राकेश दुबे।
मध्यप्रदेश सरकार ने एक और योजना शुरू करने का मंसूबा बांधा है वैसे भी मध्यप्रदेश में ऐसी लोकलुभावन योजनाओं की भरमार है जो मुफ्तखोरी की संस्कृति की जनक हैं।
मुफ़्तख़ोरी एक प्रतिकूल परंपरा है, जो न केवल राजनीति, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचाती है।
क़र्ज़ में डूबते जा रहे मध्यप्रदेश के लिए ऐसी योजनाएँ प्रतिगामी होंगी, इसमें संदेह नहीं है।
देश के 15 वें वित्त आयोग के अध्यक्ष अर्थशास्त्री एन के सिंह ने मुफ्त उपहार योजनाओं को लेकर एकदम सटीक सवाल उठाए हैं।
उन्होंने तो यह भी कहा है कि अभी मुफ्त योजनाओं के अर्थ में बहुत अस्पष्टता है।
वास्तव में सरकार को यह देखना चाहिए कि कौन-सी वस्तु मुफ्त देने लायक है और कौन-सी वस्तु देने लायक नहीं है।
उदाहरण के लिए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत और व्यापक करना, रोजगार गारंटी योजनाएं, शिक्षा के लिए सहायता और स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से महामारी के दौरान खर्च और उदारता बढ़ाना सही है। पूरी दुनिया में ऐसे व्यय को न्यायपूर्ण माना जाता है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दुनिया में गरीबों या अभावग्रस्त लोगों की संख्या कम से कम एक चौथाई है, उनकी आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के प्रबंध करना हर सरकार की जिम्मेदारी है।
कोरोना दुष्काल के समय भारत में ही 80 करोड़ लोगों तक मुफ्त अनाज पहुंचाने की कोशिश हुई, उसकी निंदा भला कौन कर सकता है? कई बार लोगों को मुफ्त सेवाएं या वस्तुएं देना जरूरी हो जाता है।
ऐसे में, एन के सिंह का इशारा बिल्कुल सही है कि जरूरी और गैर-जरूरी के बीच केंद्र और राज्य सरकारों को फर्क करना चाहिए।
दोनों सरकारों को यह सोचना ही चाहिए कि मुफ्त योजनाएं लंबे समय में अर्थव्यवस्था, जीवन की गुणवत्ता और सामाजिक सामंजस्य के लिए कितनी महंगी और अर्थव्यवस्था के लिए कष्टप्रद होंगी ।
दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के वार्षिक दिवस के अवसर पर श्री एन के सिंह साफ कहा है कि मुफ्त योजनाओं की प्रतिस्पर्धी राजनीति से सरकारों को डरना चाहिए।
उनकी सलाह है पूरे देश को आर्थिक विकास की उच्च दर हासिल करने की राह पर चलना चाहिए। वैसे तो आज दक्षता की दौड़ ही संपन्नता की दौड़ बनी हुई है।
प्रश्न यह है यदि ऐसी योजनाएं अगर बढ़ती गईं, तो मध्यप्रदेश जैसे उन राज्यों का क्या होगा, जिनकी अर्थव्यवस्था पहले से ही बहुत दबाव में है।
सरकारों पर जो कर्ज है, उसे भी देखना चाहिए। वस्तुत: कर्ज लेकर मुफ्त योजनाओं के दम पर राजनीति करना एक बड़ा वर्ग जो कि मध्यम वर्ग के रूप में परिभाषित है के साथ अन्याय भी है।
अनुमान के अनुसार, पंजाब में मुफ्त योजनाओं या उपहारों के वादे को लागू करने में लगभग 17000 करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं।
इससे जीडीपी के तीन प्रतिशत के बराबर का अतिरिक्त भार पडे़गा। पंजाब के सकल घरेलू उत्पाद में पचास प्रतिशत से ज्यादा तो ऋण है, मतलब मुफ्त योजनाओं से पंजाब पर भार बढ़ना तय है, इन आँकड़ों से अन्य राज्यों और केंद्र को सबक़ लेना चाहिए।
श्री एन के सिंह ने एक और उपयोगी मिसाल दी है,जैसे राजस्थान की सरकार ने घोषणा की है कि वह पुरानी पेंशन योजना को लागू करेगी।
यह निर्णय प्रतिगामी है, क्योंकि पुरानी पेंशन योजना से पीछा छुड़ाना इस तथ्य पर आधारित था कि वह योजना समानता पर आधारित नहीं थी।
राजस्थान का पेंशन एवं वेतन व्यय उसके कर और गैर-कर राजस्व का करीब 56 प्रतिशत है, यानी उसकी छह प्रतिशत सिविल सेवक आबादी को राज्य के 56 प्रतिशत राजस्व का लाभ मिलता है, अन्य राज्यों के आँकड़ों भी ऐसे ही हैं। यह समानता और नैतिकता के सिद्धांत के भी विपरीत है।
यह सही है कि सरकारों की व्यय प्राथमिकताओं की वजह से विकास व विकास की योजनाओं पर असर पड़ रहा है। मुफ्त सुविधाओं से कुशलता औरप्रतिस्पर्धा , दोनों पर नकारात्मक असर पड़ता है।
देश के अर्थशास्त्री मुफ्तखोरी के अर्थशास्त्र को निरपवाद रूप से गलत बताते हैं और सुधार की पुरज़ोर सिफ़ारिश करते हैं।
हक़ीक़त में मुफ्त उपहार की राजनीति व उसके अर्थशास्त्र, दोनों में गहरी खामियां हैं। देश को ऊपर ले जाना है तो इससे बचना चाहिए।
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