राकेश कायस्थ।
जब मामला राष्ट्रीय सुरक्षा का हो तो देश को सरकार के साथ खड़े होना चाहिए, भले ही असहमतियां तमाम हों। मैं भी सरकार के साथ खड़ा हूं।
लेकिन सवाल यह है कि सरकार क्या कर रही है, वह देश की जनता के साथ खड़ी है या बीजेपी के चुनावी एजेंडे के साथ? यह देखना ज़रूरी है कि पुलवामा की घटना के बाद से अब तक प्रधानमंत्री जी ने क्या-क्या किया है
आतंकवादी हमले के फौरन बाद जब देश के विपक्षी नेताओं ने अपने राजनीतिक कार्यक्रम रद्ध कर दिये वहीं प्रधानमंत्री ने चुनावी रैली की। उसके बाद उन्होंने फोटो शूट किया।
चुनावी रैलियों का सिलसिला आबाध गति से जारी है, जहां सिर्फ जनता की भावनाएं भड़काई जा रही हैं।
इस तरह की कोई भी घटना होती है तो देश का शीर्ष नेतृत्व जनता से अपील करता है कि शांति और भाईचारा बनाये रखें, आपकी सरकार किसी भी तरह की स्थिति से निपटने में पूरी तरह सक्षम है। क्या आपको ऐसी कोई अपील सुनाई दी?
प्रधानमंत्री ने चुनावी रैली में कहा— आपकी तरह मेरा खून खौल रहा है। यह किसी जिम्मेदार शासनाध्यक्ष की भाषा नहीं है। जनता खून की गर्मी दिखाने नहीं बल्कि ठंडे दिमाग से निर्णय लेने के लिए अपना नेता चुनती है।
पुलवामा की घटना दिल चीर देने वाली है। गर्भवती महिलाएं विधवा हुई हैं। कैंसर का इलाज करवाने के लिए बेटे की राह देख रही मां ने अपना सबकुछ खो दिया है।
लेकिन आप शहीदों के अंत्येष्टि कार्यक्रम देख लीजिये। ज्यादातर इलाकों में बीजेपी नेताओं ने इसे सस्ता राजनीतिक तमाशा बना दिया है।
मैं पिछले 20 साल में देश में हुए तमाम बड़े आतंकवादी हमले के दौरान न्यूज रूम में रहा हूं। हर हमले के बाद सुरक्षा व्यवस्था से जुड़े सवाल उठते हैं। सरकार कठघरे में होती है। कड़े सवाल पूछे जाते हैं और बहुत से मामलों में हमने इस्तीफे होते भी देखे हैं। लेकिन पुलवामा प्रकरण में क्या ऐसा हो रहा है?
मीडिया जानबूझकर सारे सवालों को दबा रहा है और सुनियोजित तरीके से युद्दोन्माद भड़काने में जुटा है। इस राजनीतिक गिद्ध भोज में भागीदारी बराबरी की है।
पढ़े-लिखे लोगों के साथ राजनीतिक मुद्दों पर संवाद करने में असमर्थ भक्तों की लॉटरी लग गई है। उन्हें उन्माद के बीच अपनी दुश्मनी निकालने का मौका मिल गया है।
देशभक्ति के सार्टिफिकेट फिर से बांटे जाने लगे हैं और सरकार की नाकामियों का ठीकरा उन लोगों के सिर फोड़ा जाने लगा है, जो वैचारिक रूप से अलग पाले में खड़े हैं।
पूरे प्रकरण में सबसे चिंताजनक बात सरकार का रवैया है। यह बहुत साफ दिखाई दे रहा है कि मोदी सरकार का एकमात्र उदेश्य इस मौके का राजनीतिक फायदा उठाना है।
विपक्ष ने सरकार को बिना शर्त सहयोग देने का वादा किया है। लेकिन खुद प्रधानमंत्री सर्वदलीय बैठक में शामिल होने के बदले चुनावी रैलियों में जनभावनाएं भड़काने में जुटे हैं।
हुरर्यित नेताओं की सुरक्षा हटाना एक ऐसा ही कदम है। यह सिर्फ सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का ज़रिया है। अगर हुर्रियत नेताओं वाकई देश की सुरक्षा को खतरा है तो उन्हें तत्काल गिरफ्तार या नजरबंद किया जाना चाहिए।
लेकिन सिर्फ सुरक्षा हटाने के मतलब यही है कि सरकार चाहती है कि कश्मीर में हालात और बिगड़ें और उसे राष्ट्रीय स्तर पर भुनाया जा सके।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए हुर्रियत के साथ वैचारिक एकता रखने वाली पीडीपी के साथ मिलकर बीजेपी ने लंबे समय तक सरकार चलाई है।
खुली छूट देने का डंका पीटना, सुरक्षा व्यवस्था ढीली करना ये सब बातें 2002 की याद दिला रही हैं।
मोदीजी को क्षुद्र राजनीतिक फायदे और राष्ट्रीय हित दोनों में किसी एक का चुनाव करना है। अगर वे इस मामले को जिम्मेदारी से हैंडिल करते हैं तो देश की नजर में उनका सम्मान बढ़ेगा।
अगर चुनावी फायदे के लिए पुलवामा का घटिया इस्तेमाल किया जाता है तो फिर जनता आज नहीं तो कल हिसाब ज़रूर करेगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।
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