देवेश कल्याणी।
हिंदुत्व की प्रयोगशाला मप्र से पहली बार किसी भी पार्टी के रूप में भाजपा के दोनों ही राज्यसभा सांसद महिलाएं होंगी। पहली ओबीसी प्रतिनिधित्व के रूप में कविता पाटीदार और दूसरी अनुसूचित जाति के प्रतिनिधित्व के रूप में सुमित्रा वाल्मिकी।
उधर राज्यसभा में किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को न चुन कर भाजपा उच्च सदन में मुस्लिम मुक्त हो गई है।
ये संयोग तो कतई नहीं, प्रयोग अवश्य है जिसके परिणाम की प्रतीक्षा 2024 के चुनाव तक करना होगी।
अनुसूचित जातियों में देश में दूसरे क्रम पर आने का दावा करने वाले वाल्मिकी समुदाय से संभवतः पहली बार कोई महिला यूं उच्च सदन में पहुंची है, वहीं राज्यसभा में सबसे बड़े दल ने 14 फीसदी से ज्यादा आबादी मुस्लिमों के एक भी प्रतिनिधि को मौका नहीं दिया।
ये दोनों फैसले मतदाताओं के मन पर जाति और समुदाय के नाम पर विभाजन की बहुत गहरी लकीर साबित हो सकती है।
एक साथ दो महिलाओं का चयन पुरुष क्षत्रपों के प्रभुत्व पर अस्वीकार्य अदृश्य नकेल नजर आ रहा है।
सुमित्रा के साथ लगा वाल्मिकी शब्द भर एक बहुत बड़े तबके को प्रभावित करने को पर्याप्त है।
दरअसल देश भर में महार और चमार समुदायों के बाद वाल्मिकी समाज की नई पीढ़ी के साथ पुरानी भी तेजी से अंबेडकरवाद से जुड़ रही है, जिसका असर दिल्ली, पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक दिखा है।
मगर इनके पास स्टिकअप होने के लिए कोई सर्वमान्य पार्टी या नेता नहीं है, बसपा में यह स्वीकार्य नहीं है।
कई कोशिशों के बाद ये वहां भेदभाव का शिकार हुए इनके बाद बाबा साहेब अंबेडकर के पोते से लेकर रामदास आठवले और पासवान तक की पार्टियों का मप्र में न कैडर है न जनाधार।
भीम आर्मी से उपजी नवोदित आजाद समाज पार्टी भी बसपा पार्ट टू की राह पर अग्रसर है। इसलिए अनुसूचित जातियों की दूसरी सबसे बड़ी जमात वाल्मिकी कांग्रेस के बाद आप से लेकर भाजपा तक हर पार्टी की तरफ स्विंग होते देखे जा रहे हैं।
ऐसे में जब वाल्मिकियों को प्रधानमंत्री द्वारा पांव धुलाने से लेकर सम्मान देने तक की कवायदें हुईं तो यूपी में जहां बसपा का सूपड़ा साफ हो गया वहां दर्जनों सीटों पर कम अंतर के बाद भी भाजपा ने कमाल कर दिखाया।
लेकिन मप्र में 2 अप्रैल के मूवमेंट में अनुसूचित जाति जनजाती की कड़क गोलबंदी के कारण अनुसूचित जाति जनजाति बहुल सीटों के उलटफेर के कारण भाजपा को न केवल सत्ता से बाहर होना पड़ा बल्कि वापसी के बाद उपचुनाव में भी झटके लगे।
यानी इस माहौल में सुमित्रा का चयन अनुसूचित जातियों की गोलबंदी पर बड़े प्रहार में तब्दील करने का विकल्प उभर आया है।
मप्र में निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण में झटका खाने के बाद कविता के चयन को हीलिंग मटेरियल की तरह देखा जा सकता है। उसी तरह
राज्यसभा में भाजपा की मुस्लिम मुक्त होने से ध्रुवीकरण के हालत बनने से हिंदुत्व को लहर की
तरह वेगवान बनाने की कोशिशें होंगी।
देखते चलिए अब कुछ भी मंथर नहीं है जो सहजता से कोई भी मंथन कर परिणाम को प्राप्त हो जाए।
आप आंखें जमाए रहें क्योंकि ये पीढ़ियां बदलने वाले लीडर्स का युग नहीं बल्कि चुनाव जीतने में पारंगत पालिटिशियनों का जमाना है, जो हर सत्ता और हर प्रभुत्व पर केंद्रीकृत रूप से काबिज होते हैं, यहां अधिकारों का बंटवारा दिखता जरूर है पर होता नहीं।
अंत में एक गाने के बोल याद आ रहे हैं...
सुबहो आती है, रात जाती है
वक़्त चलता ही रहता है रुकता नहीं
एक पल में ये आगे निकल जाता है
आदमी ठीक से देख पाता नहीं
और परदे पे मंज़र बदल जाता है
एक बार चले जाते हैं जो दिन-रात, सुबहो-शाम
वो फिर नहीं आते..
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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