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फैसला न्याय की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए

खरी-खरी, वामा            Aug 21, 2022


राकेश दुबे।

देश में न्यायिक प्रक्रिया,सहानुभूति और भविष्य के लिए  दृष्टांत को लेकर बहस छिड़ी हुई  है।

मसला आजादी के पर्व के दिन एक मामले में रिहाई है जिसने देश में बड़े विवाद को हवा  दी है। यह ऐसी रिहाई है जिस पर तमाम सवाल उठ रहे हैं।

गुजरात में हुए 2002  के दंगों के दौरान बिलकिस बानो से गैंग रेप व परिजनों की हत्या के मामले में सजा काट रहे ग्यारह अभियुक्तों की रिहाई ने कई गंभीर प्रश्नों को जन्म दिया है।

21 जनवरी, 2008 को मुंबई की एक विशेष सीबीआई अदालत ने संगीन आरोपों के लिये 11 अभियुक्तों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी।

कालांतर बॉम्बे हाईकोर्ट ने सजा पर अपनी सहमति की मोहर लगाई थी।

दरअसल, 15 साल से अधिक की जेल की सजा काटने वाले एक दोषी ने विगत में सजा माफी के लिये सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को सजा माफी के मुद्दे पर गौर करने का निर्देश दिया था।

इसके बाद गुजरात के पंचमहल के कलेक्टर के नेतृत्व में एक समिति बनाई गई जिसने कैदियों की रिहाई की मांग पर विचार किया।

समिति ने सर्वसम्मति से कैदियों को रिहा करने का निर्णय किया।

ये सिफारिश राज्य सरकार को भेजी गई थी और दोषियों को रिहा करने के आदेश दिये गये।

इस पर गुजरात के अतिरिक्त मुख्य सचिव का कहना था कि जेल में चौदह साल पूरे होने पर उम्र,अपराध की प्रकृति व कैदियों के व्यवहार आदि पर विचार करने के बाद सजा में छूट देने पर विचार किया गया।

साथ ही यह भी देखा जाता है कि अपराधी ने अपनी सजा पूरी कर ली है,  तभी रिहाई पर विचार किया जा सकता है।

कैदी के गंभीर रूप से बीमार होने पर भी ऐसा फैसला लिया जा सकता है।

इस पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इससे कम गंभीर मामलों में सजा पाने वाले कैदी जेलों में बंद हैं जबकि गंभीर अपराध में लिप्त दोषियों को रिहा कर दिया गया है।

दरअसल, पीड़ित पक्ष का आरोप है कि हमें सरकार ने इस मामले में कोई सूचना नहीं दी, हमें मीडिया से दोषियों की रिहाई की बात पता चली।

वहीं गुजरात सरकार के इस फैसले की चौतरफा आलोचना हो रही है। कहा जा रहा है कि अपराध के शिकार लोगों का तंत्र पर भरोसा डिगा है।

दरअसल, बिलकिस बानो ने न्याय पाने के लिये लंबा संघर्ष किया था। पहले सबूतों के अभाव में पुलिस ने केस खारिज कर दिया था।

गुजरात सरकार के दौरान जब उसे न्याय मिलता न दिखा तो वह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पहुंची।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले में सीबीआई जांच के आदेश दिये,  तब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर क्लोजर रिपोर्ट खारिज की गई।

सीबीआई ने चार्जशीट में 18 लोगों को दोषी पाया था।

लगातार धमकी मिलने और न्याय मिलने में संदेह के चलते बिलकिस बानो ने केस गुजरात से बाहर स्थानांतरित करने की मांग सुप्रीम कोर्ट से की थी।

जिसके बाद मामला मुंबई कोर्ट में भेजा गया था।

यहां तक कि वर्ष 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो को दो सप्ताह के भीतर 50 लाख का मुआवजा, घर व नौकरी देने का भी आदेश दिया था। जिस पर गुजरात सरकार के वकीलों ने सवाल भी उठाये थे।

दोषियों की रिहाई से बिलकिस बानो स्तब्ध है, वह कहती है कि उनका वर्षों का संघर्ष व मेहनत बेकार चली गई।

गुजरात सरकार के इस फैसले के बाद कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल हमलावर हैं। कांग्रेस कह रही है कि एक तरफ केंद्र सरकार नारी सम्मान की बात करती है तो दूसरी ओर एक महिला के साथ जघन्य अपराध करने वालों को रिहा कर देती है।

कहा जा रहा है कि इस फैसले से न्याय की अवधारणा सार्थक होती नजर नहीं आती। कोई भी फैसला न्याय की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए।

 



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