान तथा देश के प्रति उत्तरदायी होता लेकिन केंद्र सरकार ने इस फैसले को लगभग पलट सा दिया । पैनल में से मुख्य न्यायाधीश को हटा कर एक केंद्रीय मंत्री को शामिल कर दिया गया। अब स्पष्ट हो गया कि प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री मिलकर जिसे चाहें उसे मुख्य चुनाव आयुक्त बना दें। जो पीएम और केंद्रीय मंत्री के प्रति ज्यादा जवाबदेह बनेगा। लगभग यही होता दिखने का संदेह भी पैदा हो रहा है।

इसका एक और कारण तब ज्यादा क्लियर होगा जब पाठक उस विधेयक को याद करेंगे जिसे दिसंबर 2023 में उस समय संसद में प्रस्तुत किया जाकर पास कराया गया था जब विपक्ष के 141 सांसदों को निलंबित किया गया था।

अन्य चुनाव आयुक्त विधेयक 2023 के भाग 16 का उल्लेख करना जरूरी है जिसके कारण मुख्य चुनाव आयुक्त की कार्यप्रणाली को अभयदान जैसा देता है। इसमें यह संशोधन किया गया है कि चुनाव आयुक्त द्वारा अपने कार्यकाल के दौरान किए गए कार्यों के लिए उनके सेवा निवृति के बाद भी किसी भी न्यायालय में कोई मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता।एफआईआर दर्ज कराने का तो कोई प्रश्न है ही नहीं।

जब अपने किसी भी कृत्य को लेकर इतनी निश्चिंतता हो तो संविधान या सर्वोच्च न्यायालय के प्रति उसकी जवाबदेही स्वयं ही अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गई।

ले देकर बस एक ही रास्ता है मुख्य चुनाव आयुक्त को कटघरे में खड़ा करने का । वह है उनके खिलाफ महा अभियोग लाने का । जो संसद में बहुमत के आधार पर ही पारित हो सकता है और इस वक्त बहुमत सत्ताधारी दल के पक्ष में है। यानि कि महा अभियोग उन्हें नियुक्त करने वाले प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री की इच्छा से ही पारित कराया जा सकता है जो उनके मनोनुकूल कार्य करने पर क्या ऐसा हो पाना संभव है?

निश्चित ही आपका उत्तर होगा नहीं.. यह हो ही नहीं सकता अथवा सत्ता पक्ष के इशारे पर काम करने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होने का सवाल ही नहीं उठता। शायद यही वह कारण हैं कि सुप्रीम कोर्ट में भी आयोग की तरफ से अपने मन माफिक बोला जा रहा है। और तो और ऑन लाइन वोट डिलीट करने को लेकर स्वयं आयोग द्वारा कराई गई एफआईआर की जांच भी शायद इन्हीं कारणों से ठंडे बस्ते में आराम फरमा रही है।

कर्नाटक सरकार ने इसी जांच को डेढ़ साल पहले सीआईडी को सौंप दिया और सीआईडी ने डेढ़ दर्जन लेटर इस बात को लेकर केंद्रीय चुनाव आयोग को लिखे गए हैं कि हमें उन कंप्यूटर के सोर्स बताएं जाएं जहां से फॉर्म नंबर 7 ऑन लाइन भरे गए और वह मोबाइल नंबर एवं उनके मालिक के नाम बताए जाएं जहां ओ टी पी आया क्योंकि वह सभी कर्नाटक के बाहर के  हैं। लेकिन चुनाव आयोग ने यह जानकारी जांच एजेंसी को अभी तक उपलब्ध नहीं कराई है।

इस तरह की अन्य घटनाएं भी चुनाव आयोग को संदेह के घेरे में खड़ा करती हैं।

अब आते हैं विपक्षी नेता के आरोपों से उत्पन्न हो चुकी या होने वाली परिस्थितियों के अनुमानित विश्लेषण पर... ।

हाल फिलहाल पक्ष और विपक्ष दोनों ही बिहार चुनाव में व्यस्त हैं और आरोप प्रत्यारोप के दौर में पहले चरण का मतदान संपन्न हो चुका है। मतदान के दौरान भी कई तरह की घटनाएं सामने आई हैं लेकिन चुनाव आयोग की खामोश लापरवाही लोकतंत्र को कमजोर करती नजर आती है।

इस कवायद में विपक्ष के नेता ने सरकार और चुनाव आयोग दोनों को कटघरे में खड़ा कर दिया है। उनकी तर्कहीन दलीलें जनता में उनके प्रति यकीन के प्रतिशत को लगातार कम कर रही हैं। यह स्थिति राष्ट्र के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिए कहीं से भी हितकर नहीं कही जा सकती।

बहरहाल स्थिति कुछ ऐसी बन गई है कि 14 नवम्बर को बाल दिवस के मौके पर जब ईवीएम से जनादेश के रुझान परिणाम में बदल रहे होंगे तब विपक्ष के दोनों में लड्डू होने जैसी स्थिति होगी।

अगर विपक्ष चुनाव जीत जाता है तो उसके पास यह तर्क होगा कि हमने वोट चोरी रोकने में सफलता प्राप्त कर ली। और चुनावी हार पर उसका कहना होगा कि एक बार फिर चुनाव आयोग और सरकार की मिलीभगत ने वोट चोरी कर चुनाव जीत लिया है।

इसके उलट देखें तो सत्ता पक्ष अपनी हार या जीत पर जो भी तर्क देगा वह इस मुद्दे से अलग होंगे , इसका जिक्र तक नहीं होगा क्योंकि इन आरोपों पर उसका बेताली मौन ही क्या उसका सुरक्षा कवच है?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

 


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